बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बालिका गृह में लड़कियों के साथ हुए बलात्कार की पुष्टि के बाद भी राज्य सरकार के रवैये से इस बात को समझा जा सकता है कि राज्य में लड़िकयों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार कितनी प्रतिबद्ध है। महिला सुरक्षा को लेकर राज्य के नेताओं का इस कदर लापरवाही भरा व्यवहार अपराधियों में इस बात का मनोबल बढ़ाता है कि उन्हें कुछ नहीं होगा, वह बच जाएंगे। जो कोई भी बिहार की सामाजिक स्थिति से वाकिफ हैं उन्हें इस बात का अंदाजा होगा कि यहां की महिलाओं का थाने पहुंचकर शिकायत लिखाना कितना मुश्किल काम है। दरअसल, यहां वृहद तौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को मौन स्वीकृति मिली हुई है। स्कूल और कॉलेज जानेवाली सौ लड़कियों से अगर पूछा जाए कि उनके साथ किस दिन छेड़खानी की घटना नहीं हुई थी तो मुझे डर है कि वह यह बताएं कि ऐसा एक दिन भी नहीं हुआ होगा। स्थिति कितनी बुरी है, इसका अंदाजा सिर्फ उन्हीं लड़कियों या महिलाओं को होगा जो इससे रोजाना गुजरती हैं।
बिहार का समाज लड़कियों के दुपट्टा ओढ़ने की फिक्र ज्यादा करता है। उसे इस बात की चिंता ज्यादा सताती है कि लड़कियां पलट कर जवाब क्यों देने लगी हैं? मुजफ्फरपुर जैसी घटनाओं पर बिहार से बाहर रहनेवालों और बिहार में भी रहनेवाले लोग ऐसे आश्चर्यचकित हो रहे हैं जैसे यह कोई नई बात हो। मन ही मन सबको पता है कि यह तो एक मामला है, अगर बिहार की लड़कियां शिकायत दर्ज कराने पर आ जाएं तो बिहार के कितने मर्द हवालात के भीतर जाएंगे यह कहना मुश्किल है। बिहार में राजनीति पर हर घर के दालान से लेकर चौराहे तक बहस होती है और बातें इस तरह होती है कि रोज एक सरकार गिर जाए और दूसरी बन जाए। लेकिन इस बहस में घर की महिलाओं और लड़कियों की पहुंच बस इतनी है कि वह बहस करनेवालों को चाय का कप पकड़ा दें और कहीं–कहीं तो काम सिर्फ चाय बनाने तक सीमित रहता है क्योंकि औरतें इतने लोगों के सामने कैसे आएंगी? इस मामले में औरतों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।
कुछ भी आसान नहीं है यहां लड़कियों के लिए। पैदा होने से लेकर मर जाने तक एक अजीब सा संघर्ष है। स्कूल–कॉलेज में पढ़ाई के समय खास ख्याल रखना पड़ता है कि कोई पीछा न करने लगे, अगर पीछा करने लगे तो रास्ता बदल लें क्योंकि अगर यह बातें लड़की किसी को बताती है तो लड़के से पहले लड़की समाज में दोषी करार दी जाएगी और उसका पढ़ना–लिखना सब बंद हो जाएगा। समाज एक अजीब सी बीमारी से गुजर रहा है जिसे कहते हैं सामूहिक रूप से सोचने–समझने की शक्ति का खत्म हो जाना। एक यही चीज है जो हमें जानवरों से अलग करती है लेकिन हम अपने कथित विकास के क्रम में उस मोड़ पर आ गए हैं जहां शायद हम अपनी इस खासियत या खूबी को भी भूल गए हैं। नहीं तो अखबार में रोजाना बलात्कार की घटनाओं को पढ़कर और इस निृशंसता के बारे में सोचकर लड़कियों को दोषी ठहराने से पहले लाखों बार सोचते, लेकिन भला ऐसा क्यों ही होने लगा?
हिन्दी पट्टी के चहेते फिल्मकार अनुराग कश्यप ने एक फिल्म बनाई थी। गुलाल। उस फिल्म में एक डायलॉग है, ‘‘ इस मुल्क ने हर शख्स को जो काम था सौंपा, उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी’’। तो अभी इस देश में यही चल रहा है। न तो घरों में लड़कियों के साथ होने वाले या हो रहे व्यवहार पर बात की जाती है, न स्कूलों में शिक्षक इसके बारे में जागरूक करते हैं और सरकार तो शुभानअल्लाह है ही। तो इसके बाद बचता क्या है, यह आप खुद ही सोच लें।”