तटबंधों की संख्या बढ़ने के बाद भी बिहार में क्या बाढ़ के लिए तटबंध ही जिम्मेदार?

तटबंधों की संख्या बढ़ने के बाद भी बिहार में क्या बाढ़ के लिए तटबंध ही जिम्मेदार?

बिहार में एक कहावत है, जहर खाओ न माहुर खाओ, मरना है तो पूर्णिया जाओ. पूर्णिया बिहार का एक जिला है और ये कहावत कोसी नदी के संदर्भ में कही जाती है. ऐसा इसलिए कि पूर्णिया और उसके आसापास के कई जिले हर साल कोसी नदी का तांडव झेलते हैं. इस बाढ़ के कारण बिहार में सैकड़ों लोग हर साल मरते हैं, हजारों विस्थापित होते हैं, करोड़ों के जान-माल का नुकसान होता है. उत्तर बिहार से बाढ़ का नाता काफी पुराना है. उस इलाके की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे बाढ़ से बचाया नहीं जा सकता.

बिहार में बाढ़ लाने वाली नदियां

हिमालय से निकलने वाली करीब एक दर्जन नदियां नेपाल से होते हुए उत्तरी बिहार के इस इलाके में उतरती हैं. जानकार कहते हैं कि बाढ़ एक कुदरती परिघटना है, जिसे रोका नहीं जा सकता. मनुष्य के हित में यही है कि वह बाढ़ के मुताबिक जीना सीख ले लेकिन जब तकनीक से प्रकृति को जीत लेने का भरोसा इंसानों में कुछ ज्यादा ही भर गया तो नदियों को कंट्रोल कर बाढ़ रोकने के तरीके अपनाए गए. बहरहाल, पिछले पांचछह दशकों के अनुभवों ने यह भरोसा तोड़ दिया है. बांध और तटबंधों के जरिए बाढ़ रोकने की उम्मीद निराधार साबित हो गई है

बिहार में 1952 में बाढ़ प्रभावित इलाका 25 लाख हेक्टेयर था, 1994 में जब बाढ़ प्रभावित इलाके का आखिरी बार असेसमेंट हुआ तो ये बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया था. यानी लगभग तीन गुना के करीब. जाहिर सी बात है पिछले पांच  दशकों में बाढ़ नियंत्रण में अरबोंखरबों का जो कुछ भी निवेश किया गया वो फायदे की जगह नुकसान पहुंचा रहा है. जानकारों का कहना है कि बिहार में बाढ़ भुखमरी की एक बड़ी वजह जरूर है, लेकिन यह सिर्फ एक वजह है. सूखा और सामान्य स्थितियों में भी भुखमरी के हालात पैदा होते रहे हैं. इसका सबसे खास कारण भ्रष्टाचार है. भ्रष्टाचार ने बाढ़ और सूखा राहत को नेताओं, ठेकेदारों और बिचौलियों के लिये फायदेमंद उद्योग बना रखा है

मोटे तौर पर देखा जाये तो पश्चिम में घाघरा नदी से लेकर पूरब में महानंदा नदी तक उत्तरी बिहार का विस्तार है. किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार में बहने वाली नदी महानंदा नदी है. इसकी सहायक नदियां मेची और कंकई नदी है. इन नदियों के कारण लगभग हर साल इन ज़िलों में बाढ़ आती है. सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, पूर्णिया, अररिया, कटिहार के इलाकों तक कोसी नदी का पानी जाता है. ये ज़िले हर साल कोसी के कारण बाढ़ का दंश झेलते हैं, बिहार के यही इलाके यानी कोसी और पूर्णिया प्रमंडल के जिले बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. कमला बलान नदी मधुबनी के जयनगर के पास से नेपाल से भारत में प्रवेश करती है. इस नदी के कारण मधुबनी जिले में बाढ़ आती है

पश्चिम की तरफ बढ़ें तो दरभंगा, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, शिवहर में बागमती नदी बाढ़ लाती है. लाल बकैया और लखनदेई नदियां बागमती की शाखाएं हैं. बागमती, कमला बलान और बूढ़ी गंडक कोसी की सहायक नदियां हैं. गंडक और बूढ़ी गंडक नदियां बिहार के पश्चिम से बिहार में प्रवेश करती हैं. गंडक से बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, गोपालगंज, सिवान, सारण, वैशाली जिलों में पानी भर जाता है तो वहीं बूढ़ी गंडक नदी में जब बाढ़ आती है तो इससे बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर और बेगूसराय जिले प्रभावित होते हैं

ये सभी गंगा की सहायक नदियां हैं. ये सभी नेपाल से निकलकर उत्तर की तरफ से गंगा में मिलने वाली सहायक नदियां हैं. वहीं दक्षिण की तरफ से गंगा में मिलने वाली नदियों की बात करें तो इनमें प्रमुख सोन, पुनपुन और फल्गु नदी है. ये सभी नदियां अलगअलग जगहों पर आकर गंगा में मिल जाती हैं. बिहार में 35 ऐसी छोटीबड़ी नदियां हैं जो गंगा में मिलती हैं. गंगानदी बिहार के बीचोबीच होकर गुजरती है. गंगा के उत्तरी इलाके को हम उत्तर बिहार और दक्षिणी भाग को दक्षिण बिहार कहते हैं. मुख्य रूप से उत्तर बिहार के इलाके ही बाढ़ से ज्यादा प्रभावित होते हैं

सरकारी वेबसाईट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक उत्तर बिहार का 73 प्रतिशत इलाका बाढ़ प्रभावित है. पूरे बिहार के 38 में से 28 जिले बाढ़ झेलते हैं, जिनमें 12 से 15 जिले ऐसे हैं जहां हर साल बाढ़ आ ही जाती है. अगर मॉनसूनी बारिश ज्यादा हो गई तो मध्य बिहार के भी कुछ इलाके बाढ़ से प्रभावित हो जाते हैं. वहीं दक्षिण बिहार का इलाका सूखाग्रस्त है. यानी यहां पानी की समस्या है

दरअसल, बिहार की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि एक तरफ बिहार का उत्तरी भाग हर साल बाढ़ झेलता है तो वहीं कुछ ही सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित दक्षिणी बिहार के जिले जैसे गया, औरंगाबाद, नवादा, जमुई, बांका, शेखपुरा, सूखे से परेशान हैं. ये बिहार और बिहारियों का दुर्भाग्य ही ही है कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी बिहार के दो इलाके ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं, जो एक दूसरे को दूर करने की क्षमता रखते हैं. यानी अगर उत्तर बिहार की नदियों को दक्षिण बिहार की नदियों से जोड़ दिया जाता या बड़ी संख्या में नहर बना दिये जाते तो उत्तर बिहार में बाढ़ की समस्या और दक्षिण बिहार में सूखे की समस्या दोनों से निजात पाया जा सकता था. अब जाकर कहीं कोसी और मेची नदियों को जोड़ने वाली परियोजना के बारे में सोचा गया है.

क्या मानवीय हस्तक्षेप से और विकराल हुई बाढ़ की स्थिति

दशकों से नदियों और बाढ़ पर काम कर रहे इंजीनियर और बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि जब तक इन इलाकों में नदियों के बहाव में मानवीय हस्तक्षेप नहीं थे तब तक बाढ़ इतने विकराल रूप में नहीं आती थी. पहले भी बाढ़ आती थी लेकिन इसकी अवधि 15-20 दिन या एक महीने होती थी. उत्तरी बिहार का ये इलाका जल संसाधन के रूप में काफी समृद्ध है. हिमालय से निकल कर आने वाली नदियां अपने साथ हमेशा सिल्ट यानी गाद लेकर आती थीं. हमेशा आने वाली सिल्ट काफी उर्वरक होती है जो खेती के लिये भी उपजाऊ होती थी. साथ ही बाढ़ के समय नदियों का जो पानी एक बड़े इलाके में फैलता था. वो खेती की जरूरतों को भी पूरा करता था

पहले के लोग नदियों के साथ इसी समन्वय से रहते थे कि अगर बाढ़ के रूप में कुछ दिनों की परेशानी भी है तो उसे सह लेंगे लेकिन बाकी के 11 महीने खेती के लिये ये सारी चीजे काफी उपयोगी होती थीं.

