दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में ‘जाति और लॉबी’ ही सत्य हैं बाकी सब मिथ्या…

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में ‘जाति और लॉबी’ ही सत्य हैं बाकी सब मिथ्या…

जाति से शुरू होकर जाति और लॉबी पर खत्म होने वाली राजनीति यानी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव. देश में छात्र राजनीति को सबसे बड़ा मंच देने वाली संस्था जहां से अरुण जेटली, विजय गोयल, अलका लांबा समेत कितने स्टूडेंट लीडर निकले जो आगे चलकर मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े. भारत में छात्र राजनीति का इतिहास करीब 170 साल पीछे जाता है. 1848 में दादाभाई नौरोजी ने ‘द स्टूडेंट साइंटिफिक एंड हिस्टोरिक सोसाइटी’ की स्थापना की. समयानुसार छात्र राजनीति की भूमिका भी बदलती रही. आजादी के बाद हुए जन आंदोलनों के केंद्र में हमेशा छात्र राजनीति रही. आजादी से पहले और आज के समय में एक साम्य यह है कि छात्र राजनीति से निकले और मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय रहने वाले वर्तमान पीढ़ी को छात्र राजनीति न करने की सलाह देते हैं.

ऐसी ही बातों के मद्देनजर कभी भगत सिंह ने कहा था, “हमारा दुर्भाग्य है कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा मंत्री है स्कूल-कॉलेजों के नाम पर एक सर्कुलर भेजता है कि कोई पढ़ने-लिखने वाला लड़का पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेगा”. इस देश में छात्र राजनीति से निकले लोगों की संख्या को देखेंगे तो लगेगा कि केवल और केवल छात्र राजनीति से निकले लोग ही मुख्यधारा की राजनीति की दिशा एवं दशा को तय कर रहे हैं जैसे जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर जाकिर हुसैन, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, कर्पूरी ठाकुर, शरद यादव, सुशील मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, विजय गोयल इत्यादि.

एक नजर आंकड़ों पर
दिल्ली विश्वविद्यालय को देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के तौर पर देखा जाता है. यहां कुल 1.4 लाख वोटर हैं और जिसमें से मात्र 40% विद्यार्थी ही वोट देने आते हैं. यह आंकड़े तो बीते साल के मतदान से 4 फीसदी कम है. ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या विद्यार्थियों में चुनाव को लेकर उत्साह नहीं है? इसे जरा और बारीकी से देखने पर हम पाते हैं कि विद्यार्थी महज अपने कॉलेज के चुनाव में हिस्सेदारी को लेकर उत्साहित रहता है. वह विश्वविद्यालय चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता. ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या DUSU में लड़ने वाले सारे कैंडिडेट अपने आप को आम छात्र से नहीं जोड़ पा रहे? क्या DUSU चुनाव में छात्र संगठन किसी जमीनी कार्यकर्ता को अपना उम्मीदवार नहीं बना रहे? अब इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि DUSU चुनाव में हर साल हेलीकॉप्टर कैंडिडेट की संख्या बढ़ती ही जा रही है. अलग-अलग छात्र संगठन भी मेहनतकश और जमीनी कार्यकर्ताओं के बजाय पैसे वालों को टिकट दे रही हैं. बाहुबली होना और दबंग जातियों से ताल्लुक रखना सोने पर सुहागा है.

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संगठनों की मजबूती में जाति की भूमिका
यहां हर संगठन से जुड़ी जातियां हैं और उनके कोर वोटर हैं. जैसे एबीवीपी का मतलब मान लिया जाता है कि गुज्जर, ब्राम्हण, और अगड़ी जातियों का वोट बैंक. वहीं एनएसयूआई का मतलब ही हो गया है जाट, यादव, मुस्लिम, और पिछड़ी जातियों का वोट बैंक. AISA का मोटामोटी मतलब है दलित, पिछड़ा या वे तमाम लोग जो विद्यार्थी परिषद और एनएसयूआई की कार्यशैली से खफा हैं.

