जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं?

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं?

‘‘क्या यह सच है? यह मध्य युग नहीं है बल्कि 20वीं सदी है। कौन ऐसे अपराध को होने दे सकता है? कैसे यह दुनिया मौन रह सकती है?’’

यह सवाल आज से 72 साल पहले एक बच्चे ने अपने पिता से पूछा था। आज यही सवाल एक बार फिर हम सबके सामने है।

7 मई को 16 मजदूर महाराष्ट्र के जालना से मध्य प्रदेश स्थित अपने घर जाने के लिए निकलते हैं। करीब 45 किलोमीटर तक पैदल चलने के बाद जब सभी थक जाते हैं, आराम करने ट्रेन की पटरियों के पास बैठ जाते हैं। थकान के कारण उन्हें नींद आ जाती है। थोड़ी देर में एक ट्रेन गुजरती है और 16 ज़िंदा लोग लाश में बदल जाते हैं। उनके खून के लाल निशान आप ट्रेन की पटरियों, अखबार के पन्नों और संसद की दीवारों पर देख सकते हैं। कुछ महसूस हुआ? नहीं ! अच्छा इसे ऐसे पढ़ते हैं

7 मई को आपके पिता, आपकी माँ और भाईबहन के महाराष्ट्र के जालना से मध्य प्रदेश स्थित अपने घर जाने के लिए निकलते हैं। करीब 45 किलोमीटर तक पैदल चलने के बाद जब सभी थक जाते हैं, आराम करने ट्रेन की पटरियों के पास बैठ जाते हैं। थकान के कारण उन्हें नींद आ जाती है। थोड़ी देर में एक ट्रेन गुजरती है और आपका परिवार लाश में बदल जाता है।

अब यह मात्र एक दुर्घटना नहीं है। यह हत्या है। एक सड़े हुए सिस्टम द्वारा की हुई हत्या। दरअसल यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब हम लगातार महाशक्ति बनने के दम्भ से भरे हुए हैं। जब मंदिर, कश्मीर, ट्रम्प, नागरिकता जैसे मुद्दों के पर्दे के पीछे शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की बलि दे दी गयी। विश्वविद्यालयों को कमजोर किया, रोजगार ख़त्म किये गए, और धर्म को राजनीति का हथियार बनाकर इस्तेमाल किया गया। गरीब और गरीब हुआ और अमीर गरीबों के पैसे लेकर विदेश भागते रहे। सरकार किसी की भी रही हो, इस देश में किसान और मजदूर हमेशा ही उपेक्षित रहे हैं। उन्हें लगातार हाशिये पर ढकेला गया है जहाँ पेट की भूख के लिए उन्होंने अपने वोट की बलि दी है।

राष्ट्रवाद और समाजवाद के नाम पर वोट लिए जाते रहे और उन्हें पैसों में बदल कर पूंजीपतियों के खाते भरे गए। जो इनके समाज से नेता बनकर दिल्ली पहुँचे, वो भी रेमण्ड का सूट पहनने के बाद इन्हें भूल गए। आज जब आपदा का समय है और देश का गरीब मजदूर घरों से दूर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेल रहा है,

उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं है। यह बहुत अच्छा है कि डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों और पुलिसप्रशासन के लिए प्रधानमंत्री बोलते हैं, सेना जहाजों से फूल बरसाती है। लेकिन क्या उनके लिए कोई नहीं बोलेगा जिन्होंने 70 सालों से अपनी हड्डियां गलाकर देश की नींव मजबूत की है। जिनके पसीने से राजधानियों की सड़के चमकती हैं। जिसकी लाशों पर बड़ी बड़ी गाड़ियों के चलने के लिए पुल बनते हैं। क्या उनके लिए कोई नहीं बोलेगा ?

