गंज में गोबिन्दगंज
आउर गंज गंजुली
साव में कन्हइया साव
बाकी साव सहुली
गंजों में तो गोबिंदगंज ही ‘गंज’ है बाकी गंजुली हैं, मतलब छोटे गंज. साव (स्थानीय छोटे सरमाएदार) में यहाँ के कन्हाई साव ही असली साव है बाकी तो सहुली हैं. गंज फ़ारसी भाषा का शब्द है जो स्थानीय कर-कोष को जमा करने वाली जगह का सूचक है.
ऐसी ही एक और कहावत चितौड़ के राज और उसकी रानी के लिए कहते हैं –
गढ़ में चितौड़ गढ़
बाकी गढ़ गढ़हिया
रानी में पद्मिनी रानी
बाकी रानी रनिया
ये सारी कहावतें उस दौर में बनी हैं जब ‘कोस कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी’ वाली कहावत चला करती थी. पानी और बानी का यह बदलाव गाँव को देश बना देता था. तब इन्हीं छोटे-छोटे ढेर सारे देशों से मिल कर एक भारत देश बनता था. महात्मा गाँधी ने भी भारत देश को ऐसे ही ढेर सारे स्वतन्त्र ग्रामों के संघ के रूप में सोचा था. ये सारी कहावतें उन छोटे-छोटे देशों को, राष्ट्र की इन स्वायत्त इकाइयों के भीतर के राष्ट्रवाद को अभिव्यक्त करती थीं.
क्या है गोविंदगंज की कहानी?
तो आइए जनाब आपको गोविन्दगंज ले चलते हैं. यह क्षेत्र बिहार के पूर्वी चम्पारण ज़िले में सुदूर दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है. कभी इसी जगह के कमलनाथ तिवारी की शहीदे आज़म भगत सिंह से क्रान्तिकारी दोस्ती हुई थी. जिस अपराध के लिए भगत सिंह को फाँसी हुई उसी अपराध में तिवारी जी उम्रक़ैद की सज़ा काटने पोर्ट ब्लेयर भेजे गए.
गंडक नदी जिसे शास्त्रों में नारायणी भी कहा जाता है, इस नदी का कछार पाकर यहाँ खेती की शानदार ज़मीन बनती है और एक ज़माने में जब नदियों से परिवहन का काम लिया जाता था यहाँ व्यापार-वाणिज्य भी खूब फल-फूल गया. इसने गोविन्दगंज का ‘गंज’ मज़बूत किया और कन्हैया साव की पूँजी को बढ़ाया.
पानी, परिवहन और खेती सब ठीक रही तब मानव कैसे पीछे रहते! यहाँ का मानव-विकास भी जबरदस्त रहा. हट्ठे-कट्ठे और मुखर लोग. एक और कहावत चल पड़ी – ” चारू ओर के नागरा, गोबिंदगंज के बागाड़ा” मतलब कहीं और का वक्ता यहाँ के गूँगे के बराबर ही होगा.
पर शायद यह पूरी हक़ीक़त नहीं है. उसका एक अंश ही है. जिस पानी, परिवहन और खेती की बात हो रही है उस पर सबका हक़ बराबर नहीं था लिहाज़ा विकास ‘समावेशी विकास’ नहीं बन सका. भारत देश के भगत सिंह के क्रांतिकारी मित्र कमलनाथ तिवारी यहीं के थे तो आगे इस छोटे से देश पर बन्दूकों के दम कब्ज़ा करने वाले लोग भी हुए. कहीं के वक़्ता की बराबरी में गोविन्दगंज का गूँगा खड़ा था तो कई बार यह गूँगा ख़ुद के मुस्तक़बिल पर चुप भी हो गया.
