“बिहार का किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गया है. मजदूरी करने के लिए भी इसे दूसरे राज्यों में दर-दर भटकना पड़ता है जबकि बिहार की जमीन काफी उपजाऊ है और पानी भी बहुत अच्छा है. इसके साथ ही खेती करने वाले लोग भी बिहार में मौजूद हैं लेकिन एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) लागू नहीं होने की वजह से बिहार के किसान व मजदूर पूरी तरह तबाह हो गए हैं.”
उपरोक्त शब्द हमारे नहीं बल्कि दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर आंदोलनरत किसान संगठनों के समन्वय हेतु बने “संयुक्त किसान मोर्चा” के वरिष्ठ नेता गुरनाम सिंह चढूनी के हैं. इस बीच वे बिहार आए थे और बिहार के किसानों से भी किसान आंदोलन में भाग लेने का आह्वान करते दिखे.
यहां हम आपको बताते चलें कि इन दिनों राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमा समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में खेती-किसानी के सवालों पर संघर्ष हो रहे हैं. तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान सड़कों पर उतर आए हैं. किसान संगठनों और किसानों के बीच कई राउंड की बातचीत अबतक बेनतीजा रही है.
वैसे तो हम सभी अपने बचपने से ही एक बात हमेशा सुनते आए हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि कोई किसान अपनी अगली पीढ़ी को किसानी के पेशे में नहीं देखना चाहता. आज भले ही राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर हरियाणा और पंजाब के किसान बहुतायत में जुटे हों. लोगबाग इस आंदोलन को अभूतपूर्व करार दे रहे हों लेकिन ऐसे पहले प्रदर्शन पहले भी हुए हैं. पहले भी लोग अपना सबकुछ दांव लगाकर ऐसे ही आंदोलनों में सहभागी रहे हैं. ऐसे में आज बात उन्हीं कुछ विद्रोहों की…
संथाल विद्रोह
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भी एक सशक्त विद्रोह हुआ था. बात 30 जून 1855 की है. संथालों का एक समूह ने “धीर सिंह मांझी” के नेतृत्व में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिया. इस विद्रोह को “पहाड़िया विद्रोह” या “पहाड़िया जगड़ा” भी कहा जाता है. पहाड़िया भाषा में ‘जगड़ा शब्द का शाब्दिक अर्थ है-‘विद्रोह‘. इस विद्रोह का केंद्र था बिहार का भागलपुर जिला. आदिवासी बहुल इस इलाके को आज भी भौगोलिक तौर पर संथाल परगना कहा जाता है.
यहां हम आपको बताते चलें कि तब अंग्रेजों ने संथालों की जमीनें हड़प लीं और इनसे भू–राजस्व वसूलने लगे. जमीनों पर बढ़ते भू–राजस्व की दरें किसानों के लिए जी का जंजाल हो गईं. नतीजा यह हुआ कि किसानों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह को भारत के लिहाज से पहला और व्यापक सशक्त विद्रोह कहा जाता है. इस विद्रोह की एक खासियत यह है कि इसमें संथाल किसानों ने अपने परंपरागत हथियारों का इस्तेमाल किया. जैसे कि तीर-धनुष, भाला और टांगी जैसे हथियार.
इस विद्रोह में किसानों ने सरकारी सम्पति को खासा नुकसान पहुंचाया. गुलामी के साक्ष्य के तौर पर दफ्तरों में रखे सरकारी दस्तावेजों को नष्ट कर डाला. इस सशक्त विद्रोह से निपटने के लिए अंग्रेजी हुकूमत को अपनी फौजें बुलानी पड़ीं. बड़ी मशक्कत के बाद यह विद्रोह काबू में हो सका और अंग्रेज यह सोचने पर मजबूर हो गए कि अब अधिक दिन तक भारत पर राज नहीं किया जा सकता.
नील विद्रोह
चंपारण की धरती से नीलहों या फिर कहें कि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह ने ही गांधी को महात्मा बनाया. साल 1917 मेंं यह आंदोलन शुरू तो इसलिए हुआ था कि नील की खेती से सम्बद्ध ‘तीनकठिया’ कानून को खत्म कर दिया जाए. तीनकठिया कानून के हिसाब से तब इस इलाके के किसानों के लिए एक बिगहे में से 3 कट्ठे के भीतर नील की खेती करना अनिवार्य था. इस कानून की वजह से किसानों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. तिसपर से महाजन का कर्ज. अंतत: वहां के किसानों ने गांधी के नाम बुलावा भिजवाया और उसके बाद की कहानी तो इतिहास का हिस्सा है.
जमींदारी के खिलाफ बनी किसान सभा
आज भले ही देश भर में चल रहे किसान आंदोलनों में बिहार के किसानों की संख्या न के बराबर हो लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था. स्वामी सहजानन्द सरस्वती की अध्यक्षता में बने किसान सभा ने एक दौर में बिहार के भीतर जमींदारों के बरअक्स मजबूत विद्रोह की नींव रखी थी.
किसान सभा ने तब सारण, शाहाबाद, दरभंगा, पूर्णिया, भागलपुर समेत कई जिलों के जमीदारों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ीं और विजयी हुए. तब के दौर में इन तमाम जगहों पर किसानों की मुख्य समस्या कर वसूली और जमीन से बेदखली की थी.
महिलाएं भी रहीं आंदोलनों की अगुआ
ऐसा हम कई बार देखते हैं कि किन्हीं प्रदर्शनों या आंदोलनों में पुरुषों की भागीदारी अधिक होती है. किन्हीं आंदोलनों की अगुआई भी पुरुष ही करते हैं, लेकिन पहले महिलाएं भी आंदोलनों में बराबर की भागीदार थीं. संथाल विद्रोह से लेकर तीनकठिया आंदोलन के केन्द्र में महिलाएं रहीं. जब किन्हीं जगहों पर आंदोलन कर रहे पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया जाता तो महिलाएं ही कमान संभालतीं. पुलिस की लाठियों से लेकर गोलियों तक का सामना करतीं…
अंत में बस यही कहना है कि आज देश भर में कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर चल रहे आंदोलनों में भले ही बिहार के किसानों की संख्या वैसी न दिख रही हो लेकिन अलग-अलग दौर और समय में बिहार का किसान समाज हमेशा अपने ही दम पर लड़ाइयां लड़ता रहा है…
इन जानकारियों को आप सभी के लिए शाम्भवी वत्स ने संकलित किया है, शाम्भवी पटना यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में स्नातक हैं-