बिहार की राजनीति में सामाजिक-आर्थिक न्याय का तेज रफ्तार विमर्श

बिहार की राजनीति में सामाजिक-आर्थिक न्याय का तेज रफ्तार विमर्श

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में तेजस्वी यादव के पोस्टर में आर्थिक न्याय के नारे को लेकर एक नया अंतर्विरोध बौद्धिक जगत में दिख रहा है. वह यह समझने को तैयार नहीं है कि आज सामाजिक न्याय का नारा आर्थिक चिंतन के अभाव में खोखला सा दिखता है. जिस सिद्धांत में किसी भी प्रकार का आर्थिक चिंतन नहीं होता है, वह खोखला होता है मसलन इंदिरा युग मेंगरीबी हटाओका नारा दिया गया, लेकिन उनके पास कोई आर्थिक कार्यक्रम ही नहीं था, इसलिएगरीबी हटाओंका नारा निरर्थक हो गया.

क्या बिहार में सामाजिक न्याय पूरा हो चुका है?

यह चिंता बड़े स्तर पर व्यक्त हो रही है कि क्या बिहार में सामाजिक न्याय पूरा हो चुका है? क्या सामाजिक न्याय के कारण बिहार के आधुनिक विकास की गति रुक गई थी? क्या सामाजिक न्याय की राजनीति और विकास, केवल वोट बैंक की राजनीति का गणित भर है? अब तक बिहार में यह देखा गया है कि सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास का नारा लगाने वाली राजनीतिक पार्टियां इन दोनों को साथ लेने से कतराती रही है. सवाल यह भी बनता है कि आखिर बिहार विकास  के मामले में पिछड़ा क्यों बना हुआ हैं? क्या सामाजिक परिवर्तन और आधुनिक विकास दोनों एकदूसरे के विरोधी हैं? लेकिन इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं समझा जा सकता है.

पहले आर्थिक न्याय के विकास की तत्कालीन उपेक्षा करने वाले विभिन्न वर्गों को समझना होगा, जो सामाजिक न्याय की पहचान नहीं करती है. बिहार में विकास की गति के रूकने की शिकायत एक तो वह वर्ग करता रहा हैं, जो राज्य में पिछड़ा दलित राजनीति के उभार के काट के रूप में अपनी राजनीति को केंद्र में लाना चाहता है. जैसे मंडलवाद की काट के रूप में हिंदुत्व को लाने की कोशिश की गई. उस जमात में मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी है जो अपनी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के साथ आधुनिक विकास में भी हिस्सेदारी करना चाहता है.

बिहार में दरोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर के आतीजाती रही सरकार के बाद पहली बार लालू प्रसाद यादव की स्थिर सरकार में पिछड़ों और दलितों में पहली बार सरकार जैसी चीज को महसूस किया. पिछड़ों और दलितों में सरकार की यह महसूसीयत ही लालू यादव के सामाजिक न्याय का आधार बना. इसका फलक इतना व्यापक बनता चला गया कि दलित राजनीति के क्षत्रप के तौर पर उभरे रामविलास पासवान बिहार में दलित राजनीति में तमाम दलित समुदाय को अपने झंड़े तले नही समेट सके. उनके पुत्र बिहार में नई दलित राजनीति का व्याकरण रचना चाहते है, वह कामयाब होते है या नहीं, यह मौजूदा बिहार विधानसभा के चुनावी परिणामों से पता चलेगा.

क्या गिट्टी और अलकतरे से तैयार हो रहा विकास ही सही विकास है?

लालू के बाद नीतीश कुमार भी उसी समाजवादी धड़े से जरूर आते है पर उनकी सरकार जिनके समर्थन से बनी, वह वही वर्ग है जो गिट्टी और अलकतरे से तैयार हो रहे विकास को ही सही विकास मानती है और इससे वह न केवल आधुनिक आर्थिक विकास बताते हुए अपनी हिस्सेदारी चाहती है, उसी के माध्यम से सत्ता में बने रहना चाहती है. इसी वर्ग को साथ लेकर चिराग पासवान बिहार में नई राजनीति की शुरुआत करना चाहते है.

