तू हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा. इंसान की औलाद है इंसान बनेगा. कभी हमारे देश में ऐसे गीत खूब देखे और सुने गए. गंगा-जमुनी तहजीब की बात हमें हमारे पुरखों ने सुनाई, लेकिन आज के दौर में एक टीवी चैनल पर बतौर पैनलिस्ट शामिल एक हिन्दू व्यक्ति चैनल के मुस्लिम एंकर को देखकर अपनी आंखें ढंक लेता है. जोमैटो से अपना भोजन ऑर्डर कर चुका एक हिन्दू व्यक्ति मुस्लिम डिलीवरी ब्वॉय देखकर अपना ऑर्डर कैंसिल करने पर तुल जाता है. पटना में एक गाय को कथित तौर पर किसी मुस्लिम शख्स के कुत्ते द्वारा काट लिए जाने से शुरू हुआ बवाल इस बात को देखने-सुनने के बाद थमता है कि कुत्ते का मालिक हिन्दू ही था. गोंडा का एक भोजपुरी गायक ‘जो न बोले जय श्री राम, उनको भेज दो कब्रिस्तान’ गीत गाकर एक झटके से खबरों में आ जाता है…
भाजपा के फायरब्रांड नेता गिरिराज सिंह लोकसभा चुनाव के दौरान एक चुनावी सभा में अमित शाह की मौजूदगी में कहते हैं, उनके बाप दादा तो यहां के थे. मुस्लिमों को तो दफनाने के लिए तीन हाथ जमीन चाहिए होती है. वंदे मातरम् न कहने पर यह देश उन्हें कभी माफ नहीं करेगा. भाजपा के एक नेता (छुटभैये) ने हाल ही में बयान दिया है कि मुस्लिमों का गाय पालना भी ‘लव जेहाद’ है. वे बकरियां पालें. झारखंड विधानसभा के बाहर का वो दृश्य किसे आपको याद ही होगा जब भाजपा के एक वरिष्ठ नेता व मंत्री कांग्रेस के विधायक से लगभग जबरदस्ती ‘जय श्री राम’ कहलवाने पर तुले हैं…
ये कुछ वाकये और बयान हैं जो दिखाने के लिए काफी हैं कि हम क्या से क्या हो गए देखते-देखते. कैसे वंदे मातरम और जय श्री राम देखते ही देखते उन्माद और सांप्रदायिकता के प्रतीक बन गए? कैसे हम एक नागरिक न होकर हिन्दू और मुसलमान में बंट गए? कैसे हम हलाल और झटके में बंट गए? जय श्री राम और नारा-ए-तदबीर में बदल गए? मेरी बात पर विश्वास न हो तो देश के सांसदों को शपथ लेते देखिए. वंदे मातरम के साथ ही जय श्री राम, मंदिर वहीं बनायेंगे, जय मां काली, अल्ला-हू-अकबर, जय मीम और न जाने क्या क्या देखने को मिल जाएगा. नहीं दिखेगा तो वो है जो खतरे में है- अब वो भी हम ही बताएं- कुछ आप भी मेहनत कर लीजिए…
अब जो आप सोच रहे होंगे कि ये क्या हम आज पोथी पलटने लगे तो आपको बताते चलें कि हमारी टीम के एक वरिष्ठ साथी हैं. गालिब खान. वरिष्ठ बोले तो बुजुर्ग. देश-प्रदेश को अपनी सेवा देने के बाद रिटायर. बीते से बीते रोज वे अचानक कहने लगे कि आप हिन्दू हैं. मेरे नजदीक खड़े व्यक्ति से भी कहा कि वे भी हिन्दू हैं. मैं दंग नहीं था. हम (Identity Crisis – पहचान की संकट) के दौर में हैं और (Identity Assertiveness – खुद पर) अधिक जोर दे रहे हैं. फिर भी अपनी आइडेंटिटी पर कही गई बात लगती तो है ही. मैंने बात को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश की. उनसे कहा कि चचा अब इसमें आपको सवर्ण और गैर सवर्ण भी जोड़ना होगा. बात सोचने वाली तो है ही कि आखिर एक बुजुर्ग शख्स के ऐसा सोचने और कहने की नौबत क्यों आई?
सवाल-दर-सवाल हैं लेकिन क्या हम वाकई सवालों के जवाब देना चाहते हैं? क्या हम हमेशा से ऐसे ही थे या फिर हम महज एक दौर से गुजर रहे हैं, जो बीत जाएगा? क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसा ही समाज छोड़ कर जाना चाहते हैं जहां बच्चे किसी से दोस्ती करने से पहले उसका धर्म व जाति जानना चाहें? क्या धर्म (जाति शामिल) के बगैर हमारी कोई पहचान नहीं होगी? रही सही कोर कसर को पूरा करने के लिए व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर जैसे संचार माध्यम तो मौजूद ही हैं…
लेकिन फिर मुझे व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर और खबरों की आगलगाऊ दुनिया के इतर जी रही दुनिया का ख्याल है. एहसास होता है कि दुनिया इतनी भी बुरी नहीं. दुनिया ऐसी भी है. किसी भी तरह की आइडेंटिटी क्राइसिस से परे. धर्मभीरूता से भी इतर. सांप्रदायिकता से भी इतर. जहां भाईचारा किसी तरह की कंडीशन्स के साथ नहीं आता. मुझे मधेपुरा में बी.पी. मंडल का मुरहो गांव याद आता है, जहां एक ही चौपाल पर ताश खेलने वाले सभी जाति-धर्म व सम्प्रदाय के लोग हैं. मुझे मुजफ्फरपुर के किसी गांव में गाय की किलनी निकालते मियांजी याद आते हैं, और फिर प्यासा फिल्म के गुरुदत्त गाते हुए याद आते हैं – तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया…