मैं और मेरा परिवार भी प्रवासी हैं। मेरे पिताजी राज्य सरकार की एक सेवा इकाई में कार्यरत हैं और अपना गांव छोड़कर हम लोग शहर-दर-शहर आगे बढ़ते रहते हैं (तबादले के कारण अभी तक हमारा परिवार 4 शहरों में रह चुका है, अभी पाँचवे शहर में है)। पर ये भी तो कितनी प्रिविलेज की बात है कि हम प्रवासी होने के बाद भी मजदूर नहीं हैं, एक निश्चित वेतन से बंधे हुए हैं जो कि हर महीने की 5 तारी को अपने आप बैंक अकाउंट में चली आती है। मेरी अंग्रेज़ी कमजोर है, ‘पार्डन’ की जगह “सॉरी” जैसे शब्द ही मेरे शब्दकोष का हिस्सा हैं और इसके लिए मुझे खुद पर कोफ़्त होती है। मैं अक्सर शिकायत करता हूँ, लेकिन उन प्रवासी मजदूरों के बच्चों का क्या जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है?
कठिन सवाल से साक्षात्कार!
इस कठिन सवाल से मेरा साक्षात्कार फिरोज़ाबाद में हुआ ,जहां मैं CAA/NRC के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में भड़की हिंसा के बाद “फैक्ट फाइंडिंग” के लिए गया था। फिरोज़ाबाद अपनी चूड़ियों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है, हालांकि चूड़ियां बनाने का यह काम काफी बारीक और पेचीदा है। फैक्ट फाइंडिंग के दौरान मैं कई ऐसी कांच के कारखाने में गया जहाँ 14-15 साल के लड़के कांच गलाने और उसे ढालने का काम कर रहे थे। (काँच गलाने का यह काम काफी जोख़िम भरा होता हैं और कई बार इसमें काम करने वाले लोगों की जान तक चली जाती है।) उनसे बात करने पर पता चला कि सभी अनपढ़ हैं और उनके परिवार भी। उन्हें बमुश्किल 100-150 दिन का मिलता है इसके लिए। इन दौरान मैं फिरोज़ाबाद के सुहाग मार्केट से सटे मेन रोड के ठीक किनारे एक दलित और मुस्लिम बस्ती में गया। मेन रोड खत्म होते ही और बस्ती शुरू होते ही सड़कें और नालियों जैसी बेसिक चीज़ें झटके से ख़त्म हो जाती हैं. घरों के बगल से और कई बार घरों के बीच से भी खुले में इंसानी मल दिखाई पड़ता है। इलाके में काफी घूमने के बाद एक लड़का मिला जो 10वीं पास था. वो भी पास के ही कांच फैक्टरी में मजदूरी करता था। आस पास पूछने पर पता चला कि पास में कोई सरकारी प्राथमिक स्कूल नहीं हैं और यदि होता भी तो बमुश्किल ही कोई जाता, क्योंकि मजदूर वर्ग को पेट पालने के लिए पैसे की जरूरत है जो कि उन्हें मजदूरी से मिलती है न कि स्कूल से।
सरकारों के कथित प्रयासों पर गहरा प्रश्न चिह्न!
यह चीज़ें अब तक के सभी सरकारों द्वारा किए गए कथित प्रयासों पर एक गहरा प्रश्न चिह्न छोड़ जाती हैं कि कैसे समाज का एक वर्ग अभी भी बेसिक जरूरतों जैसे पानी, शौचालय और स्कूल इत्यादि की कमी से जूझ रहा हैं। अलग-अलग पार्टियों के लिए ये महज वोटबैंक हैं और चुनाव के बाद इन्हें कोई पूछता तक नहीं। मुझे मेरे पसंदीदा फिल्मों में से एक “मसान” फिल्म में गाई गए एक गीत की दो पंक्तियां याद आती हैं। जो प्रवासी मजदूरों पर माकूल बैठती हैं। ( “नाचे होके फिरकी लट्टू” – “खोजे अपनी धुरी रे”)
जिनके दम पर चलती है अर्थव्यवस्था लेकिन कोई नहीं लेता सुध!
