सिंगरौली के लिए कोयला किसी अभिशाप से कम नहीं है. कोयले की वजह से लोगों को सालों से अपनी जमीन, रोजी-रोटी, सेहत और आखिर में जान से हाथ धोना पड़ता है.
सिंगरौली में घुसते ही आई वह गंध मुझे कुछ बेहतरीन दिनों की याद दिला गई.
हमारी बस सिंगरौली जिले में दाखिल ही हुई थी. यात्रा रात की थी तो बाहर का कुछ दिखा नहीं. बस इतना पता था कि ये जगह विंध्याचल पर्वत की गोद में बसी है. नवंबर में दिल्ली से बाहर आना, वो भी विंध्य के इलाके में तिसपर से यह गंध. यह गंध कोटा में एक चायवाले की दुकान से आती थी जो कोयले पर चाय बनाता था. यहां पर भी ऐसी ही एक चाय की दुकान थी, जहां मैंने चाय पी और होटल चला आया, पर उस गंध ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा.
बड़ी अजीब सी गंध थी वह. ऐसी गंध जिसके पास से आप जीवन भर गुजरते हैं, पर समझ नहीं पाते कि असल में ये क्या है? कभी लगता जैसे टायर जल रहा हो. कभी लगता जैसे आग लगी हो. आसमान वैसा ही था जैसा दिल्ली का होता है. फिर भी कुछ ऐसा था जिसे दिल्ली के प्रदूषण के आदी हो चुके फेफड़े पचा नहीं पा रहे थे.
मीट ‘विकास’
विकास जब मुझे मिले तो उनके मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी. पास में ही देसी शराब का ठेका था और नजदीक से ही कई ट्रक गुजर रहे थे. विकास हमारे पास आये तो जरूर लेकिन माइक देखते ही वहां से कटने लगे. रोकने पर कहने लगे कि कोई गलत काम नहीं करते. पकड़वाइएगा मत. वहां पर कई दिनों बाद कोई माइक लेकर आया था.
विकास मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले के मोरवा में एक कोयला खदान के पास रहते हैं. वही सिंगरौली- भारत की ऊर्जा राजधानी. भारत की महारत्न कंपनियों नेशनल थर्मल पावर कार्परेशन (एनटीपीसी) और कोल इंडिया की सहायक कंपनी नॉर्दन कोलफील्डस लिमिटेड (एनसीएल) की कर्मभूमि. मध्यप्रदेश के खनिज विभाग के 36% राजस्व का केंद्र. जिसके रहवासियों को शिवराज सिंह चौहान सिंगापुर बनाने का वादा कर गए थे.
इसी कथित सिंगापुर में विकास कोयला बराबर करने का काम करते हैं. खदान से जब कोयला भरकर लाया जाता है तो विकास देखते हैं कि ट्रकों में कोयला कायदे से भरा गया है या नहीं. उन्हें हर ट्रक के 200 रुपये मिलते हैं. पहले कोयला ट्रक में लोड होगा. फिर विकास के पास आएगा. विकास उसे बराबर करेंगे. कम-ज्यादा करेंगे. फिर कोयला निकालेंगे-लादेंगे. कोयले के ऊपर रस्सी से तिरपाल बांधेंगे. फिर अगले ट्रक का इंतजार करेंगे.
विकास जब यह सब करते हैं तो उनके पास कोई सेफ्टी गियर नहीं होता. सेफ्टी गियर तो छोडिए मास्क भी नहीं होता. कोयला शरीर में धीरे-धीरे जाता है. सबसे मोटे कण गले और नाक में जमते हैं. फिर उससे छोटे यानि 10 से 2.5 मिमी के कण शरीर में अंदर तक जाते हैं. उससे छोटे कण फेफड़ों तक जाते हैं. 0.5 मिमी के कण सर्कुलेटरी सिस्टम में भी जाते हैं.
बात सिर्फ खदान में काम करने वाले लोगों की नहीं है!
सिंगरौली में भारत की सबसे बड़ी ओपन पिट माइन्स है यानि कि खुली खदानें. यहां झारखंड के कई खदानों की तरह सुरंग खोदकर कोयला नहीं निकाला जाता, बल्कि किलोमीटर में नापे जाना वाला गड्ढा खोदकर कोयला निकाला जाता है. सूखा कोयला यहां की आबोहवा का हिस्सा है. इन्हीं खदानों के पास ही रिहंद बांध है, जिससे पूरे इलाके के पानी में कोयला मिल जाता है. कोयला लादकर ले जाने वाले ट्रक ढंके होने के बावजूद जानलेवा हो जाते हैं. अधिकांश लोगों का कहना है कि एनसीएल अपने कर्मचारियों को तो सेफ्टी गियर और स्वास्थ्य सुविधांए देती है, पर बाकी लोगों की जान सिर्फ यहां पर रहने की वजह से जोखिम में होती है.