गोविंदगंज जहां आजतक बीजेपी और राजद का खाता नहीं खुला
सियासत की बात करें तब ‘गोविन्दगंज’ नाम का विधानसभा क्षेत्र 1952 के पहले निर्वाचन से ही क़ायम रहा है. काँग्रेस के शिवधारी पाण्डेय यहाँ के पहले एमएलए हुए. तब से अब तक दो मौकों को छोड़ दें तो दल कोई भी हो विधायक ब्राह्मण ही हुआ है. ये दो मौक़े 1969 और 1985-1990 रहा जब भूमिहार समुदाय के क्रमशः राय हरिशंकर शर्मा और योगेन्द्र पाण्डेय विधायक बने. ग़ौर करने वाली बात है कि भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ और राजद के पुराने संस्करण जनता दल को छोड़ दें तो ब्राह्मण बहुल होने के बाद भी यहाँ भाजपा को कभी जीत नहीं मिली. राजद भी अब तक इस सीट को जीतने में नाक़ाम रहा है.
1957-1962 और 1967 में काँग्रेस ने नगदहाँ गाँव के पण्डित ध्रुवनारायण मणि तिवारी को चुनाव मैदान में उतारा और वे जीत कर पटना जाते रहे. कहा जाता है कि वे कन्धे पर धोती और हाथ में लोटा थामे विधानसभा सत्र के लिए गोविन्दगंज से हाजीपुर की बस पकड़ते थे. तब देश नया-नया आज़ाद हुआ था और विलासिता दिखाना सियासी फ़ैशन के ख़िलाफ़ था.
1969 में काँग्रेस जब दो हिस्सों में टूट गई तब इसका नुक़सान उसे अपने गढ़ गोविन्दगंज में भी उठाना पड़ा. यह वो दौर था जब ग़ैर-काँग्रेसवाद का नारा चला, गोविन्दगंज इसी नारे के साथ हो गया और जनसंघ के हरिशंकर शर्मा को जीत मिली. महज़ तीन साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में इस सीट पर इंदिरा गाँधी की काँग्रेस ने फिर से अपना कब्ज़ा क़ायम कर लिया. अबकी रमाशंकर पाण्डेय को टिकट मिला.
उभरते दूबे बंधुओं को दबाने के लिए योगेन्द्र पाण्डेय ने दुहराया ‘महम काण्ड’
1977 में इन्दिरा विरोधी लहर के बावजूद भी सीट काँग्रेस के पाले में बनी रही. 1980 के दशक की शुरुआत में इस क्षेत्र में भूमिहार समाज से आने वाले एक किसान नेता योगेन्द्र पाण्डेय का उदय हुआ. आप इन्हें गोविन्दगंज का चौधरी देवीलाल भी कह सकते हैं. इस किसान नेता ने निर्दलीय 1985 में रमाशंकर पाण्डेय को हरा दिया. रमाशंकर पाण्डेय पेशे से कॉलेज शिक्षक थे और कुलीन-सम्भ्रांत वर्ग से आते थे. यह वो दौर था जब नेहरू दौर की कुलीनता को ज़मीनी लोग चुनौती देने लगे थे.
योगेन्द्र पाण्डेय को चौधरी देवीलाल कहना इसलिए भी ज़रूरी था कि किसानों के लिए उनका काम और बाद में अपने किए काम का अभिमान उनमें एकदम देवीलाल की ही तरह था. जिस तरह से चौधरी देवीलाल को किसानों के हितैषी के साथ-साथ ‘महम काण्ड’ के लिए भी जाना जाता है उसी प्रकार श्री पाण्डेय को भी. ‘महम काण्ड’ जब अपने बेटे को जिताने के लिए चौधरी देवीलाल किसी भी हद तक उतर गए थे. प्रशासन के दुरुपयोग से जुड़े 1989-90 के महम काण्ड में गोलीबारी और ढेरों अवैध गिरफ्तारियाँ हुई थीं.
योगेन्द्र पाण्डेय ने लालू प्रसाद यादव की सरकार में लघु सिंचाई मंत्री होने का वहीं प्रभाव 1994-95 के गोविन्दगंज में दिखाया. तब उनके ऊपर टिकुलियाँ गाँव के उभरते युवा नेता दूबे बन्धुओं (भूपेन्द्र नाथ दूबे-देवेन्द्र नाथ दूबे) पर पुलिसिया अत्याचार करवाने के भारी आरोप लगे. नतीज़तन 1995 में उन्हें उन्हीं की पार्टी जनता दल से अलग होकर बनी समता पार्टी के देवेन्द्र नाथ दूबे के हाथों चुनाव हार जाना पड़ा. इन चुनावों में तब के बिहार (झारखण्ड के साथ) की 333 विधानसभा सीटों में समता पार्टी को सिर्फ़ 6 सीटें हासिल हुईं, उन छह में से एक गोविन्दगंज था.