फिर समय बढ़ा, खासकर आज़ादी के बाद से इन नदियों पर बराज और तटबंध बनाने का सिलसिला शुरू हुआ. तटबंध बनाने से नदी के प्राकृतिक रास्तों में कई विकृतियां पैदा हुईं. पहला ये कि नदी का जो पानी विस्तीर्ण इलाके में फैलता था अब वो एक सीमित दायरे में ही सिमटने लगा. इस दौरान जब पानी का दबाव ज्यादा हुआ और तटबंध टूटे तो बाढ़ ने विकराल रूप ले लिया. जैसे साल 2008 में नेपाल के कुसहा में तटबंध टूटने से इतनी भयंकर बाढ़ आई

इसके अलावा बराज और तटबंधों से नदियों के पानी रोके जाने के कारण इनमें गाद का जमाव होने लगा. बाढ़ नियंत्रण के तहत हम जो भी काम करते हैं, जैसे गंडक और कोसी बराज बनाकर पानी का रोका जाना उससे पानी तो रूक जाता है लेकिन उसके साथ बहकर आया हुआ गाद उस नदी के रास्ते में जमा होता चला जाता है, जिससे नदियों का रिवर बेड भरता जा रहा है और नदियां छिछली होती जा रही हैं

नदी का स्वाभाविक गुण है कि वो अपने कैचमेंट एरिया से पानी को बाहर निकालकर अपने से बड़ी नदी या समुंदर तक ले जाती है. इस दौरान अगर कोई अवरोध नहीं हुआ तो वो अपने साथ गाद भी बहाकर ले जाती है. नदी के पानी को रोके जाने की स्थिति में एक जगह पर अगर नदी का बेड लेवल ही ऊपर उठ जायेगा तो नदी प्राकृतिक रूप से काम नहीं कर पायेगी, क्योंकि बाढ़ के पानी को कंट्रोल करने के लिये तटबंध और बराज बना दिये गये हैं. पानी का दबाव ज्यादा होने के कारण तटबंध टूटेंगे और जो बाढ़ पहले बिल्ली की तरह आती थी वो अब शेर की तरह आयेगी.

नदियों में गाद की हालत 

आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन के मुताबिक हर साल नदियों की तली 5 इंच ऊपर जा रही है. कोसी नदी की बात करे लें तो इस नदी पर 1963 में तटबंध बनाये गये थे. यानी पिछले 50 सालों में कोसी नदी की रिवर बेड 250 इंच यानी 20 फीट ऊपर चली गई, जिस कारण से कोसी नदी में पानी धारण करने की जितनी क्षमता होती थी वो अब नहीं रही. डॉक्टर दिनेश मिश्रा कहते हैं कि नदियों के इस नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती है

तटबंध और बराज बना कर नदियों के पानी को रोके जाने और उसकी दिशा को मोड़े जाने के कारण कमोबेश उत्तर बिहार की लगभग सारी नदियों में गाद का जमाव हो गया है. पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर बना फरक्का बराज, भारतनेपाल सीमा पर कोसी नदी पर बना कोसी बराज, पश्चिमी चंपारण में गंडक नदी पर बना गंडक बराज के कारण इन सभी नदियों में अब गाद इतना भर चुका है कि अब इसे हटाना संभव नहीं है. एक तरह से कहें तो हमने नदी की कुदरती प्रणाली को बर्बाद कर दिया है.

