बिहार का एक जिला है बेगसूराय. लोगबाग जिसे ‘लेनिनग्राद’ के नाम से भी जानते हैं. ‘राष्ट्रकवि’ रामधारी सिंह दिनकर का जिला. ‘इतिहासकार’ रामशरण शर्मा का जिला. राजनीति के लिहाज से हमेशा बहस में आगे रहने वाला जिला. बिहार का औद्योगिक जिला. वैसे तो इस जिले के परिचय में इस तरह की कई पक्तियां लिखी जा सकती हैं लेकिन हमारा विषय इस बार जरा जुदा है. कोरोना संक्रमण के बढ़ते दायरे के बीच भी चुनाव आयोग और सत्तारूढ़ पार्टियां विधानसभा चुनाव कराने की तैयारी में जुटी हैं. सामान्य जानकारी के लिए आपको बताते चलें कि जिले में सात विधानसभा हैं. उनमें से एक है तेघड़ा. किसी दौर में इसे बरौनी विधानसभा कहते थे. जिस बरौनी के नाम पर इलाके में रिफाइनरी है. इस विधानसभा में खासतौर पर तेघड़ा, बीहट, मल्हीपुर, सिमरिया, रजवाड़ा जैसे इलाके आते हैं. अब आगे…
तेघड़ा के इतिहास को लेकर कुछ जरूरी बातें
यहां हम आपको बताते चलें कि आजादी के बाद 1952 में यहां से ‘रामचरित्र सिंह’ पहले विधायक बने, कांग्रेसी थे. उस जमाने में सबकुछ कांग्रेसमय ही था. रामचरित्र सिंह आजादी के आंदोलन के लड़ाके थे. श्रीकृष्ण बाबू के करीबी. जब यहां दूसरी बार चुनाव हुए तो वे निर्दलीय ही निर्वाचित हुए. उनके बाद से इलाके में विशेष तौर पर वामपंथ की राजनीति का उदय हुआ। कांग्रेसी रामचरित्र सिंह के बेटे रहे चंद्रशेखर सिंह. जिन्होंने बेगूसराय समेत आसपास के इलाके में वामपंथ की अलख जगाई और आजीवन वामपंथी धारा के साथ ही रहे।
कि यहीं से शुरू हुई बेगूसराय के लेनिनग्राद बनने की कहानी
वैसे तो राजनीति के लिहाज से बेगूसराय गुमनाम जिला नहीं रहा, लेकिन जेएनयू के अध्यक्ष कन्हैया की गिरफ्तारी और बाद में उनके चुनाव लड़ने की वजह से जिला खासा सुर्खियों में रहा. यहां से राइट बनाम लेफ्ट की बहस पूरे देश व दुनिया तक पहुंची. हालांकि हम आपको जरा और पीछे ले चलते हैं. घटना 1937 की है. बेगसूराय में ही पड़नेवाले नावकोठी की. यहां सामंतों से जमीन लेकर मजलूमों में बांटने के लिए आंदोलन शुरू हुआ, इस आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के कार्यकर्ता कर रहे थे, गोलियां चलीं और इस पार्टी के कई कार्यकर्ता मारे गए। जमीन को लेकर यह लड़ाई अंग्रेजों के जाने के बाद भी जारी रही. इस लड़ाई में कई और लोग भी मारे गए। इन लड़ाइयों के बीच इलाके में लेफ्ट की राजनीति और भी मजबूत होती चली गई. इसी क्रम में साल 1962 में तेघड़ा विधानसभा से जीतकर चंद्रशेखर सिंह सदन में पहुंचे और बाद की बातें इतिहास हैं. वामपंथ की मजबूत होती राजनीति की वजह से उनके गांव बीहट को ‘मिनी मास्को’ तक कहा गया. इलाके के पुस्तकालयों में आपको अब भी पीपुल्स पब्लिकेशन से छपा रूसी साहित्य जगह-जगह मिल जाएगा.
इस क्षेत्र में 60-70 का दशक पूरी तरह से उद्योगों के नाम रहा। चाहे वह बरौनी खाद कारखाना हो या फिर बरौनी रिफाइनरी और एनटीपीसी. इस पूरी अवधि के दौरान चंद्रशेखर सिंह यहां से विधायक रहे। इन कारखानों में श्रमिक संगठन सक्रिय भूमिका में रहे. तिसपर से वामपंथी खेमे वाले श्रमिक संगठनों का ही बोलबाला रहा। 1962 से सीपीआई इस विधानसभा पर ऐसा काबिज हुई कि 2010 तक उसके उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे. चंद्रशेखर सिंह की मृत्यु के बाद सूरज नारायण सिंह आए और उसके बाद रामेश्वर सिंह और इस तरह से 2010 तक यहां सीपीआई ही रही। आते-जाते भी नहीं बल्कि लगातार. साल 1999 में यहां का खाद कारखाना बंद हो गया. इलाके में स्थानीय लोगों के रोजगार का बड़ा जरिया खत्म हो गया. कारखाने का असर था कि इस इलाके में बीहट विशेषतौर पर बड़ा बाजार बन सका. कारखाने के बंद होने का असर इलाके की राजनीति पर भी पड़ा और लेफ्ट की राजनीति के कमजोर होने में यह भी एक बड़ा कारक है.