नव-पूर्वांचलवाद का उभार
वैसे तो दिल्ली विश्वविद्यालय में पूर्वांचल की राजनीति बीते कई दशकों से उफान मारती रही है लेकिन आज के दौर में वह अपने चरम पर है. यही कारण है कि जब 2018 में कई सालों बाद ABVP ने पूर्वांचल के किसी कैंडिडेट को टिकट दिया तो वह ऐतिहासिक जीत हासिल करता है, लेकिन एक बात सोचने की है कि वे लोग जो गाजीपुर से हाजीपुर तक पूर्वांचल मानते हैं उनका क्या? जब कोई भी कैंडिडेट ABVP के बजाय किसी और संगठन से पूर्वांचल के आइडेंटिटी पर चुनाव लड़ता है तो उसे व्यापक समर्थन क्यों नहीं मिलता? क्या पूर्वांचली होने का मतलब अगड़ी जाति से होना है? क्या पूर्वांचल से वही लड़ेगा जो आर्थिक रूप से सक्षम है?

बीते चुनाव में शक्ति सिंह के मार्फत दिखा था पूर्वांचल का उभार, जो इस बार नदारद रहा 

क्या पूरा पूर्वांचल उसी के लिए एकत्रित होगा जिसके पास जातीय श्रेष्ठता होगी? कोई पिछड़ी या दलित जाति का भले ही खुद को पूर्वांचल की अस्मिता से जोड़ने की कोशिश करे लेकिन उसे उसकी जाति के इर्द-गिर्द ही महदूद कर दिया जाता है. इस बात की पुष्टि के लिए यदि बीते कई सालों के चुनाव और पूर्वांचल से आने वाले उम्मीदवारों को देखा जाए तो कहानी खुद-ब-खुद सामने आ जाती है. यहां तक कि साल 2017 में सेंट्रल पैनल पर स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर अपनी धमक दिखाने वाले राजा चौधरी के लिए पूर्वांचल की अस्मिता क्यों नहीं जोर मारती? आखिर तमाम पिछड़ों, दलितों व शोषितों के लिए पूर्वांचल की लहर क्यों नहीं चलती? क्या पूर्वांचल की लहर केवल आर्थिक रूप से संपन्न और अगड़ी जातियों के लिए चलती रहेगी?

जाति और लॉबी की भूमिका
विगत सालों का चुनाव देखें तो साफ पता चलता है कि किसी भी कैंडि़डेट को मिलने वाले वोट के पीछे उसकी जाति और लॉबी की अहम भूमिका है. संगठनों को वोट नहीं मिल रहे. इस बात की पुष्टि के लिए आप अध्यक्ष पद के साथ ही दूसरे पदों पर पड़ने वाले वोटों को देखें. इससे यह साफ जाहिर होता है कि लोगों की दिलचस्पी किसी संगठन के बजाय व्यक्ति में है. देखने में तो ऐसा भी आया है कि एक संगठन का व्यक्ति दूसरे संगठन के व्यक्ति के साथ मिलकर चुनाव लड़ता है. अर्थात संगठन के प्रति उसकी निष्ठा नहीं है, उसे सिर्फ चुनाव जीतना है. संगठन की विचारधारा से उनका कोई लेना देना नहीं, उन्हें संगठन से केवल टिकट चाहिए.

नॉर्थ और साउथ कैंपस में फर्क
दिल्ली के नॉर्थ कैंपस में जहां तमाम छात्र संगठन एक ही धरातल पर हैं, वहीं साउथ कैंपस में एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज तक पहुंचने में ही करीब 45 मिनट लग जाते हैं. नॉर्थ कैंपस के मिरांडा, हिन्दू, रामजस, किरोड़ी मल और स्टीफेन्स की राजनीति जहां आले दर्जे की मानी जाती है. जहां वामपंथी राजनीति भी रह-रहकर दिख जाती है. वहीं साउथ कैंपस में एबीवीपी और एनएसयूआई का ही बोलबाला होता है. नॉर्थ में जहां विचार और विमर्श की लीक दिख जाती है. वहीं साउथ में धनबल और बाहुबल ही हावी रहता है.