अब बोरिंग कहानी पर आते हैं
सिंगरौली में तीन चीजें आम हैं- विस्थापन, बेरोजगारी और जानलेवा प्रदूषण.
विस्थापन की शुरुआत तब हुई जब 1960 के आसपास रिहंद बांध बना. जिला सोनभद्र, यूपी. सिंगरौली के इलाके यूपी, झारखंड और छत्तीसगढ़ से सटते हैं. रिहंद बांध की वजह से तकरीबन 2 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा. इसके बाद से ही लगातार बांध, जलाशयों. कोयला खदानों, पावर प्लांट्स और कोयले के अवशेष के निवारण के लिए जमीनें ली गई. 1977 में एनटीपीसी ने सिंगरौली सुपर थर्मल पावर प्लांट बनाया. 1985 में एनसीएल ने दुधिचुआ में पहली खुली खदान की शुरुआत की. अब माइनिंग में रिलायंस, हिंडालको, एस्सार, जेपी और दैनिक भास्कर जैसी कंपनियां भी पीछे नहीं हैं.
जब जमीन गई तो लोग खेती से भी जाते रहे. खेती गई तो रोजगार भी चला गया. वायदा था कि जिसकी भी जमीन गई उस परिवार के एक शिक्षित सदस्य को रोजगार मिलेगा. एनसीएल ने दिया भी. प्राइवेट कंपनियों ने भी थोड़े-बहुत रोजगार दिए. पर इतने लोगों के खेत चले गए कि रोजगार क्रियेट करना नाकाफी रहा.
सिंगरौली के ही गांव पचौरी के रहने वाले अरविंद शुक्ला अपनी जेब में एक चिट्ठी लेकर घूम रहे हैं. अरविंद को अब तक न अपनी जमीन का मुआवजा मिला है, और न ही रोजगार. पिछले दिनों विधायक रामलल्लू वैश्य ने अरविंद जैसे नौजवानों को कलेक्टर के नाम जब रिकमंडेशन लेटर दिए, तो 4000 से भी अधिक लेटर देने पड़े. अब तक इनमें से ज्यादातर लोगों को नौकरी नहीं मिली है. एक स्थानीय निवासी बताते हैं कि बिना मुआवजा दिए ही उनकी जमीन को डंपिंग ग्राउंड बना दिया गया है. नौकरी भी नहीं मिली. पांच महीने से वो कलेक्टरेट के चक्कर ही काट रहे हैं. किराए के घर में रहने के लिए मजबूर हैं.
प्रदूषण इसलिए हुआ कि कोयला उड़ता है. खदान से भी उड़ता है और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की वजह से भी. कोयला निकालने के बाद लगातार खदानों में पानी का छिड़काव होना चाहिए, जो नहीं होता है. रास्ते पर छिड़काव की तो बात ही दूर. अगर आप कपड़े धोकर बाहर सुखा दें तो वे काले पड़ जाएंगे. अगर आप पानी पियेंगे तो उसमें आपको कोयले का स्वाद आएगा. सिंगरौली में ही जयंत प्रोजेक्ट के पास चाय की दुकान चलाने वाले महेश बताते हैं कि घर के खिड़की दरवाजे बंद होने के बावजूद भी इतना कोयला घर में आ जाता है कि दिन में कई बार साफ सफाई करनी पड़ती है. जब वो नहाने जाते हैं तो देह और सिर से सिर्फ कोयला ही निकलता है.
कोयला शरीर में जाने पर क्या होता है?
फिजिशयन्स फॉर सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोयले में मर्करी, क्रोमियम, सलेनियम, लेड, आर्सेनिक, बोरोन जैसे पदार्थ होते हैं. मर्करी से बच्चों को खासतौर पर खतरा होता है. उनका नर्वस सिस्टम डैमेज हो सकता है और उनका दिमागी विकास रुक सकता है. क्रोमियम शरीर में जाने से पेट और आतों का अल्सर, पेट में कैंसर हो सकता है. सेलेनियम से आखों की रौशनी जा सकती है, पैरालिसिस हो सकता है औऱ मौत भी. लेड से दिमाग में सूजन, किडनी की बीमारियां और कार्डियोवस्कुलर बीमारियां हो सकती हैं. आर्सेनिक से नर्वस सिस्टम डैमेज, यूरिनरी ट्रेक्ट कैंसर, और स्किन कैंसर हो सकता है. बोरोन से आतों, लिवर, किडनी और दिमाग को नुकसान होता है.