उत्तर बिहार में मुख्य रूप से तीन बड़ी नदियों और इसकी छोटीछोटी सहायक नदियों से बाढ़ आती. इनमें सबसे ज्यादा घातक उत्तर पूर्वी बिहार में बहने वाली कोसी नदी है. इसकी सहायक नदियां बागमती, कमला, बलान और बूढ़ी गंडक हैं. वहीं उत्तर पश्चिमी बिहार में गंडक नदी के कारण बाढ़ की समस्या होती है. इन दोनों बड़ी नदियों के गंगा में मिल जाने के कारण बरसात के समय में गंगा का जलस्तर तेजी से बढ़ता है जिससे मध्य बिहार से होकर गुजरने वाली गंगा नदी में बाढ़ आती है.

इसमें कोई शक नहीं कि कोसी नदी का बहाव काफी अनिश्चित है. पिछले 250 सालों में कोसी नदी ने अपने बहाव मार्ग में 120 किलोमीटर का परिवर्तन किया है. नदी के पूरब से पश्चिम की तरफ खिसकने के कारण 8000 वर्ग किलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गई है. साल 1953 में भयानक बाढ़ आई. उसी से बने माहौल के बीच 1954 में कोसी परियोजना की रूपरेखा बनी. परियोजना पर काम 1959 में शुरु हुआ और 1963 में बराज और तटबंधों के जरिए नदी की दिशा बदल दी गई. बराज के आगे कोसी नदी की धारा को कंट्रोल करने के लिये दोनों किनारों पर तटबंध भी बनाए गए. नदी के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी तटबंध और पूर्वी किनारे पूर्वी तटबंध. ये तटबंध नेपाल और भारत दोनों देशों के इलाकों में हैं.

तटबंधों के निर्माण का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ!

इन तटबंधों का मकसद उत्तर बिहार और नेपाल में 2800 वर्ग किलोमीटर के इलाके को बाढ़ से बचाना बताया गया था. परियोजना को अपने बाकी उद्देश्यों में कितनी सफलता मिली, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन यह तो साफ है कि बाढ़ से बचाव के मकसद में कामयाबी नहीं मिली. तटबंध बनने के बाद भी भयंकर बाढ़ें आती रहीं. बराज में सिल्ट के जमाव के कारण जलस्तर बढ़ता जा रहा है. इससे बराज के टूटने का खतरा बना रहता है. कोसी नदी पर बने ये तटबंध अब तक 8 बार टूट चुके हैं.

साल 1963, यानी जिस साल तटबंधों का निर्माण हुआ उसी साल ये पहली बार टूटा. इसके बाद 1968 में यह 5 जगहों पर टूटा. फिर 1971, 1980, 1984, 1987, 1991 और फिर 2008 में नेपाल के कुसहा में ये तटबंध टूटा था, जब बिहार में भयानक बाढ़ आई थी और इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया गया था. पानी के प्रेशर के कारण तटबंधों में दरार का पड़ना जारी है. इसके अलावा पानी निकलने के रास्तों में जाम हो जाने और खेतों में पानी जमा होने जैसे इसके दूसरे दुष्प्रभाव भी सामने आए. नदी का तल पहले से ऊंचा हो गया और नदी के पानी के साथ उपजाऊ मिट्टी के कम आने की वजह से खेतों में पैदावार भी घटी. कहने का तात्पर्य यह है कि तटबंधों से बाढ़ की समस्या का हल नहीं निकला, बल्कि इनकी वजह से कई दूसरी समस्याएं सामने आ गईं.

