बिहार प्रदेश में चुनाव होने के बाद नई सरकार गठित हुई. पहला सत्र हंगामाखेज रहा. देश भर में कृषि कानूनों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के बीच विधानसभा परिसर में भी प्रदर्शन हुए. इन प्रदर्शनों में सूबे के भीतर धान खरीद का सवाल प्रमुखता से उठाया गया. सत्र के खत्म होने के बाद भी सूबे के (शाहाबाद क्षेत्र) में धान खरीद शुरू किए जाने और एमएसपी को लेकर प्रदर्शन जारी हैं.
इन तमाम प्रदर्शनों और धरनों का असर कहें या फिर सरकार की तेजी कि इस बीच अव्वल तो सूबे के खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण मंत्री और सहकारिता मंत्री ने संयुक्त प्रेसवार्ता के माध्यम से कहा कि सरकार धान खरीद को लेकर सजग है, तथा वे हर रोज जिले के मजिस्ट्रेट से समीक्षा रिपोर्ट लेते हैं. इस बार धान खरीद के लक्ष्य को भी लगभग 50 प्रतिशत तक बढ़ा लिया गया है, तो वहीं सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी मीडियाकर्मियों के सवाल पर कहा कि बाहर भले ही कुछ भी चल रहा हो लेकिन बिहार में कोई समस्या नहीं, यहां राज्य सरकार की ओर से तेजी से खरीद हो रही है-
लेकिन क्या इन तमाम सरकारी दावों के बीच वाकई सूबे में धान की खरीद हो रही है? धान खरीद के लिहाज से क्रय केन्द्र खुल गए हैं और व्यवस्थित रूप से काम कर रहे हैं? किसान अपना धान बनियों और बिचौलियों को औनेपौने दाम में बेचने के बजाय पैक्स या व्यापार मंडल के माध्यम से बेचकर खुशहाल हैं?
सरकार के दावों की पड़ताल-
इन तमाम सवालों के जवाब और सरकार के दावों के बीच वास्तविकता को जानने-समझने के लिए हमने कैमूर जिले के कुछ किसानों से बात की. हमसे बातचीत में बसंतपुर गांव के किसान विजेंद्र कुमार सिंह कहते हैं, “देखिए एमएसपी पर धान बेचना तो सपना है. पिछली बार जहां पैक्स ने 600 क्विंटल धान खरीद के लिए 1700 रुपये तय किए. वहीं बनिया को 200 क्विंटल 1400 रुपये के रेट से बेचना पड़ा. इस बार भी पैक्स वाला 1700 रुपये प्रति क्विंटल के दर से ही भुगतान की बातें कह रहा है. अभी तो पैक्स के पास पिछले बार का ही 4 लाख बकाया है. क्या किया जाए, कोई चारा ही नहीं है.” कुछ ऐसी ही कहानी जिले के तेनुआ गांव के रहने वाले किसान मन्नी सिंह की भी है. उनका पिछले साल का बकाया ही लाखों रुपये है-
वैसे सूबे के कृषि मंत्री के हिसाब से तो उनके राज्य के तमाम गांवों समेत देश भर के गांवों के किसान खुशहाल हैं. चारों तरफ इन कानूनों का स्वागत हो रहा है, और चंद मुट्ठी भर दलाल ही दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर आंदोलनरत हैं- इस बयान के प्रतिक्रिया में राजद विधायक और पूर्व सहकारिता मंत्री आलोक कुमार मेहता कहते हैं कि किसान आंदोलनों के संदर्भ में की गई कृषि मंत्री की टिप्पणी बेहद सतही है, उनका ऐसा कहना समूचे किसान समुदाय के लिए अपमान है. वे आगे कहते हैं, “देखिए यह कानून पूंजीपतियों के दबाव में बनाया गया है. सरकार यदि किसी भी काम को करती है तो उसके पीछे जनता का दबाव होता है. कल्याणकारी राज्य की सोच होती है, जबकि पूंजीपति ऐसा नहीं सोचते. अभी तो सरकार पूंजीपतियों के दबाव में एमएसपी के निर्धारण से पीछे भाग रही है, बाद में सब कुछ पूंजीपतियों के हाथ में चला जाएगा. ऐसे में किसान कैसे विश्वास करेगा?”
आलोक कुमार मेहता वैसे तो राजनेता हैं और उनकी अपनी राजनीति है, आज विपक्ष में हैं तो सत्तापक्ष पर हमलावर हैं, होना भी चाहिए, लेकिन सरकार के धान खरीद के लिहाज से किए जा रहे दावे और हकीकत की पड़ताल के लिए हमने पूर्वी चंपारण (मोतिहारी) जिले के दो और किसानों से बात की- ‘द बिहार मेल’ से बातचीत के क्रम में 7 बिगहे जमीन पर धान की खेती करने वाले राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, ‘देखिए पहले तो इस बार बाढ़ झेलना पड़ा, तिसपर से 100 क्विंटल उपज में से 7.5 क्विंटल दौनी के लिए देना पड़ा. बाकी का बचा धान बनिया को बेचा’ – बनिया को क्यों बेचना पड़ा के सवाल पर राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, ‘देखिए सरकारी रेट दिसंबर में आया और हमें धान की खेती और बेच को नवंबर तक निपटा लेना होता है कि आगे के सीजन को भी पकड़ा जा सके. ऐसे में बनिया ही सहारा है, भले ही वो औनापौना पैसा तीन बार में करके देता है.”
