बिहार में कैमूर जिले की एक विधानसभा का नाम है रामगढ़. शोले फिल्म वाला नहीं. वास्तविक दुनिया वाला. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के लिहाज से जो कुछेक सीटें हॉटमहॉट होंगी, उनमें से एक रामगढ़ भी जरूर होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार प्रदेश के भीतर रामगढ़ विधानसभा उन कुछेक सीटों में से है जहां राजनीति की धुरी विकास है. राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह इस सीट से 80 के दशक से ही लगातार प्रतिनिधि रहे हैं. इतना ही नहीं जब जगदानंद बतौर बक्सर लोकसभा प्रतिनिधि देश के संसद में चले गए, तब भी 2009 से 2015 तक इस विधानसभा की पताका राजद के ही हाथ में रही. ऐसे में रामगढ़ के चुनावी परिणाम को लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में तेजस्वी और जगदानंद के नेतृत्व और दखल की कसौटी के लिहाज से भी देखा जाएगा. अब आगे…
रामगढ़ में लंबे समय तक ‘समाजवाद’ की लहराती रही है पताका
रामगढ़ विधानसभा की कहानी शुरू करने से पहले इस बात को बताना जरूरी है कि इस विधानसभा पर लंबे समय तक ‘समाजवाद’ की पताका लहराती रही है. लालू और नीतीश वाली नहीं, बल्कि लोहिया, जयप्रकाश, कर्पूरी और चौधरी चरण सिंह वाली. यहां से कभी सच्चिदानंद सिंह जीतते थे. ऐसा कहा जाता है कि डॉ लोहिया को शाहाबाद में सच्चिदानंद सिंह ही लाए थे और कर्पूरी ठाकुर को सीएम बनाने में भी उनकी अहम भूमिका रही. बाद के दिनों में सच्चिदानंद और जगदानंद में ही घमासान हुआ और कांग्रेस से प्रभावती सिंह जीत गईं. उसके बाद से जगदानंद ही लगातार जीतते रहे. पहले लोकदल और बाद के दिनों में जनता दल होते हुए राष्ट्रीय जनता दल. साल 2009 में लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद उन्होंने बेटन संघर्षों के साथी रहे अम्बिका यादव को थमा दिया और उन्हें लगातार दो बार जितवाने में अहम भूमिका भी अदा की.
यहां ‘जगदानंद’ और ‘विकास’ है अहम फैक्टर
कि रामगढ़ विधानसभा के भीतर लंबे समय से एक बड़ा फैक्टर जगदानंद सिंह रहे हैं. जनता उन्हें ‘बिजुरिया बाबा’ कहती रही है. ऐसा देखा-सुना जाता रहा है कि लालू प्रसाद के राज में भले ही बिहार के भीतर बिजली की हालत खस्ताहाल रही हो लेकिन यहां रहती थी. पटवन का पानी भी खेतों तक पहुंचता रहा. यहां की राजनीति के केंद्र में ट्रांसफॉर्मर और उसका तेल रहा. बच्चियों के लिहाज से बना स्कूल और अस्पताल रहा या कहें कि विकास रहा. राजनीतिक भाषा में कहें तो लंबे समय से यहां के चुनाव या तो जगदानंद को जिताने के लिए होते हैं या फिर हराने के लिए. 80 के दशक से ही यहां से नेतृत्व जगदानंद ही करते रहे हैं. राजद की सरकार में अहम मंत्रालयों को संभाला. साथ ही लालू प्रसाद के चारा घोटाले मामले में सजायाफ्ता होने के दौरान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार भी चलाते रहे. 2005 में भले ही नीतीश कुमार सरकार में चले आए हों लेकिन साल (2004-2005 विधानसभा चुनाव) में जगदानंद ने ही जनता का भरोसा जीता. इतना ही नहीं साल 2009 के लोकसभा में बक्सर लोकसभा (रामगढ़ शामिल) का प्रतिनिधित्व करने के दौरान भी इस विधानसभा पर राजद का ही कब्जा रहा. साल 2009 के उपचुनाव में राजद के टिकट पर अम्बिका यादव जीते और अगली बार (2010 के विधानसभा चुनाव) में जगदानंद सिंह के बेटे (सुधाकर सिंह) के भाजपा का दामन थाम लेने के बावजूद भी यहां से राजद का ही परचम लहराया, और सुधाकर सिंह के साथ ही जद (यू) के बागी उम्मीदवार अशोक कुमार सिंह (निर्दल) चुनाव हार गए.
रामगढ़ में बसपा भी है एक फैक्टर
अब बिहार के लिहाज से इस बात पर विश्वास करना कई लोगों के लिए मुश्किल होगा कि बसपा भी यहां के विधानसभा चुनाव में एक फैक्टर हो सकती है, लेकिन उत्तरप्रदेश के सटे इलाके में बसपा का भी रंग और प्रभाव मजबूती से देखने को मिलता है. उत्तरप्रदेश से सटे कैमूर जिले में अलग-अलग दलों के बागी, पैसा खर्च करने वाले प्रत्याशियों और निर्दलों की पहली पसंद होती है बसपा. लॉकडाउन के दौरान ही जहां लोगों के बीच बंटते मास्कों में हरा और भगवा रंग प्रमुखता से देखा गया. वहीं रामगढ़ विधानसभा के भीतर बसपा के लिहाज से नीले मास्क को भी बंटते हुए देखा गया, और इस नीले मास्क को बंटवाने वाले शख्स का नाम है पूर्व विधायक अम्बिका यादव. पहलवान के नाम से इलाके में चर्चित अम्बिका यादव इस बीच हरी पगड़ी छोड़कर नीली पगड़ी बांध चुके हैं. लालटेन का दामन छोड़कर हाथी की सवारी शुरू कर चुके हैं.
