बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में छात्रों का एक गुट संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए नियुक्त मुस्लिम प्रोफेसर फ़िरोज़ खान के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहा है. छात्रों का कहना है कि उन्हें उनके धर्म और संस्कृति की शिक्षा सिर्फ़ कोई आर्य ही दे सकता है. लिहाज़ा उनकी नज़र में फ़िरोज़ ख़ान अनार्य प्रोफेसर हैं, जिसके ख़िलाफ़ वो कई दिनों से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं.
यह सवाल अपने आप में गहरे निहितार्थ में छुपा हुआ है. क्या एक अनार्य व्यक्ति संस्कृत पढ़ा या पढ़ सकता है? इस विवाद के मूल अंश में संस्कृत भाषा, आर्य और बनारस विश्वविद्यालय है .
संस्कृत भाषा एक पुरातन भाषा है. इस भाषा की मूल आधार पूर्व वैदिक काल (1500ई. पू. से 1000ई.पू.) से जाना जाता है. हालांकि बहुत विद्वानों का मत है कि श्रुति परंपरा होने के कारण संस्कृत बहुत पहले से ही भाषागत व्यवहार में इस्तेमाल होने लग गया था. उस समय से लेकर आजतक संस्कृत में लाखों रचनाएँ हो चुकी है. ‘ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ भंडारकर, पुणे’ के अनुसार संस्कृत में अबतक 3.50 लाख से ज़्यादा पांडुलिपि प्राप्त है. इसका मूल अर्थ यह है कि संस्कृत इतने सारे ग्रंथ केवल आर्य ने ही नहीं अनार्य द्वारा भी लिखा गया है. अथाह ग्रंथों में सबका योगदान है. इसलिए संस्कृत को पढ़ने और पढ़ाने का अधिकार मूल रुप से उसके रचना क्रिया में सबके योगदान के आधार पर भी सबको प्राप्त है.
उदाहरण के तौर पर ऐसे अनेक विद्वान हैं, जिन्हें अनार्य माना जा सकता है. लेकिन उनका संस्कृत में बड़ा योगदान है. वेद व्यास, चार्वाक और शूद्रक से लेकर अन्य कई बौद्ध भिक्षु ने संस्कृत में हजारों ग्रंथ लिखे हैं. कई ब्रिटिश और जर्मन ने संस्कृत विषय के शोध करने में अपना जीवन लगा दिया. केवल मैक्समूलर ने संस्कृत के ऊपर 108 पुस्तकें लिखी हैं. कीथ और मैकडॉनल्ड्स का व्याकरण दुनिया भर के संस्कृत विभाग में पढ़ाया जाता है. संस्कृत को वैश्विक पहचान दिलाने में औपनिवेशिक विद्वानों का बड़ा योगदान है. जिसे सामान्य शब्दों में अनार्य कहा जा सकता है. शेल्डन पोलॉक जो कि जाने माने 70 साल के संस्कृत विद्वान हैं, प्रोफेसर फिरोज की तरह ही पिछले साल उनपर भी इसी तरह का हमला हुआ कि कोई पाश्चात्य विद्वान संस्कृत नहीं पढ़ा सकता है. इस तरह की रोक कूपमंडूकता ही नहीं किसी भी भाषा का अपमान है .
लेखक और इतिहासकार ब्रजदू लाल चटोपाध्याय की पुस्तक ‘Culture of Encounters: Sanskrit at the Mughal Court’ में अनेक संस्कृत विदानों की चर्चा है. जैसे अब्दुल करीम, अलाउद्दीन, बुंदु ख़ान और फैयाज ख़ान. इनमें से कई हिंदुस्तानी क्लासिक संगीत में प्रसिद्ध थे. अर्थ यह है कि संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण और दर्शन समिश्रित सृजनात्मकता संघर्ष का परिणाम है. इसपर सबका अधिकार होना चाहिए है. तभी यह समृद्धि को प्राप्त कर पायेगा.
