बिहार के नवादा जिले में कई टांड़ हैं. टांड़ बोले तो वैसी जगह जो ऊंचास पर हों. पानी जहां मुश्किल से पहुंचे. महुलियाटांड़ भी ऐसी ही जगह है. अपने बयानों के लिए सुर्खियों में रहने वाले सांसद गिरिराज सिंह के संसदीय क्षेत्र का एक गांव. भौगोलिक रूप से देखें तो महुलियांटांड़ को गिरीडीह (झारखंड) में होना चाहिए था. जहां जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष की बात कहीं अधिक तेज है. यानी एक ऐसा क्षेत्र जहां लोगों का जीवन, लोगों की संस्कृति, लोगों का खानपान, लोगों का जीविकोपार्जन सबकुछ जल-जंगल-जमीन पर निर्भर है.
यहां बच्चों का बचपना जंगलों में ही परवान चढ़ता है. जंगल से मवेशियों के लिए चारा मिलता है. जलावन के लिए ईंधन (लकड़ी) भी जंगल से ही मिलता है. एकाध लोगों को उज्जवला योजना का फायदा मिला है लेकिन उनके पास भी इतने पैसे नहीं होते कि वे इस योजना का फायदा उठा सकें. जंगलों से ग्रामीण पुरुष व महिलाएं महुआ चुनते हैं. पलाश के फूल चुनते हैं. उन्हें सुखाकर-बेचकर चंद पैसे कमाते हैं. उसी पैसे से दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं. मगर आज इन ग्रामीणों के जीविकोपार्जन का साधन ही इनसे छीना जा रहा है. यानी इनका जंगल इनके पहुंच से बाहर होता जा रहा है.
यहां यह बताना है कि महुलियांटांड़ की जमीन प्यासी है. कटते जंगल हैं और सूखते पोखर हैं. किसानों के खेत बर्बाद हो रहे हैं. किसान घाटे की वजह से पलायन कर रहा है. मजदूरी करने को मजबूर है. उसकी कोई सुनवाई नहीं है और यह स्थिति गोविन्दपुर, रोह, रुपसो, हिसुआ, रजौली, सिरदला, नरहट, नारदीगंज (सभी प्रखंड) के पंचायतों के भीतर सभी टोलों की है. गांव में जल-नल के पाइप तो पहुंची है लेकिन पानी नहीं पहुंचा. हमें देखकर मौके पर पहुंच गए जनप्रतिनिधि- ग्राम पंचायत सदस्य और उपमुखिया हमारे सवालों पर बगलें झांकने लगते हैं.
विदित हो कि अगर शासन-प्रशासन ने जल्द से जल्द इसका संज्ञान नहीं लिया तो वह दिन दूर नहीं जब नवादा एवं आसपास के इलाकों में जल युद्ध होगा. साल 2019 में यह बातचीत दूर शहरों में बैठे लोगों को काल्पनिक लग सकती है लेकिन इसे तय सी बात मानिए. राज्य के आंकड़े और सैटेलाइट की तस्वीरें इसी ओर इशारा कर रही हैं और चीख-चीखकर कह रही हैं कि जंगल बचाओ तभी जीवन बचेगा.
हालांकि सरकारों के एजेंडे में यह बात कहीं भी नहीं दिखाई देती. यहां यह बताना भी जरूरी है कि महुलियांटांड़ नवादा और जमुई लोकसभा के बॉर्डर पर बसा एक गांव है. गरही जलाशय से कोई एक किलोमीटर की दूरी पर बंसा गांव, मगर फिर भी पानी से मरहूम. जैसे नदी के किनारे रहने के बावजूद भी किसी को पानी न पीने दिया जाए. गांव के लोग किसी तरह गुजारा कर रहे हैं. खेत में फसल की बुआई तो होती है लेकिन कटाई नहीं हो पाती. सोचिए इस दर्द से तड़पता किसान अपनी व्यथा भी कहीं नहीं सुना सकता.
आज भले ही हम शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर गाड़कर तूफान से बचने की कोशिश कर रहे हों लेकिन यह हमें बहुत महंगा पड़ने वाला है. आखिर जब खेत ही नहीं बचेंगे तो फिर भारत कैसे बचेगा? इंडिया शाइनिंग कैसे होगा? चौकीदारों की कथित चौकीदारी कैसे बचेगी? क्योंकि भारत के लगातार चलायमान रहने के लिए खेत-खलिहानों, नदी-नालों-पोखरों और जंगलों की जरूरत होगी और वो तो हर बीतते दिन के साथ कम होते जा रहे हैं, हैं कि नहीं?
विडम्बना है कि भारत प्यासा है, आधे पेट सोने को मजबूर है, जंगल हर रोज कम हो रहे हैं मगर देश के चौकीदारी का ठेका लेने वाले इस पर विमर्श करने से कतरा रहे हैं. विमर्श के बिन्दु मेट्रो, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, 6 लेन-8 लेन सड़कें, एक्सप्रेस हाईवे और इनके लिए होने वाले जमीन अधिग्रहण हैं. ऐसे में सवाल उठने लाजमी हैं कि क्या भारत पश्चिमी देशों के भीतर जारी विकास के मॉडल को अपना सकता है? एक धड़े को छोड़कर दूसरे धड़े के लिए विकास की गंगा बहा सकता है? दुनिया के दूसरे देशों के पूंजी के विस्तार के लिए अपना श्रम मुहैय्या करा सकता है? इसके जवाब में शायद ही कोई हां कहे लेकिन अफसोस कि यह तमाम विमर्श चुनावी मुद्दा नहीं. कम से कम हमें तो लोगों से मिलते व बतियाते नहीं दिखता. आपको दिखता हो तो हमें भी संदेशा दें…