हरी पगड़ी से नीली पगड़ी पर शिफ्ट होने के सवाल पर अम्बिका यादव कहते हैं, “देखिए हमने तो अपनी जिंदगी के 46 साल समाजवादी विचारधारा और लालू प्रसाद के हाथों को मजबूती देने के लिए ही खर्च किए. अपने पूरे राजनीतिक करियर में जगदानंद के नेतृत्व में ही काम किया. उन्हें ही गार्जियन माना चाहे हम सरकार में हों या न हों, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से उपेक्षा होने लगी. हमें जिले और विधानसभा के लिहाज से तमाम गतिविधियों से दूर रखा जाने लगा. किसी भी कार्यक्रम के लिहाज से तैयार बैनरों से नाम को हटाया जाने लगा. जिन्होंने लालू प्रसाद को अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से कमजोर किया, उन्हें हमारे ही घर में प्रवेश करा दिया गया – (जगदानंद सिंह के पुत्र -सुधाकर सिंह- के साल 2009 से ही बगावती तेवर अख्तियार करने और साल 2010 में भाजपा का उम्मीदवार हो जाना). चूंकि घर (राजद) को बनाने में यदि जगदानंद मिस्त्री थे तो हमारी भूमिका भी गारा बनाने और धराने वाली तो थी ही. अब जबकि हमें बिना कुछ कहे घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. तो बसपा सुप्रीमो मायावती ने हमें अपने घर का सहारा दिया. घर से बेघर होने के बाद चाहे घास-फूस का छप्पर ही सही. अब यही हमारा ठिकाना है.”
राजद परिवार की टूट और फूट का फायदा किसे?
जैसा कि हम आपसे पहले भी बता चुके हैं कि उत्तरप्रदेश से सटे इस जिले में बसपा एक मजबूत दखल है. आज इस जिले के कई प्रतिनिधि कभी न कभी बसपा के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत या हार चुके हैं. तो इस फैक्टर को बिल्कुल से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. रामगढ़ विधानसभा के भीतर बसपा के फैक्टर होने के सवाल पर सुधाकर सिंह कहते हैं, “देखिए इस पूरे इलाके में बसपा एक फैक्टर जरूर है लेकिन वह उम्मीदवार पर भी निर्भर करता है. साल 2010 में जब वे भाजपा से चुनाव लड़े थे तब भाजपा 17,000 पर सरक गई थी. बड़ा सवाल यह है कि बसपा का कौन सा उम्मीदवार कितना पैसा खर्च कर सकेगा और जातीय समीकरणों को साध सकेगा. बसपा का वोट 25,000 के आसपास है लेकिन वह प्रत्याशी पर निर्भर करता है.”
राजद छोड़कर बसपा का दामन थाम चुके अम्बिका यादव के सवाल पर वे कहते हैं, “देखिए ये सवाल मुझसे अधिक उनसे है कि उन्हें दल छोड़ने को किसने कहा? वे जीते भी तो इसलिए क्योंकि यहां राजद की राजनीति इतनी मजबूत रही है. वे बड़े करिश्माई नेता रहे हों ऐसा भी नहीं है. सदन के भीतर लगातार सवाल उठाते रहे हों ऐसी बात भी नहीं है. मेरे दल में आने का मतलब यह तो नहीं कि कोई दल से चला जाए. क्या लालू प्रसाद और रामचंद्र पूर्वे (केंद्र और प्रदेश नेतृत्व) ने उन्हें दल छोड़ने को कहा? वे (अम्बिका यादव) बीता चुनाव भी अपना अंतिम चुनाव कहकर लड़े थे, अब कहीं (बसपा के साथ) जाने के लिए कोई वजह तो ढूंढनी होगी. वहीं राजद के मजबूत वोटबैंक की बात करें तो राजद को वोट करने वालों के सामने तेजस्वी यादव के प्रदेश स्तर पर उभरते नेतृत्व और एक उनकी ही जाति के नेता को विधानसभा के लिहाज से चुनने का सवाल भी सामने होगा. रही बात पूर्व विधायकों के चुनाव लड़ने की तो ऐसा पहले भी होता रहा है और उन्हें जीत मिली हो ऐसा भी नहीं है.”
