देश की राजधानी है दिल्ली और दिल्ली के भीतर कई विश्वविद्यालय हैं, लेकिन बात यदि छात्र राजनीति पर की जाए तो जेएनयू और डीयू की तस्वीर ही जेहन में आती है. जेएनयू में सबकुछ बड़ी शांति से होता है और डीयू में सिर्फ शोर ही शोर है. जेएनयू में जहां देश–दुनिया के मुद्दे उठते हैं. वहीं डीयू में जातीय अस्मिता, धनबल और बाहुबल का घनघोर प्रदर्शन देखने को मिलता है.
जेएनयू में जहां छात्र–छात्राओं द्वारा नारे लगाते–लगाते तनने वाली नसें और भिंची गई मुट्ठियों से सरकारों की भृकुटियां तनती हैं. चप्पल पहनकर चलने वाला एक अदना सा छात्र भी अध्यक्षी जीत जाता है. देश–दुनिया की पॉलिसी पर अपनी बातें रखता है…
वहीं दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय है. जहां जाटों और गुर्जरों के बीच भाईचारे और आपसी तनातनी के बीच चुनाव संपन्न होते हैं. छात्र संगठन चाहे विद्यार्थी परिषद हों, एनएसयूआई हों या फिर इनसो. बड़ी–बड़ी गाड़ियों के काफिले और प्रत्याशियों के नामों से लगने वाले नारे की रंगत ही देखने को मिलती है.
हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय में इस बार एक नई परिघटना देखने को मिली है. विद्यार्थी परिषद ने पूर्वांचल (पूर्वी उत्तरप्रदेश) से ताल्लुक रखने वाले एक छात्र को उपाध्यक्षी का टिकट दिया और उसने रिकॉर्ड वोटों से जीत मिली है. ऐसा लगने लगा है कि लंबे समय से पूर्वांचलियों की दबी आवाज को किसी ने स्वर दे दिया है. इस परिघटना पर जब हम दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र व दिल्ली प्रदेश की विद्यार्थी परिषद के मीडिया संयोजक आशुतोष सिंह से बात करते हैं तो वे कहते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी ऐसी चीजें हुई हैं. वे विद्यार्थी परिषद से ही जुड़े दूसरे छात्र और बीते साल वैंकी कॉलेज के अध्यक्ष प्रशान्त मिश्रा का जिक्र करते हैं. वे प्रशान्त को पूर्वांचल की राजनीति के लिहाज से नींव का पत्थर करार देते हैं. वे कहते हैं कि पिछले कई सालों की सक्रियता ही इस बार जीत में बदली है. आशुतोष विद्यार्थी परिषद से ही जुड़े रहे और डीयू के पूर्व अध्यक्ष अनिल झा का जिक्र करते हैं. वे कहते हैं कि बीते से बीते विधानसभा चुनाव में अनिल झा दिल्ली के किराड़ी विधानसभा से विधायक थे.
इस पूरी परिघटना पर दिल्ली विश्वविद्यालय में कभी आइसा संगठन में सक्रिय रहे दीपक कहते हैं कि पैसा बड़ी वजह है लेकिन समीकरण भी है. तिसपर से प्रत्याशी का चेहरा-मोहरा. जातीय समीकरण. पूर्वांचल के बाबू साहब सब दिल्ली में हॉल्ट किये थे. पैसा भी मिला और सहयोग भी. जो कि सारी जातियां करती रही हैं.
पूर्वांचल (यूपी–बिहार) के नए छात्र–छात्राओं के लिहाज से या वोटर्स के लिहाज से भले ही ये ऐतिहासिक घटना दिख रही हो लेकिन ऐसे समीकरण पहले भी दिख चुके हैं. हालांकि वे शक्ति को लेकर खासे उत्साहित हैं. उन्हें शक्ति के रूप में उनकी लड़ाई लड़ने वाला नया लड़ाका मिल गया है. अब ये तो समय ही बतायेगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के भीतर शक्ति के रूप में पूर्वांचल की शक्ति कितनी बरकरार रह पाती है…