दूसरा आर्य और अनार्य का विवाद है. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुछ छात्र किस आधार पर आर्य की परिभाषा बना रहे हैं? जबकि यह विवाद में पहले से रहा है कि केवल ब्राह्मण आर्य हैं और वे बाहर से आया हैं. इस बात का खंडन खुद ब्राह्मण समुदाय द्वारा किया जाता रहा है कि आर्य और अनार्य की परिभाषा गलत है. वस्तुतः आर्य की कोई स्पष्ट परिभाषा ही नहीं है. हाल के दिनों में राखेलगढ़ी इतिहासकारों के लिए तीर्थ स्थल बना रहा. अंततः वहां से भी यह साबित नहीं हो सका कि आर्य कौन हैं? कहाँ से आया हैं? इसलिए आर्य और अनार्य के आधार पर संस्कृत पढ़ने और पढ़ाने देने की अनुमति का आधार ही गलत है. अगर ऐसा होगा तो स्मृति काल की वापसी होगी, जिसमें शुद्र को वेद पढ़ने की अनुमति नहीं दिया जाता था. कान में गरम शीशा डालने की धमकी दी जाती थी. यह घटना उससे अलग नहीं होगी.
तीसरा आज यह भी समझने की जरूरत है किबनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अलावा संस्कृत और संस्कृत संस्थाओं की क्या स्थिति है? साल 2014 में मोदी सरकार बनते ही मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने विवेक डी ओबेराय के तत्वावधान में “संस्कृत के विकास के लिए “एक समिति बनाई गई. जिसमें उध्दृत है कि वर्त्तमान में 120 विश्वविद्यालय स्नातक और प्रस्नातक पढ़ाया जाता है. 15 संस्कृत विश्वविद्यालय है जिसमें लगभग 1000 महाविद्यालय, 5000 हज़ार परम्परागत विद्यालय और 1000 वेद विद्यालय है. आठ राज्यों के पास अपना संस्कृत बोर्ड है, जहां 10 लाख छात्र पढ़ते हैं. 10 संस्कृत एकेडमी है. 16 प्राच्य रिसर्च इंस्टीट्यूट है और लगभग 60 मासिक पत्रिका और 100 से ज़्यादा NGO इस क्षेत्र में कार्यरत है.
फिर भी संस्कृत का विकास नहीं हो रहा है. इसका साफ मतलब है कि संस्कृत के क्षेत्र में बड़े बदलाव की जरूरत है. पहला बदलाव तो यही होना चाहिए कि संस्कृत का द्वार दलितों, मुसलमानों और विदेशी सबके लिए खुला होना चाहिए. संस्कृत को केवल और आर्य कर्मकांडियों के ऊपर नहीं छोड़ सकते हैं. इससे संस्कृत का नुकसान ही हुआ है और होगा.
सवाल यह भी है कि जब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से इतना सारा सवाल पूछा जा रहा है कि टैक्स पेयर के पैसा से विश्वविद्यालय चल रहा है तो ऐसे सवाल इतने सारे संस्कृत संस्थानों से भी पूछा जा सकता है. क्यों इतना बड़ा इंस्टीट्यूट होने के बाद भी बहुत ज़्यादा काम संस्कृत में नहीं हो रहा? इस संस्थानों पर किसका कब्जा है?
वस्तुतः संस्कृत को कर्मकांडियों से बाहर निकालना होगा. उसे भाषा, संस्कृति, साहित्य, व्याकरण, संगीत और दर्शन के रूप में देखना ज़रूरी है. इसके लिए ज़रूरी है कि संस्कृत का द्वार सबके लिए खोला जाए. इसी में संस्कृत की भलाई है.
साल 2014 में इसी बनारस के काशी विद्यापीठ में पढ़ा रही एक मुसलमान संस्कृत अध्यापिका को मोदी सरकार के द्वारा संस्कृत के क्षेत्र में उत्कृष्ठ योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान दिया गया था. इस समय जरूरत है कि फ़िरोज ख़ान को ससम्मान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वापस बुलाए जाए. तथा उस बनारस को बिल्कुल वैसे ही रहने दिया जाए, जिसके बारे में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाहं खां कभी कहा करते थे कि “पूरी दुनिया में चाहे जहां चले जाए हमें सिर्फ हिंदुस्तान दिखाई देता है और हिंदुस्तान के चाहे जिस शहर में हो, हमें सिर्फ बनारस दिखाई देता है’. आज उसी बनारस में जो कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी का ससंदीय क्षेत्र है, में राजस्थान लौट चुके फ़िरोज ख़ान को वापस बुलाने की जरूरत है. यह उसका संवैधानिक अधिकार है.
द बिहार मेल के लिए ये लेख राजा चौधरी ने लिखा है. राजा दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि संकाय के छात्र हैं.