कोसी नदी के ठीक किनारे एक नाव लगी है, वहीं हमें हारुन मिले. हारुन छूटते ही कहते हैं, ‘हिंदुस्तान कौन जमाना में आजाद हुआ और कोसी बेल्ट अब तक आजाद नहीं हुआ है, जब तक नाव का इंतजाम होता है तब तक आदमी मर जाता है. एक पुल मिल जाएगा तो लोगों को सुविधा हो जाएगी, आराम हो जाएगा’. हारुन इस इंतजार में थे कि नाव खुले और वे इस पार से उस पार जा सकें. नाव से आर-पार होना इस इलाके के लोगों के लिए रोजमर्रा की बात है, परेशानियां और वादे तो ढेरों हुए लेकिन स्थिति जस की तस है.
दरअसल, इन दिनों दरभंगा जिले के भीतर और बाहर से ‘अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे’ का शोर बहुत अधिक सुनाई पड़ रहा है ‘लेकिन’ इसी दरभंगा जिले के कीरतपुर ब्लॉक के अंतर्गत पड़ने वाले इलाके के लोग सालों से एक अदद पुल के लिए तरस रहे हैं. इसको लेकर कहीं कोई बातचीत सोशल मीडिया या दरभंगा के ‘पॉपुलर डिस्कोर्स’ में नहीं दिखाई देती. सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग नहीं होता. यहां एक पुल का निर्माण सालों से अधर में लटका है. कोसी तटबंध के किनारे बसे इस इलाके में पुल को अबतक बनकर चालू हो जाना था. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत. बोर्ड भी लग गया. लागत और पांच साल तक रखरखाव की बात भी बोर्ड पर स्पष्ट तौर पर लिख दिया गया. कार्य आरम्भ की तिथि 12-07-2017 और कार्य समाप्ति की तिथि 11-07-2018 थी ‘लेकिन’ साल 2020 अपने अंतिम दिनों की ओर बढ़ रहा है, फिर भी पुल के निर्माण के लिहाज से कोई काम धरातल पर होता नहीं दिखाई पड़ता. नाव अब भी लोगों के लिए अपनी मोटरसाइकिलें और जानवरों तक को आर-पार ले जाने का एक मात्र जरिया है. कई बार हादसे भी हुए ‘लेकिन’ कहीं कोई सुनवाई नहीं.
गौरतलब है कि यह ‘लेकिन’ जिसे हिन्दी भाषा में “संयोजन” कहते हैं. वही बिहार का कड़वा यथार्थ है. नियति है. यहां हर तरह की संभावनाएं हैं लेकिन मामला ‘लेकिन’ पर आकर फंस जाता है. होने को तो बिहार क्या नहीं हो सकता था लेकिन… कहानी लंबी है और दर्द उससे भी कहीं अधिक गहरा. कहना यही है कि जिस पुल का निर्माण साल 2017 में शुरू होकर 2018 से उस पर आवाजाही शुरू हो जानी थी, उस इलाके के लोग इस बीच साल 2019 में एक बार वोट डाल चुके हैं. साल 2019 और 2020 की बाढ़ का दंश भी झेल चुके हैं. साल 2020 में फिर से वोट डाल देंगे. सरकारें बदल जाएंगी लेकिन उनकी जद्दोजहद जस की तस रह जाएगी.
मौके पर ही मक्के की तौल करा रहे और फिर हमें उस (साइट- जहां पुल बनना है) वहां लेकर गए मनेस यादव कहते हैं, ‘इधर नदी है. बहुत परेशानी है. बारहो महीने परेशानी झेलते हैं. पुल नहीं बनने की वजह से उस पार हमारे गांव (अमृतनगर) में सड़क नहीं बन रही. मक्के को उस पार से लाने में परेशानी होती है. जितनी कमाई नहीं उससे अधिक तो लागत लग जा रहा. चुनाव के वक्त हमेशा पुल की बात नेता लोग करते हैं, लेकिन जीतने के बाद कोई काम नहीं होता.’
इसी इलाके के अमृतनगर गांव के रहने वाले कुशेश्वर यादव कहते हैं कि पुल नहीं होने की वजह से सबसे बड़ी परेशानी यह है कि हमारे इलाके और गांव के हजारों महिलाओं और नवजात की जान जाती है. नाव से ही आते-जाते हैं. नाव समय से नहीं मिलता. बरसात के दिनों में पानी भी बहुत बढ़ जाता है. जून से सितंबर तक पानी बहुत अधिक रहता है. पढ़ाई-लिखाई करने वाले बच्चों को भी खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है. गार्जियन को भी बराबर डर लगा रहता है. नदी के उस पार न कायदे के स्कूल हैं और न ही कोई अस्पताल. जीवन इसी तरह चल रहा है. कहीं कोई सुनने वाला नहीं.
दरअसल, हम इस जगह पर मक्के की तौल कर रहे कुछ मजदूरों को देखकर ठिठके थे. चुनाव के पहले भले ही ‘किसान बिल’ की बात होती रही हो. देश के साथ ही राज्य के कृषि मंत्री ने जोरशोर से इस बात को कहा कि किसान अपनी उपज कहीं भी ले जाकर बेच सकता है, लेकिन (इस इलाके के भीतर रहने वाला) किसान कैसे किसी चीज को कहीं ले जा सकेगा यदि उसके पास कोई जरिया नहीं होगा. पुल नहीं होगा, तिसपर से इस इलाके के सड़क की बात करेंगे तो कहानी किसी और दिशा में मुड़ जाएगी. हां, इस बात को तो आप जान ही लें कि ‘पीले सोने’ के तौर पर देश-दुनिया में चर्चित बिहार का मक्का इस बार पिछले वर्ष 2000 से 2500 रुपये क्विंटल की तुलना में 900 से 1200 रुपये क्विंटल के दर पर बिक रहा है, जबकि भाड़ा से लेकर मजदूरी चारों तरफ बढ़ी ही है. कोरोना ने रोज कमाकर खाने वालों को भुखमरी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है. महंगाई अपने चरम पर है. प्याज फिर से अनार हो गया है, ‘लेकिन’…