गौरतलब है कि ये मजदूर भी तो किसी न किसी के हाथों की कठपुतली ही हैं। चाहे वो ठेकेदार हों या विभिन्न सरकारें, लेकिन फिर भी इन्हें आज तक अपना ठिकाना नहीं मिल पाया है। पहले तो इन मजदूरों की किसी ने सुध ली नहीं तो ये पैदल ही चल पड़े और अब कर्नाटक, पंजाब और गोआ जैसे राज्यों ने बिल्डरों के दवाब में आकर प्रवासी मजदूरों के राज्य छोड़ने पर रोक लगा दी है। इन राज्यों का कहना है कि इन प्रवासी मजदूरों के जाने से उनकी अर्थव्यवस्था ठप पड़ जाएगी। अगर इन मजदूरों के दम पर अपनी अर्थव्यवस्था को परवान चढ़ाने वालों को इनकी इतनी ही चिंता रहती तो अभी तक हर तरह के मजदूर श्रम मंत्रालय के अंतर्गत पंजीकृत होते और उन्हें न्यूनतम श्रम मूल्य मिल रहा होता।
पक्ष और विपक्ष में कोई खास फर्क नहीं!
आज के समय में मुझे किसी भी सरकार/विपक्ष से इसको लेकर कोई अपेक्षा नहीं है। जो आज विपक्ष में हैं वे सरकार में जाते ही उन्हीं चंद उद्योगपतियों के अनुसार काम करने लगेंगे, जैसा कि आज की तमाम सरकारें कर रहीं हैं और यही लोग विपक्ष में जाते ही उन्हीं उद्योगपतियों, जिनके अनुसार चंद दिनों पहले वो सरकार में काम कर रहे थे,उनके खिलाफ़ कार्रवाई की बात करने लगेंगे। इस दो टके की राजनीति में पिस जाते हैं समाज के सबसे निचले तबक़े से आने वाले लोग। मिडिल क्लास तो फिर भी बदलावों और कथित विकास का हिस्सेदार बन जाता है। इन सबसे नीचे तबके के लोगों के पास वही चीज़ें पहुँच पाती हैं जितना कि मिडिल क्लास इस्तेमाल करके छोड़ देता हैं और यही कड़वी सच्चाई हैं।
सरकार के साथ ही हम-आप भी हैं दोषी!
यहां मेरा मकसद ये कहना बिल्कुल नहीं है कि सारा दोष सिर्फ सरकारों का है. ऐसा भी नहीं है। आप और हम भी इसके बराबर के दोषी हैं और इसमें हिस्सेदार भी। चाहे वो अपने घर पर किसी काम के लिए लाए गए मजदूर को कम पैसे देने का मामला हो या उससे तमीज से बात न करना हो। आज की दुनिया में नोएडा और गुड़गांव सरीखे शहरों को अपने खून पसीने से बनाने वाला हर प्रवासी श्रमिक अगर चाहे तो इन भेदभावपूर्ण रवैयों पर प्रतिक्रिया दे सकता है। पर फिर उसे याद आता है उसका परिवार और रात के खाने का इंतजार करते उसके बच्चे। हर बार वो इन चीज़ों को नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ता है, ताकि आप और हम इन गगनचुंबी इमारतों के किसी आलीशान फ़्लैट में अपने परिवारजनों के साथ आराम से सो पाएं।
पिछले कुछ दिनों से मजदूरों के अपने गांव-घर की और पैदल लौटते देख मन व्यथित है, पर बीते दो-तीन दिन पहले महाराष्ट्र में एक मालगाड़ी से कटकर 16 मजदूरों की मौत और पटरी पर बिखरी उनकी रोटियां देखकर दिल दहल गया है। ईश्वर सभी की आत्मा को शांति प्रदान करें और उन्हें सद्बुद्धि दें जो सरकार को गरीबों और फ़कीरों की सरकार होने का दावा करते हैं, यही कामना हैं।
यह आलेख ‘द बिहार मेल’ के लिए अविनाश ओझा ने लिखा है. अविनाश इन दिनों जेएनयू में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहे हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति आवश्यक नहीं है…