कोयले में यूरेनियम, थोरियम और अन्य रेडियोएक्टिव पदार्थ भी होते हैं जिनके वातावरण में जाने से कंटेमिनेशन होता है. कोयले की राख में रेडियम-226 और रेडियम-228 भी होते हैं जो कई महीनों तक फेफड़ों में रहते हैं और उसके बाद हड्डियों और दातों तक में जाकर जम जाते हैं.
मर्करी के घुलने से यहां का पानी जहरीला हो चुका है जिससे सैकड़ों की संख्या में बच्चों की मौत हो चुकी है. ऐसा नहीं है कि सरकार को इस बारे में जानकारी नहीं है. 90 के दशक में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च ने अपनी स्टडी में यहां के लोगों के खून, बालों और नाखूनों में बहुत अधिक मात्रा में मर्करी पाया. 2009 में जब पर्यावरण मंत्रालय ने ‘क्रिटिकल पॉल्यूटेड एरियाज’ की सूची जारी की तो उन 43 जगहों में से सिंगरौली एक था. अब इस बात को एक दशक होने को आया है, लेकिन सिंगरौली की हालत बद से बदतर ही हुई है.
आम लोगों को खनन और पावर प्लांट से फायदा नहीं
सिंगरौली के लोग यहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की वजह से जहरीली हवा में तो जी रहे हैं लेकिन इसकी वजह से उन्हें कोई फायदा नहीं होता. सिंगरौली अभी भी एक पिछड़ा इलाका है जहां पर अभी तक विकास नहीं पहुंचा है. माइनिंग और पावर प्रोजेक्ट्स के अलावा कोई और इंडस्ट्री नहीं आई है और न ही पर्याप्त रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं. अगर सिंगरौली इलाके के चिल्का डाढ़ गांव की हालत देखें तो ये बात साफ-साफ समझ आती है. ग्रीनपीस की रिपोर्ट ‘सिंगरौली: ए कोल कर्स’ के मुताबिक जब एनटीपीसी ने यहां के लोगों की जमीनें ली तो 600 लोगों के रोजगार देने की बात की थी, पर असलियत में 200 लोगों को ही नौकरियां मिली और वो भी चतुर्थ श्रेणी की. अब अधिकतर लोग दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करते हैं और वो काम मिलने की भी गारंटी नहीं है. वहीं, इस जगह पर रहना अब बेहद खतरनाक हो चुका है.
चुनावों से कुछ बदलेगा?
मोरवा के नजदीक ही एक कोयला खदान के बाहर रहने वाले शोभलाल सिंह गोंड बताते हैं कि उन्होंने पिछले 36 सालों से अपने इलाके में किसी प्रत्याशी को नहीं देखा है. बस एक बार एक जिला पंचायत सदस्य वहां तक आए थे. जीतने के बाद यहां आने की बात तो छोड़िए. यहां कोई वोट मांगने भी नहीं आता.
इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोगों का यह कहना था कि वो वोट वहीं पर डालते हैं जहां पर कुछ ठेकेदार और प्रभावशाली लोग उन्हें बताते हैं. इसके लिए चुनाव से पहले बकायदा प्रभावशाली लोगों की एक मीटिंग होती है, जिसके बाद आसपास के मजदूरों को किस प्रत्याशी को वोट डालना है यह बता दिया जाता है.
हम शोभलाल से पूछते हैं कि क्या चुनावों से कुछ बदलेगा?
“अब कोई आएगा तो कुछ तो होगा ही, कुछ तो बदलेगा ही. जिसको सब वोट देगा तो कुछ सोचकर देगा, हम भी उसी को दे देंगे.” शोभलाल कहते हैं.
हम उनसे पूछते हैं कि अगर वो बीमार पड़े तो क्या होगा?
“अगर पैसा है तो खर्च कीजिए, वरना एनसीएल वालों ने श्मशान घाट यहां पर फ्री में बनवा दिया है, लकड़ी यहीं बगल के जंगल से मिल जाएगी.”
पास में ही बैठे विकास शराब के नशे में बड़बड़ा रहे हैं, “हम पीते-खाते बहुत रहते हैं, लेकिन अपनी मस्ती में रहते हैं. हम किसी को गलत नहीं बोलते. मैं किसी गॉरमेंट का कुछ खाया नहीं हूं”.
इतने में एक ट्रक आता है और उसकी हेडलाइट की रोशनी में विकास और शोभलाल के चेहरे पर जमा कोयला चमकने लगता हैं. हम भी वहां से धीरे से निकलकर शहर की तरफ बढ़ जाते हैं…
1 Comment
Suraj kumar thakur November 20, 2018 at 9:56 am
काफी अच्छी ग्राउंड रिपोर्ट….जमीनी हकीकत से रूबरू करवाती हुई. झारखंड के कई कोयला खदानों में हालात इससे अलग नहीं है. धूल और धुंध में लिपटी विकास लोगों को लगातार निगल रहा है..