क्या चांद चाहने वाले बच्चे की तरह जिद कर रहे तेजस्वी?

क्या चांद चाहने वाले बच्चे की तरह जिद कर रहे तेजस्वी?

राजद का नव नेतृत्व आखिर किसे उपदेश दे रहा है? वे किससे उदारता की अपेक्षा रखते हैं? अहंकार कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो राजद नेतृत्व से पूछे जाने चाहिए. कुछ बातें भी हैं. एक समय वह भी था कि राजद नेतृत्व के सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती थी, ऐसे में वे 2015 के विधानसभा चुनाव में महज 100 सीटों पर लड़ने को राजी हो गए थे. तब निजी राजनीतिक हैसियत, पार्टी और परिवार के सियासी वजूद को बचाने का सवाल था.

आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी रही कि 175 से घट कर 100 सीटों पर लड़ने से भी गुरेज नहीं किया, लेकिन राजद के नए मिजाज वाले नए रहनुमा की ही मानें तो जब देश, संविधान और लोकतंत्र की बात आई तो दो-चार सीटों पर समझौता करने को भी तैयार नहीं हैं, आखिर इस जिद की वजह क्या है?

एनडीए को ही देख लेते

राजनीति में कई बार प्रतिद्वंद्वियों से भी सीखना चाहिए, एनडीए में सीटें किसने छोड़ीं? 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 30 सीटों पर लड़ी थी. इसके बावजूद उसने अपने कोटे की तेरह सीटें जदयू को देने का फैसला किया, तभी तो गठबंधन हो सका. फर्ज कीजिए कि बीजेपी जिद पर अड़ी रहती कि जदयू गठबंधन के लिए त्याग करे तो क्या उनका गठबंधन संभव था? दो सांसद संख्या वाली जदयू क्या त्याग कर पाती?

सीट शेयरिंग के बाद प्रेसवार्ता करता एनडीए नेतृत्व – तस्वीर क्रेडिट- इंडिया टुडे

अब इसे कुछ यूं देखा जाए मात्र चार सांसदों वाला राजद (पप्पू यादव बाहर) विगत चुनाव में लड़ी गए तमाम सीटों पर चुनाव लड़ने को अड़ा हुआ है. एक तरफ ऐसा दिख रहा है कि बीजेपी ने 2014 में अपनी जीती हुई सीटें अपने सहयोगी दलों को देने का फैसला किया है. वहीं राजद साल 2014 में अपनी हारी सीटें भी छोड़ने को तैयार नहीं. मेरे नजरिए से उसका नवीन युवा नेतृत्व इतिहासजीवी है. उनके बरक्स कथित तौर पर पाषाणयुगीन सोच वाले मुझे भविष्यजीवी दिख रहे हैं.

जरा नजर पिछले आंकड़ों पर

देखना यह है कि बड़े परिणाम की प्राप्ति के लिए महागठबंधन के भीतर उदारता कौन प्रदर्शित करता है? कौन किसके लिए सीटें छोड़ेगा? आखिर जिसके पास अधिक हिस्सेदारी होगी वही न अन्य सहयोगी दलों के प्रति उदार होगा. गौरतलब है कि 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो राजद ने क्रमशः 31 और 27 सीटें लड़ीं. लगातार दो चुनावों से उसे महज चार सीटें ही हासिल हुईं.

फिर भी आठ-दस सीट छोड़ने में उन्हें दिक्कत हो रही है. 20-22 सीटें लड़ने के बाद भी कर भी अगर राजद चार या उसके आसपास ही पहुंच पाया तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? क्या राजद का नवनेतृत्व किसी गफलत का शिकार है? उन्हें 27 सीटों की संख्या तो याद है लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि बिहार के किस सीट का राजनीतिक, भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या है? किन सीटों पर किस तरह के दबाव समूह सक्रिय हैं? चुनाव जीतने के बाद जो अपने विधानसभा क्षेत्र की स्थिति न सुधार पाए हों, वे चांद चाहने वाले बच्चे की तरह जिद कर रहे हैं.

यह लेख हमें अमित कुमार ने लिखकर भेजा है, वे फ्रीलांस पत्रकार हैं…