अपने ज़ाती काम से आकर मैं अब भी अपने गांव में ही हूं. मौका पाकर फिर से गांव घूमने लगा हूं. पुरानी पगडंडियों और गलियों के चक्कर लगाने लगा हूं. सुन रहा हूं कि ये लॉकडाउन आगे बढ़ रहा है. कुछ लिखने की कोशिश में हूं. टेक्नोलॉजी ने जीवन को आसान भी किया है. पहले कलम से कागज पर लिखता था. इन दिनों लिखकर फेसबुक और व्हाट्सऐप पर डाल देता हूं. इस बीच विष्णु के आग्रह पर गांव से ही ‘कोरोना डायरी’ लिख रहा हूं…
दिनांक 10,अप्रैल 2020
पूंजीवाद अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए काल और परिस्थितियों के हिसाब से ‘शब्दों, वाक्यों और मुहावरों को भी गढ़ता है. साथ ही उन्हें अपने तंत्रों के सहारे स्थापित करते हुए लोकप्रिय भी बनाता है. यह वाद अपने दोनों काल यथा अच्छे और बुरे में ऐसा करता आया है और आज भी कर रहा है. जैसे कोरोना संकट के दौर में पूंजीवादी तंत्र एक शब्द को बहुत इस्तेमाल कर रहा है. यह शब्द है ‘Social Distancing’ या यूं कहा जाए कि इस शब्द को आम जनमानस के पटल पर बिठाने की कोशिशें जारी हैं. मैं ज़ाती तौर पर यह मानता हूं कि यह शब्द एक सामंती संस्कृति का शब्द है. इस शब्द की आड़ में सामंतियों, लम्पट तत्वों ने बहुजनों और मूलनिवासियों का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक दोहन ही किया है और आज भी कर रहा है. मैं अपने ज़ाती अनुभवों के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूं कि यह Social Distancing असल में UnSocial Distancing है. उदाहरण के लिए आप सभी को एक वाकया/संस्मरण सुनाता हूं.
आज मेरे गांव में एक महिला (बुजुर्ग महिला) की सुबह-सुबह मौत हो गई. महिला अपने बेटों के साथ गया में रहती थी. मेरा गांव गया शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर की दूरी पर है. महिला को दफनाने के लिए उसके बेटे गांव ही लौटे, लेकिन Social Distancing कहिए या फिर Corona Fobia. सिर्फ चंद लोग उसके दरवाजे पर पहुंचे. जो पहुंचे भी वे डरे-सहमे और औपचारिकता पूरी करने की जल्दबाजी में दिखे. जनाजे में भी लोग कम से कमतर होते गए. कुछ रिश्तेदार और कुछ मेरे जैसे लोग. कोई सामाजिकता नहीं, कोइ सामूहिकता नहीं. सारी चीजों में बस दूरी, दूरी, दूरी. ग्राम्यबोध और साझी संवेदना नदारद. स्पष्ट तौर पर कहें तो इस नए-नवेले Social Distancing शब्द का रसायनशास्त्र है ‘Unsocial Distancing. आप का क्या ख़्याल है? क्या हमारा समाज और हम-आप गैरसामाजिक बनते जा रहें हैं? ग्रामीण सामूहिकता, ग्रामीण सामाजिकता, ग्रामीण संस्कृति और विरासत का ह्रास हो रहा है?
दिनांक 11,अप्रैल 2020
Social Chemistry OF Social Distancing अर्थात “सामाजिक विभेद”. ऐसा मुमकिन है आप इस शीर्षक से सहमत ना हों, आपको यह अधिकार है. मगर, मैं ऐसा अपने अनुभवों के आधार पर कह रहा हूं. इसके लिए आपको मैं अपने गांव के भ्रमण पर ले चलता हूं. मेरा गांव पश्चिम से पूरब तक़रीबन डेढ़ किलोमीटर लम्बा और दक्षिण से उत्त लगभग दो किलोमीटर लंबा है. इसी परिधि में विभिन सम्प्रदाय और समुदाय के लोग करते हैं. आज सुबह जब मैं टहलने को निकला तो ख़्याल आया क्यों नहीं आज पूरे गांव घूमा जाय, और मैं निकल पड़ा. आगे बढ़ता गया तो पाया कि इमाम बाड़ा पर कोई नहीं है, उससे आगे बढ़ा तो देखा कि मकतब के पास कोई नहीं है. फिर आगे बढ़ा तो पाया कि चड़नवा पे कोई नहीं, उससे आगे बढ़ा तो पाया कि हीरा शहीद के पास भी कोई नहीं. मैं आगे बढ़ता गया. पाण्डे बाग़, बेला बिगहा, मिसिर टोला, ब्रह्म स्थान, निजाबर शहीद ,चौधरी टोला, कोइरी टोला, मंसूरी टोला, मिस्त्री टोला. सभी जगह लोगों की जमात जो सुबह में जुटती थी. अपने दुःख-सुख, खेती-किसानी, डॉक्टर-हकीम, देश-दुनिया आदि विषयों पर जो बतकही किया करती थी, वैसा कुछ भी नहीं था. रास्ते मे एकाध लोग मिले भी तो अपने दरवाजे पर जानवरों को चारा-पानी देते हुये. कुछ बच्चे और महिलाएं भी मिलीं मगर सबका Body Language काफी बदला-बदला दिखा. ऐसा कहना अतिशयोक्योक्ति न होगी कि कोरोना जनित शब्द Social Distancing शायद धीरे-धीरे गांव की सामूहिकता, गांव की विरासत, ग्राम्य जीवन को बदल रहा है. सदियों से चली आ रही विरासत टूट रही है. लोग एकांतमय होते जा रहे हैं. यही है Social Distancing की बदलती Social Chemistry. ऐसा संभव है कि यह सोशल केमिस्ट्री एक “सामाजिक वर्ग/ विभेद में बदल जाये. यानी अपनी-अपनी दुनिया, अपने अपने चांद और अपने-अपने आराध्य देव, कि ऐसा हो जाना बहुत ही डरावना होगा…
-यह ‘कोरोना डायरी’ हमें ग़ालिब खान ने लिखकर भेजी है. वे जनआंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से सम्बद्ध हैं और बिहार सरकार के साथ बतौर शिक्षा अधिकारी कार्यरत रहे हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है…