देश के बड़ेबड़े पूँजीपति कारोबारियों को देने के लिए सरकार के पास हज़ारों करोड़ रुपये हैं जबकि मजदूरों की वापसी और पुनर्वास के लिए ना पैसा है और ना ही सिस्टम। एक ट्रेन चलाने के नाम पर सरकारविपक्ष सभी कुकुर झांवझांव करने लगते हैं। मसीहा बनने की होड़ लगी हुई है जबकि नकाब उतार कर देखो तो इंसान भी नहीं हैं।

शंकर पिछले 3 दिन से लगातार चल रहे हैं। साथ में पत्नी है। महाराष्ट्र से निकले हैं और बिहार जाना है। पीठ पर बैग टाँगे है जिसमें 7 पैकेट बिस्कुट और दो बोतल पानी है। थोड़े बहुत कपड़े भी हैं। ज्यादातर सामान शहर में ही छोड़ दिया ताकि सफर में आसानी हो। रमेश भी अपने साथी करन और सुनील के साथ महाराष्ट्र के औरंगाबाद से उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जाने के लिए निकले हैं।

नन्हेलाल, उपेंद्र कुमार, अभिषेक राजभर, सगीर अंसारी, विकास कुमार

तस्वीर साभार: R. V. Moorthy

आप गिनते गिनते थक जायेंगे लेकिन इनकी गिनती ख़त्म नहीं होगी। ये लोग अनथक चले जा रहे हैं। क्योंकि उनकी आँखों में उनका घर है। आपको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा क्योंकि आप घरों में बंद हैं। उनकी लाशों को शायद आपकी एक आह भी नसीब ना हो क्योंकि आप खाना खा रहे हैं और खाते वक्त आप खून से सनी लाशें नहीं देखना चाहते। आप चैनल बदल लेंगे और बॉलीवुड का कोई आइटम सॉन्ग देखना चाहेंगे।

मजदूरों की चीख तालियों, थालियों और शंख की आवाज के बीच कहीं खो गयी है। हम सुनकर भी अनसुना करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। यह आपका दोष नहीं है।

72 साल पहले के एक आदमी ने कहा

‘‘उनके लिए कोई नहीं बोल सकता। जो मर गए उनके लिए कोई नहीं बोल सकता। कोई भी उनके कुचल दिए गए सपनों और उम्मीदों के बारे में नहीं बोल सकता।’’

फरवरी में 150 करोड़ रुपये ट्रंप के स्वागत में खर्च हुए। इससे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन दुःख तब होता है जब अपने देश के लोगों का किराया देने के लिए सरकारों के पास 5 करोड़ रुपये भी नहीं होते हैं। प्रधानमंत्री केयर फण्ड में देश के लाखों लोग पैसा जमा करते हैं। लेकिन जब जनता उन पैसों का हिसाब मांगती है तो सरकार हिसाब देने से इंकार कर देती है। क्यों ? आखिर क्या एक लोकतंत्र में जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि उसके पैसे सरकार कहाँ खर्च कर रही है। देश की जनता ने प्रधानमंत्री पर भरोसा करके अपनी मेहनत की कमाई उनके नाम पर दे दी है। अब यह प्रधानमंत्री के नैतिक विवेक पर निर्भर करता है कि वे लोगों के भरोसे की लाज रखते हैं या नहीं।

लॉकडाउन के 45 दिन बाद भी मजदूरों के स्थानांतरण पर एक मुकम्मल नीति सरकार नहीं बना पायी है जबकि भूख और असंतोष से बेहाल आवाजें और तेज हो रही हैं। समाज, मीडिया, सरकार, साधु सब चाहेंगे कि हम सब यह भूल जाएँ और सकारात्मक बने रहें। लेकिन सच से अधिक सकारात्मक कुछ भी नहीं है। हम सड़कों पर दिनरात पैदल चल रहे लोगों को नहीं भूल सकते। हम ट्रेन की पटरियों पर पड़ी लाशों को नहीं भूल सकते। हम यह सब नहीं भूल सकते।

‘‘क्योंकि अगर हम भूल गए, हम गुनाहगार होंगे, हम अपराध के सहभागी होंगे।’’

(लेख में प्रयोग 72 साल पूर्व के तीनों संदर्भ Elie Wiesel की रचना से हैं)