जेएनयू की तरह डीयू क्यों नहीं है लाल?
अव्वल तो जेएनयू एक बंद और अकेला कैंपस है. वहां मास्टर्स, एम फिल और पीएचडी के स्टूडेंट्स नैरेटिव सेट करते हैं. जबकि डीयू में ग्रेजुएशन के छात्र हावी होते हैं. डीयू में शोधार्थी वोट भी नहूीं कर सकते. जेएनयू में लेफ्ट यूनिटी है जबकि डीयू में लेफ्ट के भीतर एका नहीं है. उसके पास दूसरे संगठनों के मुकाबले ह्यूमन रिसोर्स की भी कमी है. DUSU में 52 कॉलेज आते हैं. कई बार 5 दिन से भी कम का समय मिलता है.

जेएनयू छात्र संघ चुनाव में सेंट्रल पैनल पर जीत हासिल करने वाले लेफ्ट यूनिटी के सारे पदाधिकारी

2019 में क्या नया?
पहली बार नॉर्थ कैंपस के हंसराज कॉलेज में प्रेसिडेंशियल स्पीच हुई. सबसे अच्छी स्पीच देने वाले कैंडिडेट को सबसे कम वोट मिले. वहां पर पहले से 2 पैनल चलते थे. प्रेसिडेंसियल स्पीच के बजाय लॉबी और जाति का ही बोलबाला रहा. ऐसे में सवाल उठते हैं कि डीयू के सबसे शानदार कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र अभी भी लॉबी पॉलिटिक्स के इतर नहीं देख पा रहे?
लंबे अतराल के बाद DUSU के सेंट्रल पैनल में किसी मुसलमान को टिकट मिला. तिस पर से उसका पूर्वांचल से होना. बीते चुनाव में जिस पूर्वांचल की हवा चरम पर थी. कहना न होगा कि इस वर्ष ऐसी कोई हवा नहीं दिखी. इस बार भी लॉबी और जाति का ही बोलबाला रहा.
गौरतलब है कि हर साल एनएसयूआई प्रेसिडेंट पोस्ट पर जाट कैंडिडेट को लड़ाती थी, लेकिन इस बार उसने पिछड़े समाज से ताल्लुक रखने वाली एक छात्रा को अपना उम्मीदवार बनाया. हालांकि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उसे महज 10,000 वोट मिले. जबकि एनएसयूआई को प्रेसिडेंट पोस्ट आमतौर पर हर साल 15,000 से ज्यादा वोट मिलते थे. ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या यह वही डीयू है जहां पर जेंडर इक्वलिटी के डिस्कोर्स चला करते हैं?

संगठन नहीं लॉबी है हावी
दिल्ली विश्वविद्यालय में दो ही संगठनों का बोलबाला है. एक एबीवीपी और दूसरा एनएसयूआई. विद्यार्थी परिषद की ओर से सेंट्रल पैनल पर लड़ रहा एक छात्र एनएसयूआई की ओर से उतारे गए हेलिकॉप्टर कैंडिडेट से चुनाव हार जाता है. अध्यक्ष पद का उम्मीदवार 19000 वोटों से चुनाव जीतता है और उसी के साथ सेंट्रल पैनल का उम्मीदवार हार जाता है.

मोदी, राहुल पर नोटा भारी?
डीयू की फिजा में चुनाव के दौरान अलग-अलग संगठन नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के नाम बहुत लेते हैं. हालांकि इस बीच वहां के छात्रों ने नोटा का भी खासा इस्तेमाल किया है. सोचिए कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले स्टूडेंट इतने जागरुक तो हैं कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के विमर्श में पड़ने के बजाय इतनी जहमत उठा रहे हैं कि यदि उन्हें कोई उम्मीदवार अच्छा नहीं लग रहा तो वे नोटा का बटन दबा रहे हैं. इन तमाम बातों के बीच इस बात को रखना जरूरी है कि DUSU के चुनाव और कॉलेज अलग-अलग किए जाएं तो हो सकता है कि DUSU की पोलिंग मात्र 10% रह जाए. यही सत्य है बाकी सब मिथ्या…

यह आलेख हमें ‘रामानंद शर्मा’ ने लिखकर भेजा है. वे दिल्ली विश्वविद्यालय से इन्फॉर्मेशन साइंस में मास्टर्स कर रहे हैं…