सरकार की ओर से तय की जा रही एमएसपी और पैक्स के द्वारा की जा रही खरीद के सवाल पर राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, ‘”देखिए भाई साब कतरनी धान का रेट 1250 रुपये क्विंटल था. हायब्रिड किस्म का धान 1160 रुपये हुआ.
और सोबरना धान 1200 रुपये क्विंटल था और रही पैक्स द्वारा खरीद की बात तो पैक्स वाला भी जान-पहचान के ही 10-12 किसानों से धान खरीदता है. ऊपर से पैक्स वाला पैसा देने में भी समय लगाता है, किसानों के लिए इतना इंतजार संभव नहीं.”
पूर्वी चंपारण के ही एक और किसान (दूसरों का खेत लेकर खेती करने वाले) लालबाबू महतो हमसे बातचीत में कहते हैं, “हमलोग दूसरे की जमीन लेकर किसानी करते हैं. हुडा- बटईया 1 कट्ठा में 12 पसेरी देना होता है. ( 1 पसेरी= 5kg)
वहीं गेंहू 1 कट्ठा में 4 पसेरी देना होता है. जब बाढ़ और सूखा का पैसा आता है तब पैसा तो जमीन वाला लेता है, लेकिन हमें कुछ नहीं मिलता. जबकि बाढ़ या सूखा आने के बाद भी तय अनाज जमीन मालिक को देना पड़ता है. किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) वाला पैसा भी जमीन वाला ही उठा लेता है. हमें तो बस अनाज उगाना है, और तय अनाज उन्हें चुकाना है. हमारा हाल तो और भी बुरा है लेकिन हमारी कहीं भी बात नहीं हो रही”
क्या मंडियों की समाप्ति के बाद सही से हो रही अनाज खरीद?
यहां यह बताना बेहद जरूरी हो जाता है कि बिहार में मंडिया या कहें कि बाजार समिति साल 2006 में ही खत्म कर दी गईं. धान समेत अन्य अनाजों को खरीदने का अधिकार पैक्स और व्यापार मंडल के जिम्मे हो गया. आज जब पूरे देश में एमएसपी को कानून बनाने और एपीएमसी ऐक्ट को खत्म किए जाने पर बहस हो रही है. सत्तापक्ष इन कानूनों के पक्ष में तमाम दलीलें गढ़ रहा है और दिल्ली-हरियाणा सीमा पर किसानों को आंदोलन करते हुए लगभग एक महीने होने जा रहे हैं. बीते रोज बिहार के किसानों को इस आंदोलन में शरीक होने का आमंत्रण देने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के वरिष्ठ किसान नेता गुरुनाम सिंह चढूनी बिहार भी आए थे. हमसे बातचीत में वे इस बात पर जोर देते दिखे कि एमएसपी के कानून बनने का सबसे अधिक फायदा बिहार के किसानों को ही होगा. बिहार के किसान मक्का और धान जैसे फसलों को एमएसपी पर बेच सकेंगे. अभी वे औनपौने दाम पर तमाम फसलों को बेचने के लिए मजबूर हैं.
वैसे अगर सूबे की सरकार की मानें तो बिहार में सबकुछ चंगा सी. बिहार में सीएम नीतीश कुमार की अगुआई में किसानों की उन्नति एवं उनकी समृद्धि के लिए अनेक कार्ययोजनाएं चलाई जा रही हैं. बिहार में कहीं कोई किसान आंदोलन नहीं है. कृषि के लिहाज से बिहार का विकास दर 2005-06 से 2014-15 के बीच बढ़ कर 4.7 हो गया जबकि राष्ट्रीय औसत मात्र 3.6 था, और बिहार में किसान आंदोलन के नाम पर विपक्ष की दाल नहीं गलने वाली.
सूबे में किसानों की समृद्धि के तमाम दावों के बरअक्स कड़वी सच्चाई यही है कि अभी तक धान खरीद के लिहाज से किसी भी जिले में व्यवस्थित क्रय केन्द्र नहीं खुल पाए हैं. पैक्स व्यवस्था पर शायद की किसी किसान का भरोसा है. कई किसानों का तो पिछले बार का ही अब तक बकाया है, और इस बार बहुत कुछ बदल जाए ऐसी उम्मीद नजर नहीं आ रही. तिस पर से सरकारी तंत्र के पारदर्शिता पर सूबे में बात करना तो जैसे गदहे के सिर पर सींग खोजना है…