बीएचयू में छात्राओं से छेड़खानी की खबरें आम रही हैं लेकिन इन आम खबरों में बीते साल तब भूचाल आ गया जब बीएचयू की लड़कियां सड़कों पर आ गईं. उनकी तनी हुई भृकुटियां और भिंची हुई मुट्ठियों ने कुंभरकरणी नींद में सो रहे शासन–प्रशासन की नींदें उड़ा दीं और पीएम नरेन्द्र मोदी के काफिले को रास्ता बदलने को मजबूर कर दिया. 23 सितंबर 2017 की रात दुनिया और खासतौर पर बीएचयू के लिहाज से ऐतिहासिक रही. बीएचयू की वीरांगनाओं का सड़कों पर होना। हालांकि ये पहली बार नहीं था लेकिन फिर भी अद्भुत था। इस ऐतिहासिकता के पार्श्व में देखें तो 21 सितंबर 2017 की शाम याद आती है. बीएचयू के भारत कला भवन के पास कुछ शोहदों ने एक छात्रा के साथ छेड़खानी की, स्पष्ट तौर पर कहें तो यह यौन शोषण का मामला था लेकिन घटना स्थल से चंद कदमों की दूरी पर खड़े प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सुरक्षाकर्मियों का रवैया नकारात्मक ही रहा.
छात्राओं ने जब ये बात हॉस्टल वार्डेन को बताई तो वार्डन के शब्द थे कि, “तुम लोग 6 बजे के बाद बाहर जाती ही क्यों हो?” वार्डन के इन्हीं शब्दों का असर था कि सालों से उनके मन के भीतर जलती–बुझती आग ने ज्वाला का रूप अख्तियार कर लिया. बीएचयू की वीरांगनाएं अपने वाजिब हक के लिए 22 सितंबर की सुबह सड़कों पर थीं. इस आंदोलन ने बीएचयू प्रशासन की चूलें हिला दीं. बीएचयू प्रशासन ने इस आंदोलन को तोड़ने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का भरपूर इस्तेमाल किया लेकिन नाकाम ही रहे. जब वे इस स्वत: स्फूर्त आंदोलन को तोड़ नहीं पाए तब उन्होंने इस अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण आंदोलन को पुलिसिया दमन के सहारे कुचलने की कोशिशें कीं. लड़कियों पर देर रात लाठीचार्च हुआ, लेकिन छात्राएं भी कहां मानने के लिए सड़कों पर उतरीं थीं.
लाठीचार्ज के बाद भी सड़कों पर उतरी वीरांगनाओं ने दुनिया को दिखा दिया कि वे पुलिस की लाठियों से डरने वाली नहीं हैं. इस आंदोलन की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस आंदोलन ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी अपना रास्ता बदलने पर विवश कर दिया. हालांकि पीएम मोदी उस दिन वाराणसी में होने के बावजूद बीएचयू की वीरांगनाओं से नहीं मिले। भले ही बीएचयू के कुलपति को इस उथलपुथल के बाद कुर्सी गंवानी पड़ी लेकिन आज साल भर बाद भी स्थितियां जस की तस ही हैं.
इस आंदोलन के बाद बीएचयू के इतिहास में पहली बार एक महिला को चीफ प्रॉक्टर बनाया गया लेकिन जैसा कि पहले भी कहा स्थितियां जस की तस हैं. सवाल ये भी उठ रहे कि क्या महिला चीफ प्रॉक्टर छात्र–छात्राओं के हित में काम कर रही हैं या फिर वो भी पुराने ढर्रे पर चली आ रही दकियानूस और पितृसत्तात्मक सोच के पोषक के रूप में काम कर रही हैं?
एक वाकया से इस सवाल का जवाब खुद–ब–खुद मिल जाता है कि वो भी पितृसत्तात्मक समाज की पोषक ही हैं. छात्राओं को ही दबाकर रखने की कोशिशें में लगी रहती हैं. उन्हें कम आंकती हैं। पितृसत्ता के एजेंट के रूप में काम कर रही हैं. बीते मई माह में ही उन्होंने एक बयान दिया कि सितंबर में हुआ लड़कियों का आंदोलन प्रायोजित था. ऐसा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति भी कहते थे. मैडम ने एक खबरिया चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा कि उन्होंने आंदोलन के दौरान” ट्रक भर के आंदोलन स्थल पर पिज्जा , कोल्डड्रिंक और चिप्स आदि आते देखा था.” विश्वविद्यालय की छात्राओं को ये बात बुरी लगी क्योंकि 48 घंटे से ज्यादा समय तक छात्राएं सिर्फ पानी और बिस्किट के दम पर संघर्षरत थीं. जब छात्राएं उनसे इस बयान का प्रमाण मांगने गईं तो मैडम ने उन छात्राओं पर हत्या के प्रयास तथा और भी गंभीर आरोप लगा कर फर्जी मुकदमे कर दिए. मैडम से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाने वाले छात्र–छात्राओं को विश्वविद्यालय से डिबार कर दिया गया. विडंबना यह है कि ऐसा करने वाली एक महिला है. इस परिस्थिति में सवाल यह भी है क्या महिला का चीफ प्रॉक्टर बनना इस आंदोलन की जीत है?
बीएचयू आंदोलन में सक्रिय और फिलहाल वहां से डिबार कर दी गईं शिवांगी चौबे कहती हैं कि लड़कियों को अभी आगे और भी लड़ाइयां लड़नी हैं. बेशक उस रात ने लड़कियों में नई चेतना का संचार किया. चीजों को नए तरीके से देखने, समझने व हैंडल करने का नजरिया दिया लेकिन ये तो महज आगाज भर है. वो भी ऐसी परिस्थिति में जब विश्वविद्यालय में एक महिला को इस आधार पर प्रॉक्टर तैनात किया गया कि एक महिला के आने से परिस्थितियां छात्राओं के पक्ष में मुड़ेगीं मगर अफसोस….
छात्राओं के मुद्दों पर बहुत पहले से ही संघर्ष कर रही मिनेशी कहती हैं कि, “जब तक समाज में वास्तविकता में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ती, प्रधान पति जैसे शब्द खत्म नहीं होते, महिलाएं अपने अधिकारों को नहीं जानतीं, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करतीं, खुद को शिक्षित और संवेदनशील नहीं बनातीं तब तक पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात स्वांग भर ही कही जाएगी. बीएचयू में ग्रेजुएशन थर्ड ईयर की पढ़ाई कर रही अपर्णा हमसे बातचीत में कहती हैं कि उन लोगों को मर्जी के कपड़े पहनने, नानवेज खाने,रात में फोन पर बात करने आदि की मनाही थी और ये सारे नियम महिला प्रोफेसरों ने मिलकर बनाए थे जो उनकी पितृसत्तात्मक सोच को दिखाता है. इसीलिए ये जरूरी नहीं है कि महिला ही महिला का दर्द समझेगी, जब एक पढ़ी लिखी महिला जो कि देश के नामी विश्वविद्यालय की प्रोफेसर हैं वो ऐसी सोच रखती है तो कहीं न कहीं खराबी हमारी शिक्षा में है. हमें अपनी शिक्षा में जातीय संवेदनशीलता, लैंगिक संवेदनशीलता भी सिखाया जाना चाहिए ताकि आगे लोग जेंडर और कास्ट को लेकर संवेदनशील रहें.
बीएचयू के पूर्व छात्र आकाश ने हमें यह लेखा भेजा है…
2 Comments
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