लालू और नीतीश रहे साथ, फिर भी ढह गया ‘समाजवाद’ का किला
यहां इस बात को बताना जरूरी हो जाता है कि साल 2014 में नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण हुआ और वे राजनीतिक तौर पर एक मजबूत फैक्टर के तौर पर गिने जाने लगे. साल 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव उनके करिश्मे की भी टेस्टिंग था, लेकिन लालू और नीतीश की जोड़ी ने नरेंद्र मोदी को बिहार में पटकनी दे दी. इसके बावजूद रामगढ़ समेत कैमूर जिले की चारों सीटों पर भाजपा का ही कब्जा रहा. यहां मोदी और उनके विकास पर जनता ने मुहर लगाई. अम्बिका यादव को पटकनी देकर रामगढ़ से अशोक कुमार सिंह विधानसभा पहुंचे. लंबे समय के बाद यहां से दक्षिणपंथ का बिगुल बजा. हालांकि अशोक कुमार सिंह भी पहले जद (यू) से ही जुड़े रहे. साल 2014 के आम चुनाव तक जद (यू) के ही जिलाध्यक्ष रहे. रामगढ़ विधानसभा और प्रदेश के लिहाज से सत्ताविरोधी रुझान के सवाल पर अशोक कुमार सिंह कहते हैं, “देखिए रामगढ़ के भीतर हम तो 29 साल बनाम 5 साल की बात कह रहे. 29 साल में जो काम नहीं हो सका, उन तमाम कामों को 5 साल के भीतर करवा रहे हैं/चुके हैं . यहां से जीतने वाले (जगदानंद सिंह) राजद सरकार में जल संसाधन मंत्री रहे लेकिन वे भी पटवन हेतु कई कार्यक्रमों को नहीं शुरू करा सके. उनकी सरकार सबका साथ, सबका विकास और न्याय के साथ विकास कर रही है. किसी को भी छोड़ ही नहीं रही. रामगढ़ के भीतर चुनाव का मुद्दा हमेशा विकास ही रहा है, रहना भी चाहिए. विपक्ष के पास तो यहां कोई मुद्दा ही नहीं बचा.”
रामगढ़ के भीतर बसपा के किसी भी तरह का फैक्टर होने के सवाल पर अशोक कुमार सिंह कहते हैं, “देखिए जब से वे विधानसभा की सक्रिय राजनीति में आए हैं तब से बसपा की राजनीति नीचे की ओर सरकती चली गई. वे जब साल 2010 में निर्दल चुनाव लड़े. तब भी बसपा तीसरे या चौथे नंबर पर चली गई. उनके जीतने के साल (साल 2015) के दौरान भी बसपा तीसरे नंबर पर चली गई. तो बसपा उनकी नजर में कोई अहम फैक्टर नहीं.”
अभी चुनाव की तारीखें भले ही घोषित न हुई हों, लेकिन इस विधानसभा में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं. लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद से ही तमाम राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र में आगामी विधानसभा चुनाव ही रहा. खुलते लॉकडाउन के बीच तमाम दावेदार अपनी कैंपेनिंग भी करने लगे हैं. सिटिंग विधायक को अपने काम और विकास पर भरोसा है तो बाकी के दावेदार भी उन्हें पटकनिया देने की तमाम कोशिशों में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे. ‘द बिहार मेल’ ने इस पूरे विधानसभा के समीकरण और राजनीति को समझने के लिहाज से कभी पूर्वांचल की राजनीति को समझने और बरतने वाले और फिलहाल भभुआ कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे अधिवक्ता डॉ हरिद्वार पाण्डेय से संपर्क किया.
रामगढ़ विधानसभा में जीत-हार और उसे लेकर जारी सियासी दांव-पेंच के हमारे सवाल पर हरिद्वार पाण्डेय कहते हैं, “देखिए सोशल इंजीनियरिंग ही आज की सच्चाई है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन ऐसा ही है. विकास मीडिया द्वारा उछाला गया शब्द है. विकास यदि पैमाना होता तो यहां से अशोक कभी जीत ही नहीं पाते. आखिर जीतने के पहले उन्होंने कितना विकास किया था? सिर्फ जगदानंद से लड़ते रहे, इतना ही ना? जगदानंद तो हमेशा विकास ही करते रहे. उन पर तो इस बात का ही आरोप है कि उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को रामगढ़ की कमान सौंप दी, जो रामगढ़ की राजनीति को आगे न ले जा सका. जिसने उनके द्वारा चलाए गए विकास के पहिए को अवरुद्ध किया. वे (जगदानंद) सुधाकर को तब भी लड़वा सकते थे लेकिन उन्होंने पार्टी के लिए काम करने वाले को परिवार के ऊपर तरजीह दी. अब यदि अम्बिका बसपा से लड़ते हैं जो तय नहीं, क्योंकि बसपा में अधिक चढ़ावे के आधार पर टिकट मिलता है तो भी वे राजद को ही नुकसान पहुंचाएंगे लेकिन यहां की लड़ाई तब भी अशोक और सुधाकर के बीच ही होगी.” जाते-जाते यही कहना है कि यहां के परिणाम चाहे जो हों लेकिन इस सीट पर आपको सोशल इंजीनियरिंग, विकास की जुगलबंदी और जगदानंद की विरासत को हथियाने के लिए घमासान लड़ाई दिखाई देगी. इस बात की गारंटी तो लेखक अपनी समझ के आधार पर दे ही सकता है…