1985-95 में दो बार विधायक रहे योगेन्द्र पाण्डेय किसान समर्थक तो थे मगर अपने दल के सामाजिक न्याय से अधिक जुड़े हुए न थे. क्षेत्र की पिछड़ी आबादी उनके साथ न जुड़ सकी. साथ ही राजनीति बदल रही थी पर उसे भाँपने में वे अधिक कुशल साबित न हुए. सवर्ण बहुल गोविन्दगंज में ब्राह्मण अबादी अधिक थी और 1994-95 में उनके द्वारा दूबे बन्धुओं पर कार्रवाई कराने के चलते ब्राह्मण उनसे रुष्ट हो गए. उन्होंने स्वजातीय और बाहुबली नेता देवेन्द्र नाथ दूबे को चुना. देवेन्द्र दूबे पिछड़ी जातियों का भी पूरा ख़याल रखते.
यहां एक बार जो हारा वो दुबारा नहीं जीतता
कहते हैं कि गोविन्दगंज की पिच पर एकबार आउट होने वाला दोबारा से फिर बैटिंग नहीं संभाल पाता. उसके बाद हुए कुछ चुनावों में योगेंद्र पाण्डेय की जमानत तक न बची. 1998 में विधायक देवेन्द्र नाथ दूबे की हत्या हुई तब इस सीट पर उप-चुनाव हुए. इसमें उनके बड़े भाई भूपेंद्र नाथ दूबे को रिकॉर्ड मतों से जीत मिली. मगर महज़ दो साल बाद हुए सन 2000 के आम चुनावों में भूपेंद्र दूबे एक निर्दलीय उम्मीदवार राजन तिवारी से हार गए. इसके पहले कि उनकी वापसी होती साल 2004 में उनकी असामयिक मौत हो गई.
इसके बाद पति का बदला पत्नी ने चुकाया और 2005 में हुए दोनों चुनावों में लोजपा के राजन तिवारी को भूपेंद्र नाथ दूबे की पत्नी मीना द्विवेदी ने हराया. उन्होंने इस जीत को 2010 में भी दोहराया जब राजन तिवारी के बड़े भाई राजू तिवारी राजद के समर्थन से लोजपा उम्मीदवार थे. 2015 में यहाँ एक बड़ा सियासी उलटफेर हुआ और जदयू का गठबन्धन राजद-काँग्रेस से हुआ और मीना द्विवेदी का टिकट काट दिया गया. लोजपा के राजू तिवारी के मुक़ाबले काँग्रेस के ब्रजेश कुमार पाण्डेय की बड़ी हार हुई.
2005 में क्षेत्र को मिली पहली महिला विधायक
2005 के मार्च और नवम्बर में हुए चुनावों में बहुत कुछ बदल गया. मीना द्विवेदी के रूप में क्षेत्र को उसकी पहली महिला विधायक मिली. उनके कार्यकाल में ‘न्याय के साथ विकास’ का नारा बुलन्द हुआ. उनके सत्ताधारी पार्टी (जदयू) की विधायक होने का लाभ मिला. वे सड़क-बिजली पर अच्छा काम कर पाईं. साथ ही स्थानीय प्रशासन में उनका हस्तक्षेप न के बराबर रहा. क्षेत्र में शान्ति क़ायम रही लेकिन आलोचकों के मुताबिक़ इससे उनकी छवि कमज़ोर भी हुई. वे त्वरित एक्शन में नहीं आतीं थीं तथा किसी अधिकारी को डाँटती-फटकारतीं भी नहीं थीं. उस समय तक नेता स्थानीय आबादी को कुछ यूँ प्रभावित करते थे कि ढेर सारे लोग अपराध की ओर आकर्षित होने लगे थे. ऐसे में मीना द्विवेदी की छवि किसी से कुछ न छीनने वाली बनी.
