नामवर सिंह नहीं रहे. कल देर रात अंतिम सांस ली. मेरे दिमाग में रात से ही आनंद फिल्म का डायलॉग घूम रहा है. बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहए, लंबी नहीं. नामवर सिंह ने भी शानदार जीवन जिया. बीते कुछ दिनों से वे तकलीफ में थे. दैहिक. एम्स में ऐडमिट थे. कहना है कि नामवर मरे नहीं, नामवर मरते नहीं. पहले से ही संकट में चल रही हिंदी जरा और विपन्न हो गई. संभवत: आज या कल उनका पार्थिव शरीर लोदी शवदाह गृह में अंतिम दर्शन हेतु रखा जाएगा. हिंदी के साहित्यिक और गैर साहित्यिक जगत ने उन्हें अपने ढंग से श्रद्धांजलि दी है. उन्हें याद किया है.
एनडीटीवी के लिए नामवर सिंह पर एक अलहदा और अंतिम प्रोग्राम करने वाले अमितेश लिखते हैं, “नामवर सिंह भारतीय किस्म के बौद्धिकों की परंपरा में आखिरी लोगों में से थे, इन लोगों के चले जाने के साथ एक युग के ज्ञान और परम्परा का जीवित प्रमाण भी समाप्त हो रहा है. आप कृष्णा जी के पीछे चले गए. वहां मिलेंगी तो आपकी मुठभेड़ होगी ही उनसे. हिंदी समाज आज थोड़ा अधिक विपन्न हुआ क्योंकि नामवर सिर्फ किताबों से नहीं थे. वो उसके बाहर भी व्यापक रूप से फैले हुए थे जिससे हिंदी भी फैली थी.”
दिल्ली विश्विविद्यालय के पीएचडी स्कॉलर सुधांशु अपने ब्लॉग पर लिखते हैं, “हिंदी जगत जिस व्यक्ति के नाम से ही सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करता था. कल देर रात उसने अंतिम सांस ली. हिंदी आलोचना को सकारात्मकता प्रदान करने वाला वह मिथकीय पक्षी (फिनिक्स) नहीं रहा, और उसके लौट आने की संभावना भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर नामवर सिंह के अवसान पर लिखते हैं, “मेरे जैसा साहित्य का हलवाहा लगातार नामवरजी से डरता और सीखता रहा. जेएनयू जब मैं पहुंचा तब वे सेवानिवृत थे और बोर्ड पर अम्रेट्स प्रो की जगह उनका नाम सफेद अक्षरों में उगा था. वे कक्षा तो नहीं लेते थे,शोध कराते थे और यदाकदा भाषण देने आते थे, लेकिन दिल्ली की जिस गोष्ठी में नामवरजी न हों वह मरियल और गैरउत्तेजक सुनने में ही लगती थी. तर्क और युक्ति से विचार के रेशे वे इतने सलीके से उतारते थे जैसे केले के पत्ते खुल रहे हों, और अंत में बनारसी दंगल की तरह चित्त कर पान का दोना खोलते और तिसपर 120 नम्बर का जर्दा डालकर फीकी मुस्कान फेंकते.”
राजकमल प्रकाशन समूह ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा है…
“मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर,
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाँहें ही स्वर शर भास्वर
मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे।”
नामवर सिंह नहीं रहे…
वे अक्सर कहा करते थे, मैंने उड़ाई हैं जीवन की धज्जियां, मैं मरूंगा सुखी. वे सुखी ही गए…