48 साल बाद ढह गया वामपंथ का किला
जैसा कि आपको पहले ही बताया जा चुका है कि साल 1962 से यहां वामपंथ का ही पताका लहराता रहा. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ. लेफ्ट के बजाय जनता ने राइट को चुना. भाजपा के उम्मीदवार ललन कुमार यहां से जीतकर विधानसभा पहुंचे। वैचारिक लिहाज से भी देखें तो जनता ने वामपंथ के ठीक उलट दक्षिणपंथ पर विश्वास जताया। वोटों का अंतर अधिक तो नहीं था लेकिन जीत तो जीत होती है। स्थानीय लोगों का कहना है कि पार्टी ने यहां से तीन बार के विधायक राजेंद्र प्रसाद सिंह के बजाय राम रतन सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया और यही लेफ्ट के हार की वजह बनी. वामपंथी धड़े के रामरतन सिंह हारे और दक्षिणपंथ के प्रतिनिधि के तौर पर ललन कुमार विधानसभा पहुंचे.
2015 के चुनाव में लेफ्ट और जातीय गठजोड़ भी टूटा
बीते विधानसभा चुनाव को कई चीजों के लिए याद किया जाता है. लालू और नीतीश साथ आए और साथ ही बदला पूरे सूबे का राजनीतिक समीकरण. पूरे देश में दक्षिणपंथ के बढ़ते ताकत के बावजूद सूबे में दक्षिणपंथ चुनावी तौर पर कमजोर हुआ. इस विधानसभा से भी सीटिंग विधायक ललन कुमार का टिकट कट गया. भाजपा ने रामलखन सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन वे भी महागठबंधन के समीकरण के सामने नहीं टिक सके. इस विधानसभा में एक और चीज देखने को मिली. आजादी के बाद से इस विधानसभा पर लेफ्ट और राइट का कब्जा तो रहा ही, और साथ ही एक विशेष जातीय गठजोड़ भी देखने को मिलता रहा. लेफ्ट और राइट की राजनीति के लिहाज से भी एक जाति विशेष (भूमिहारों) का ही कब्जा रहा. यह समीकरण साल 2015 में ध्वस्त हो गया. महागठबंधन के दावेदार के तौर पर बीरेंद्र कुमार को जीत मिली. बीरेंद्र कुमार ओबीसी समुदाय (कुर्मी जाति) से ताल्लुक रखते हैं. ऐसा बेगूसराय और तेघड़ा के इतिहास में भी पहली बार हुआ कि कोई गैर सवर्ण (गैर भूमिहार) यहां से विधानसभा बतौर प्रतिनिधि पहुंचा. हालांकि इस बार उनकी उम्र प्रत्याशिता के आड़े आ सकती है. देखिए अंत में क्या होता है?
इस बार क्या होता दिख रहा?
ऊपरी तौर पर तो यहां ढेरों मुद्दे हैं जैसे फैक्ट्री, रोजगार, खेती-किसानी और दियारा के इलाके में दबदबा, लेकिन ऐन चुनाव के वक्त सारे मुद्दे गौण हो जाते हैं. सामाजिक समीकरण प्रधान हो जाते हैं. पार्टियों का गठजोड़ विमर्श के केंद्र में आ जाता है. 2015 के चुनाव में जहां राजद, जद (यू) और कांग्रेस साथ थे वहीं इस बार फिर से जद (यू) और भाजपा साथ हैं. लोकसभा चुनाव में भले ही बेगूसराय के भीतर लेफ्ट, महागठबंधन और एनडीए के दावेदार अलग-अलग हों लेकिन विधानसभा में समीकरण बदल सकते हैं. लेफ्ट भी पूरी कोशिश करेगा कि एनडीए और सत्ता के खिलाफ के वोट एकजुट रहें, जाहिर तौर पर राजनीति और बेगूसराय में कुछ भी नामुमकिन नहीं- और तेघड़ा विधानसभा कोई बेगूसराय से बाहर तो है नहीं…
2 Comments
Bhagwan Prasad Sinha July 17, 2020 at 1:18 pm
नावकोठी की घटना 1937 की नहीं बल्कि 1947के बाद की है।
दूसरी बात, 1962 में जब कॉमरेड चंद्रशेखर सिंह जीते थे इस विधानसभा क्षेत्र का नाम तेघड़ा ही था। 1952 से 1967 तक यह नाम रहा। 1967 में डीलिमिटेशन के बाद इसका नाम बरौनी पड़ा। फिर 2010 से तेघड़ा हो गया।
समीक्षा बहुत अच्छी और लगभग सटीक है। बधाई
Dumrendra Rajan August 24, 2020 at 1:24 am
Dear Bihar mail, and Kumari Sneha jee, Your reporting about Begusarai is awesome;thanks for such a grass root journalism.