हमेशा हारते उम्मीदवार पर कांग्रेस का दांव
1985 में अपनी हार के बाद रामशंकर पाण्डेय ने चुनावी राजनीति से दूरी बना ली. उसके बाद काँग्रेस के सामने नया उम्मीदवार चुनने का संकट आया. 1990 के विधानसभा चुनावों में काँग्रेस ने कई दावेदारों में से एक जयप्रकाश पाण्डेय को चुना. जनता दल के योगेन्द्र पाण्डेय से हार कर जयप्रकाश पाण्डेय अप्रासंगिक नहीं हुए. बार-बार उनकी हार को देखते हुए भी पार्टी ने उन्हें टिकट देना ज़ारी रखा. वे साल 2010 तक काँग्रेस से चुनाव लड़ते रहे. 2015 तक दावेदार रहे मगर कभी विधायक न बन सके. ना ही काँग्रेस ने उनकी ज़िम्मेदारी ही तय की.
1990 से 2015 तक बहुत कुछ बदला लेकिन काँग्रेस नहीं बदली, उसके उम्मीदवार भी नहीं. जयप्रकाश पाण्डेय योगेन्द्र पाण्डेय की तरह न तो किसान समर्थक थे न रामशंकर पाण्डेय की तरह विद्वान. न देवेन्द्र दूबे की तरह करिश्माई रहे और न ही राजू तिवारी-राजन तिवारी की तरह दबंग. मीना द्विवेदी की तरह शान्त और सौम्य भी न थे. नतीज़तन जनता ने उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया. बार-बार एक ही व्यक्ति पर अड़े रहने के कारण काँग्रेस अपना गढ़ तोड़ बैठी. 2015 में इसने ब्रजेश पाण्डेय को टिकट देकर उम्मीदवार बदला लेकिन श्री पाण्डेय के साथ भी वहीं समस्या रही जो जयप्रकाश पाण्डेय के साथ थी. ब्रजेश पाण्डेय देश के जानेमाने पत्रकार रवीश कुमार के बड़े भाई की पहचान से अलग कुछ गढ़ न सके.
वर्तमान में फिर से चुनाव होने वाले हैं. इसमें श्रीमती मीना द्विवेदी अपनी वापसी चाहेंगी. राजू तिवारी अपनी सीट बचाए रखना चाहेंगे और ब्रजेश पाण्डेय एकबार फिर से काँग्रेस का टिकट पाकर विधायक बनने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देंगे. अब तक कुछ तय नहीं हुआ है. न किसी की उम्मीदवारी और न ही उनके गठबंधन.
फ़िलहाल इतना जानिए कि इस सीट ने अक्सर लहर के ख़िलाफ़ जनमत दिया है. युवाओं, निर्दलियों की पूरी मदद की है. ग़ौरतलब है कि इस सीट के लगभग सभी नेताओं ने एक आदर्श बचाए रखा है, वह है दलगत निष्ठा. कोई भी हो उन्होंने अपनी पार्टियों को तोड़ा, छोड़ा और बदला नहीं है. सवर्णों को भाजपा का मतदाता मानने वाले राजनीतिक पंडितों को इस सीट के अध्ययन से ज़रूर चौंक जाना चाहिए कि यहाँ यह पार्टी कभी नहीं जीती. बसपा और राजद ने समय-समय पर नॉन ब्राह्मण उम्मीदवार ज़रूर दिए मगर जनता ने उन्हें जीतने लायक अपना वोट नहीं दिया.
द बिहार मेल के लिए यह लेख गोविंदगंज के निवासी अंकित दूबे ने लिखा है. अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र हैं. फिलहाल वो दिल्ली के ही अंबेडकर यूनिवर्सिटी से एमफिल कर रहे हैं.
2 Comments
Rishikesh Ray September 15, 2020 at 7:24 pm
इतिहास का वर्तमान से गजब का संयोजन करते है आप भइया।। इसका मै कायल हूं। अपने लेख में आप हिन्दी आर्टिकल के समस्या पूर्ति के कार्य करते है।🙏🙏 ऋषिकेश
Dhananjay September 16, 2020 at 11:49 am
उम्दा लेखन अंकित दूबे जी।
गंभीर अध्ययन किया है आपने।