देश का सबसे खुशहाल और समृद्ध राज्य केरल फिलहाल प्राकृतिक आपदा के चपेट में हैं. ये राज्य बीते 100 वर्षों की सबसे भयावाह बाढ़ का सामना कर रहा है। कितने लोगों की जान चली गई, लाखों बेघऱ हो चुके हैं. केरल अभी जिस दर्द से गुजर रहा है, उसमें पूरा देश उसके साथ खड़ा है और केरल की मदद के लिए आगे भी आ रहा है. केरल के इस दर्द को कोई खूब समझ सकता है तो वो है बिहार. वो बिहार जो कभी बाढ़ में बह जाता या कभी सुखाड़ के चपेट में आ जाता है.
अगर मेरा वश चलता तो कोसी को एक-एक महीने के लिए सभी राज्यों में भेज देते तब देश को पता चलता कि बाढ़ का मतलब क्या होता है: डॉ श्रीकृष्ण सिंह
बिहार में जिस साल बाढ़ न आए सुखाड़ आ जाती है और जिस साल सुखाड़ न आए उस साल बाढ़ आ जाती है. कई बार बाढ़ और सुखाड़ दोनों आते हैं. नेपाल से सीमा साझा करने वाला क्षेत्र अधिकतर बाढ़ पीड़ित रहता है और झारखंड से सीमा साझा करने वाला सुखाड़ का सामना. कई बार कुछ यूं होता है कि अगस्त आखिरी तक बारिश नहीं हुई तो मंत्री पटना से दिल्ली सुखाड़ की भरपाई के लिए पहुंच जाते हैं और फिर सितंबर पहले सप्ताह में तीन दिन की ज़ोरदार बारिश के बाद वही मंत्री बाढ़ की भरपाई के लिए मांगने पहुंच जाते हैं और जब काम बन जाता है तो विशेष राज्य के मुद्दे को कोसी के पानी में बहा दिया जाता है लेकिन 71 सालों के बाद भी यह दिक्कत बढ़ती ही जा रही है. बाढ़ पहले भी आती थी पर पानी रुकता नहीं था, दादा-बाबा कहते हैं कि बाढ़ का पानी आता और चला जाता जिससे मिट्टी को पोटाश मिलता और फसल अच्छी होती लेकिन अब हफ्ते भर पानी रहता है और बर्बादी ही सच है.
पिछले साल प्रधानमंत्री ने 500 करोड़ रुपये उत्तर बिहार में बाढ़ राहत के लिए दिए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक करीब 1 करोड़ 46 लाख लोग सीधे तौर पर प्रभावित हुए थे और कोसी पीड़ित लोगों की आबादी अभी भी हजारों में है. आख़िरी साल जब बाढ़ को लेकर दादी-मां से बात हुई थीं तो कह रहीं थी ‘आई धरि एतेक दिन त’ पानि कहियो नै रुकलै, धान बहि गेलै सभटा’. (आज तक इतने दिनों तक बाढ़ का पानी कभी नहीं रुका, धान की फसल बर्बाद हो गई.)
बात 500 करोड़ की. कब पैसे आए और गए कोई माय-बाप नहीं. आए भी तो कितनों तक पहुंचे पता नहीं. मान लेते हैं कि पूरे पैसे पहुंच भी गए होंगे तो सभी को करीब 342 रुपये 46 पैसे मिले होंगे. क्या हो जाएगा इससे? अलग बात है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये कमाने वाले लोग गरीब नहीं है. हंसी आ रही है तो तो हंसिए. 2008 के बाढ़ पीड़ित आज भी तंबू लगा जी रहे हैं क्योंकि उनका घर कोसी लील गयी. 2017 या 2018 या 2019 के बाद कुछ और तंबू लग जाएंगे, और क्या? 71 साल बाद भी कोई इलाज नहीं है तो खोट तो है मुख्यमंत्री जी और प्रधानसेवक जी. स्थाई निदान ढूंढना ही होगा, वरना बाढ़ और राहत का खेल चलता रहेगा, सरकार जीतती रहेगी और जनता हारती रहेगी. ये बातें सिर्फ बिहार की हैं, डूबता असम और पूर्वांचल भी है.
बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा बताते हैं, “बिहार के पहले मुख्यमंत्री डाॅ श्री कृष्ण सिंह कहा करते थे कि अगर उनका वश चलता तो वह कोसी नदी को एक-एक महीने के लिए देश के सारे राज्यों में भेज देते तब देश को पता चलता कि बाढ़ का मतलब क्या होता है और उससे बचाव के लिए क्या करना चाहिए लेकिन हमारी समस्या पर कोई ध्यान नहीं देता.”
देर से ही सही अब कोसी और उसकी त्रासदी का अर्थ देश के विभिन्न प्रांतों की समझ में आ रहा है. उनके साथ पूरी सहानुभूति रखते हुए क्या हम कम से कम अब से बाढ़ सुरक्षा पर ईमानदारी से कोई पहल कर सकेंगे?