दिल्ली में कोरोना के लगातार बढ़ते मामलों के बीच घर की कुछ ज्यादा ही याद आने लगी. लॉकडाउन (Lockdown) के पहले से ही संस्थान ने वर्क फ्रॉम होम (Work From Home) की सुविधा दे दी थी. लॉकडाउन की आपाधापी के बीच लगातार काम होता रहा. घर में कैद सभी लोग जेएनयू से सटे कटवारिया सराय के किराए वाले घरों से सड़क को निहारते रहते. सड़कों पर गाड़ियों की आवाजाही और शोर भी नदारद. बदलते मौसम के बीच एक अलग तरह की शांति में दिन का गुजरना. इस दौरान मेरे फ्लैट में मेरे रूम पार्टनर के अलावा 2 लोग और जमे रहे. इस वजह से भी खुद को जरा सहेजने में और अकेलेपन को परे धकेलना संभव हो सका.
इस बीच जब चीजें सामान्य हुईं, तो प्लान किया कि घर की ओर चला जाए. घर वापसी का टिकट वैसे तो 7 जुलाई का था, लेकिन पहले ही निकल पड़ा. ट्रेन पकड़ने के लिए जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा तो अजीब सी बेचैनी तारी रही. दिल्ली में मेरे रूम पार्टनर (सम्यक) ने ढेर सारे सुझाव दिए कि यात्रा के दौरान संक्रमण से बचा जा सके लेकिन ट्रेन में तो ‘दो गज दूरी’ जैसी बातें कहीं दिखीं ही नहीं. 3 टीयर में रिजर्वेशन था और एक साइड की तीनों सीटें बुक. हालांकि इस दौरान सबको जान की परवाह हो गई है. साथ के यात्री भी काफी सतर्क दिखे. मैंने भी सोने से पहले सीट को अच्छी तरह सैनिटाइज किया. हां, ट्रेन की यात्रा में वेस्टर्न टॉयलेट के इस्तेमाल से बचता रहा.
हमें लेकर ट्रेन डेहरी ऑन सोन (Dehri On Sone) रेलवे स्टेशन पर पहुंची. तो स्टेशन पर एक आरपीएफ का सिपाही आया. उसने सभी को थर्मल स्कैनिंग कराने के बाद घर जाने की बात कही, लेकिन जनता बिहार पहुंच चुकी है कैसे पता चले. लोगों की बातें और हरकतें तो हतप्रभ करने वाली दिखीं. एक यात्री ने तो बिना किसी बात की परवाह किए बगैर ट्रैक का रास्ता पकड़कर अपने घर के लिए चल पड़ा. तिसपर से लोगों की बहस. थोड़ी देर में देखा कि मेरे अलावा कुछेक परिवार ही थर्मल स्कैनिंग के लिए रुके थे. पत्रकार हृदय कुलबुलाया तो आरपीएफ के ऑफिस में जाकर पूछताछ करने की कोशिश भी की लेकिन कोई नहीं दिखा. बोले तो वेलकम टू बिहार ऐसा ही रहा.
कि कोरोना यहां दबता-छिपता भाग रहा है. लोग बिंदास हैं. सोशल डिस्टेंसिंग किस चिड़िया का नाम है कोई नहीं जानता. तिसपर से लोग हाथ मिला रहे हैं, सट सटकर हाहाहीही जारी है. स्थानीय बाजार में ऐसी रौनक है जैसे सबकुछ सामान्य हो. बस में भरे पैसेंजरों को देखकर कोरोना भी पनाह मांग ले, लेकिन इधर एक दो दिनों के भीतर लोगों के बीच एक अजीब सी बेचैनी दिख रही है. एक कोरोना संक्रमित मरीज के मौत की खबर है. लोकल स्तर पर डरने के लिए इतना काफी है. पहले जहां इक्के-दुक्के मास्क पहने दिख रहे थे, वहीं इस बीच मास्क वालों की संख्या बढ़ी है. टोकने को लोग बेसी तेज न बनने की हिदायत देकर टरका देते हैं. तिसपर से बिना सिरपैर के तर्क. खैर, जिनके लिए बाहर रहने के दौरान कई बार लड़ा वो वाकई महान हैं. जय बिहार!
डेहरी के बाजार में बसों और यात्रियों की बेरोकटोक आवाजाही के बीच दिल्ली और वहां की डीटीसी बसें याद आती हैं. कैसे वहां दो सीटों पर एक यात्री बैठ रहा. सीट से उठने के बाद उसे सैनिटाइज किया जा रहा. ऑटो भी सैनिटाइज किए जा रहे, लेकिन इधर सबकुछ भगवान भरोसे है. मैं भी मेट्रोपॉलिटन लाइफस्टाइल से निकलने की कोशिश कर रहा हूं. उम्मीद है कि सफलता मिलेगी…
यह आलेख ‘द बिहार मेल’ के लिए गोविंदा मिश्रा ने लिखा है. गोविंदा भारतीय जन संचार संस्थान से हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों के साथ जुड़कर काम करते रहे हैं. इन दिनों नौकरी छोड़कर बिहार लौटे हैं…