 यहां यह सवाल कभी नहीं किया जाता है कि इस आधुनिक आर्थिक विकास का फायदा वंचित और दमितों तक क्यों नहीं पहुंचता है?  सामाजिक न्याय की राजनीति में प्राथमिकता यह रही है कि वंचित और दमित समाज के समान्य जन को इज्जत और सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिल जाए. कम से कम उसे इस अधिकार को हासिल करने के क्रम में राजनीतिक सत्ता और उसकी मशीनरी बाधा के रूप में खड़ी नज़र नहीं आए.

बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की मुख्य समस्या यह है कि उसका लाभ जिन वर्गों को मिला. वह सामाजिक न्याय के नाम पर तमाम नाकारात्मक राजनीतिक कार्यशैली को उसी तरह से समर्थन देने लगी जैसे उनके जाते ही उनके शोषण और दमन को नए सिरे से परिभाषित किया जाने लगेगा. परिणामत:  पिछड़ों और दलित राजनीति का सबसे नकारात्मक पक्ष यह रहा कि  उसकी नेतृत्व और सम्मान की भूख को सामाजिक न्याय के मसीहाओं ने अपने हितों में भूनाना शुरु कर दिया. होना यह चाहिए था कि जिस तरह का जनसमर्थन इस तरह के नेतृत्व को मिला उससे विकास का एक नया मॉडल विकसित होता.

इस तरह की राजनीति का महत्व यह है कि श्रम के सम्मान और सामूहिकता की भावना को प्रतिष्ठापित किया जा सकता है, लेकिन यह कोशिश वैसा ही नेतृत्व कर सकता है, जिसके पास एक कल्पनाशीलता हो. नि:संदेह लालू प्रसाद  यादव ही नहीं, नीतिश कुमार जैसे नेतृत्व ने अपने पूरे शासनकाल में बिहार की युवा आबादी को निराश किया है. ज्यादा से ज्यादा समय तक  सत्ता में बने रहने की महत्त्वकांक्षा में उन्होंने बिहार में मौजूद क्षमताओं का केवल दोहन किया.

बिहार में विकास का आधार यहां के श्रमिक वर्ग से बनेगा

बिहार के बारे में एक बात बहुत साफ हो जानी चाहिए कि  इस राज्य में विकास का आधार यहां के श्रमिक वर्ग से बनेगा. वह अपने ढंग के विकास का एक मॉडल खड़ा कर सकता है, जिसमें सरकारीनिजी और संगठितअसंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक अपना सामाजिक और आर्थिक विकास करना चाहते हैं. इस सूत्र को फिलहाल तेजस्वी यादव पकड़े हुए नजर आते है। इसलिए उनका दस लाख नौकरी देने का वायदा युवा बेरोजगारों को लुभाता है. तेजस्वी बराबर अपने नारों को अपडेट भी कर रहे है मसलन दवाई, कमाई, पढ़ाई, सिंचाई, सुनवाई और कार्यवाही की सरकार चाहिए.

बिहार का मतदाता विकास के किसी नारे में से आकर्षित होने के बजाए पहले इस बात की गारंटी चाहता है कि राजनीतिक सत्ता की कमान किसके हाथों में होगी? यही बात तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी चुनौती है. इसलिए वह विकास के नारे के साथ राजनीतिक गठजोड़ के परिदृश्य को भी सचेत होकर देख रहा है. जनता को उसके इस भरोसे का आधार जिस जगह दिख जाएगा वह उसे विजयश्री का ताज पहना देगी. जाहिर सी बात है कि सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक न्याय की राजनीति को समावेशी बनाने की जरूरत है. सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का नारा अगर गरीबी का दुश्मन और नवब्राह्मणवाद के रूप में पूंजीवाद का पहरेदार बनकर उभरा तो वह बिहार की सामाजिकआर्थिकराजनीति और सांस्कृत्तिक विकास को नए तरीके से परिभाषित करने लगेगा. वह कितना समावेशी होगा यह एक यक्ष सवाल है.

यह आलेख ‘द बिहार मेल’ के लिए प्रशांत प्रत्युष ने लिखा है. प्रशांत – जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं…