क्या ‘कोरोना’ की बिसात पर बिहार का स्वास्थ्य विमर्श बदल सकता है?

क्या ‘कोरोना’ की बिसात पर बिहार का स्वास्थ्य विमर्श बदल सकता है?

इस समय पूरी दुनिया में एक ही शब्द सबपर भारी है. कोरोना. चीन के वुहान शहर से निकलकर पूरी दुनिया को अपने जद में ले चुके इस वायरस ने पूरी दुनिया को ‘लॉकडाउन’ रहने पर मजबूर कर दिया है. क्या अमीर और क्या गरीब? सभी अपने घरों में कैद हैं लेकिन इसका सबसे अधिक असर गरीबों पर हुआ है. गरीब बोले तो दिहाड़ी मजदूर. किसी तरह खा-पीकर गुजारा करने वाली जमात. रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले लोग. जिनके पास न अपना कोई घर है और न जमीन. वे दर-ब-दर भटकने को मजबूर हो गए हैं.

दर-ब-दर भटकने वालों में सबसे अधिक संख्या अगर किसी राज्य के बासिंदों की है तो वे बिहारी हैं. हजारों किलोमीटर से पैदल अपने घरों को लौटने को मजबूर बिहारी. जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं. कोई गिनती नहीं. अन्य राज्यों में रहकर भी दिहाड़ी मजदूरी ही करनी है. गांव-घर लौटना भी कोई विकल्प नहीं. अपनी मिट्टी की ओर लौटने के बावजूद जो भूमिहीन हैं, भला उनके लिए मिट्टी का क्या मोल? तिसपर से वे जहां-तहां पीटे जा रहे हैं. कहीं मुर्गा बने हैं तो कहीं उकड़ू चल रहे हैं. केमिकल की बौछारें सह रहे हैं.

लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को लौटती जनता, चारों तरफ अफरातफरी

बीते तीन-चार रोज पहले दानापुर रेलवे स्टेशन से फेसबुक लाइव के दौरान बेलछी थाने के कुछ मजदूरों से मुलाकात हुई. किसी तरह दिल्ली से चले आ रहे थे. जहां जो मिला वही पकड़कर. कभी बस-ट्रक तो कभी पैदल ही. दानापुर से बेलछी (लगभग- 70 किलोमीटर) पैदल ही निकल रहे थे. यही बिहार की नियति है. लालू प्रसाद के कथित जंगलराज का हवाला देकर सत्ता में आए नीतीश कुमार बिहार में कुछ आमूलचूल बदलाव कर पाएं हों ऐसा नहीं दिखता. स्वास्थ्य जैसे बेहद गंभीर मामले में तो सरकार पूरी तरह फेल नजर आती है. कहीं कोई बात होती दिखाई नहीं देती. अभी भी राज्य में सुविधाजनक राजनीति ही नजर आती है. पॉलिसी के स्तर पर व्यापक बदलाव की कहीं कोई गुंजाइश नहीं नजर आती. हां, सच लिखने वाले पर यहां कार्रवाई जरूर हो जाती है. अब सीवान जिले के सिविल सर्जन ने जो झोलाछाप डॉक्टरों को इस महामारी से निपटने के लिए बुलावा भेजने की बात कही, तो उन्हें निलंबित कर दिया गया.

सीवान के सिविल सर्जन जिसे लिखने पर निलंबित कर दिए गए

बिहार के मुखिया लॉकडाउन के बावजूद उनकी सीमा में ठेल दिए गए मजदूरों को लेकर बिफर पड़ते हैं. पूछते दिखाई पड़ते हैं कि ये कैसा ‘लॉकडाउन’? ऐसे तो ‘लॉकडाउन’ फेल हो जाएगा? दरअसल, वे इस बात को बखूबी जानते हैं कि उनके पास इस महामारी से लड़ने का मैकेनिज्म नहीं है. किसी भी बीमारी से लड़ने का सिस्टम नहीं. गर ऐसा न होता तो भला चमकी जैसी बीमारी 185 बच्चों को लील लेती? और मेरे इस रिपोर्ट के लिखते-लिखते इस वर्ष चमकी से बच्चों के मरने की खबरें आने लगी हैं. कोरोना भले ही उन खबरों का स्पेस खा जा रहा हो. आपको आंखोंदेखी बताऊं तो प्रदेश के प्रतिष्ठित ‘पीएमसीएच अस्पताल’ में नर्सों के पास मास्क तक नहीं. नर्स बहनें अधीक्षक के दरवाजे तक पहुंचकर इस बात का गुहार लगा तो जरूर रही हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई होगी ऐसा दिखाई नहीं देता. प्रैक्टिसिंग डॉक्टर्स के पास पीपीई किट, ग्लव्स और N95 मास्क तक नहीं, जरा सोचिए कि कोरोना से ऐसे कैसे लड़ेगा बिहार?

हकीकत और फसाना (वाया – प्रभात खबर)

गौरतलब है कि बिहार के भीतर पलायन कोई चुनावी मसला नहीं. अब जब एक झटके से ‘Reverse Migration’ होने लगा है तो यहां के राजनेताओं के हांथ-पांव फूलने लगे हैं. मेरे इस रिपोर्ट को लिखते-लिखते पूरे देश में कोरोना के करीब तीन हजार मामले पॉजिटिव आ चुके हैं और उनमें से करीब 80 की मौत हो चुकी है. बिहार की बात करें तो राज्य में कोरोना पॉजिटिव मामलों की संख्या 31 तक पहुंच गई है. बिहार के लिहाज से अच्छी बात यह है कि यहां कोरोना का ग्रास बनने वालों की संख्या सिर्फ 1 है. यहां हम आपको यह भी बताते चलें कि साल 2018-19 में बिहार ने स्वास्थ्य के मद में 7318 करोड़ खर्च किए. यह कुल बजट का 3.46 फीसदी है. अब जरा सोचिए कि बिहार के राजनेता और सत्ता राज्य के लोगों के स्वास्थ्य को लेकर कितने गंभीर हैं?

यहां हम आपको बताते चलें कि मीडिया में आई एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार के भीतर स्थायी डॉक्टरों की संख्या 6261 है और ठेके पर बहाल होने वाली सरकारी डॉक्टरों की संख्या 2314 है लेकिन आपको बताते चलें कि इसमें भी करीब 50 फीसदी पद खाली हैं और फिलहाल स्थायी डॉक्टरों की संख्या महज 3821 है और ठेके पर बहाल डॉक्टरों की संख्या 531 है. इतने पद खाली होने के बाद बिहार में यह कोई मुद्दा नहीं है. बिहार सरकार यह बात बीते वर्ष सुप्रीम कोर्ट में बता चुकी है कि उसके पास ज़रूरत की तुलना में 57 फीसदी डॉक्टर कम हैं और 71 फीसदी नर्सों की कमी है. जून 2019 में नीति आयोग ने स्वास्थ्य मामलों में भारत के राज्यों की जो रैंकिंग बनाई थी, उसमें बिहार का नम्बर 21वां था लेकिन यह विमर्श न कहीं सोशल मीडिया या मेनस्ट्रीम मीडिया में दिखता है और न जनता ही चुनाव के वक्त इन मसलों पर बात करती दिखाई देती है. चुनाव आते-आते वही भेड़ियाधसान. रैली-रैला.

देश के अलग-अलग राज्यों की तुलना में बिहार (इन्फोग्राफिक क्रेडिट- डाउन टू अर्थ)

यहां यह बताना भी और जरूरी हो जाता है कि बिहार की कुल जनसंख्या लगभग 13 करोड़ है. (पूरे देश का दसवां हिस्सा है). कोरोना जैसी महामारी ने पूरी दुनिया को लगभग थाम दिया है. ऐसे में मौका है कि हम भी अपनी प्राथमिकताओं की ओर लौटें. अपनी ऐतिहासिक गलतियों को न दुहराने का प्रण करें. नए विमर्श गढ़ें. यदि मैं आपके सामने WHO की ओर से जारी किए गए मानक का हवाला दूं तो 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए. हिन्दुस्तान के लिहाज से ये आंकड़ा 11,082 लोगों पर 1 डॉक्टर का है और बिहार के लिहाज से ये आंकड़ा 28,391 लोगों पर 1 डॉक्टर है और एक लाख की आबादी पर एक बेड उपलब्ध है, लेकिन अफसोस कि यह कहीं भी विमर्श का मुद्दा नहीं. कोरोना जैसी महामारी ने हमें यह मौका तो जरूर दिया है कि हम मूल मुद्दों को यूं ही नज़रअंदाज न करें. आगामी विधानसभा चुनाव में स्वास्थ्य और अस्पताल को विमर्श के केंद्र में ले आएं…