कोसी नदी पर जो पूर्वी और पश्चिमी तटबंध बने हैं इनके बीच भारत में 386 और नेपाल में 34 गांव बसे हैं. भारत में करीब दस लाख और नेपाल में डेढ़ लाख की आबादी वहां रहती है. अगर ये तटबंध सलामत रहते हैं, तो तटबंधों के बीच रहने वाली 12 लाख की आबादी की परेशानी की वजह बनते हैं और अगर ये टूट जाते हैं तो इनके बाहर रहने वाली पांच लाख से लेकर 30 लाख तक की आबादी पर कहर टूट पड़ता है. तटबंध टूटने की हालत में कितनी आबादी बाढ़ की चपेट में आएगी, यह इससे तय होता है कि नदी कौन से रास्ते अपना लेती है लेकिन बर्बादी तो हर हाल में होती है.
कोसी नदी की तरह ही गंडक नदी पर भी बराज और तटबंध बनाये गये हैं. गंडक बराज जिसे हम वाल्मीकि बराज भी कहते हैं उसे साल 1959 में भारत और नेपाल के बीच हुये समझौते के तहत बिहार के वाल्मिकीनगर में बनाया गया था. इस बराज के कारण भी गंडक नदी में सिल्ट का जमाव बढ़ता जा रहा है. बिहार सरकार लगातार दावे करती है कि तटबंधों के निर्माण के कारण बाढ़ में कमी आई है लेकिन खुद सरकारी आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं.

पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर बने फरक्का बराज को भी बिहार में आने वाली बाढ़ का कारण बताया जाता है. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में गंगा नदी पर ये बराज साल 1975 में बनकर तैयार हुआ. इसका उद्देश्य भी गंगा नदी के पानी को कंट्रोल करना था लेकिन समय बीतने के साथ इस बराज के कारण भी गंगा नदी में सिल्ट का जमाव होता गया और गाद का ये जमाव इतना हो गया कि इसे बिहार में गंगा नदी से आने वाली बाढ़ का कारण बताया जाने लगा.

दरअसल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर कहते रहे हैं कि 1975 में फरक्का बराज के बनने के बाद से गंगा नदी में गाद की समस्या बहुत बढ़ गई है जिस कारण से बिहार में हर साल बाढ़ से तबाही होती है. यहां तक कि नीतीश कुमार इस बराज को तोड़ने की मांग भी कर रहे हैं. अपनी समस्या का हल किसी और की जम़ीन पर बताना बड़ा आसान है, वो भी तब जब बिहार की नीतीश सरकार भी वहीं काम सालों से बिहार में करती आ रही है. नीतीश कुमार जिस बराज के कारण गंगा में सिल्ट जमाव की बात कह रहे हैं वही काम बिहार में भी सालों से हो रहा है. अब कोई नीतीश कुमार से पूछे कि अगर फरक्का बराज से गंगा नदी में सिल्ट जमा हो रहा है तो क्या लगातार तटबंधों के निर्माण से ये समस्या कोसी और गंडक नदियों में नहीं आ रही है?

गाद के लिए आयोग बनाने की मांग

1950 में बिहार में नदियों पर तटबंधों की जो लंबाई 150 किलोमीटर के करीब थी वो अब बढ़कर 3700 किलोमीटर हो गई है. साफ है कि उत्तर बिहार में बाढ़ नियंत्रण के लिये तटबंधों पर सबसे ज्यादा भरोसा किया गया है. इन तटबंधों की मौजूदगी के बावजूद उत्तर बिहार में बाढ़ आती रही है. कभी नदी में तटबंधों की ऊंचाई से ज्यादा पानी भर जाने की वजह से, तो कभी तटबंधों के टूट जाने से लेकिन अलग-अलग समय में सरकारों का तटबंधों से भरोसा नहीं टूटा. हाल के दिनों में राष्ट्रीय गाद प्रबंधन नीति और इस गाद के प्रबंधन के लिये एक आयोग बनाये जाने की मांग काफी ज़ोर पकड़ रही है. इसके साथ ही ड्रेनेज कमीशन बनाये जाने की मांग की जा रही है जिससे अलग-अलग समय में अलग-अलग जगहों पर हुये जलजमाव की निकासी के लिये सही सुझाव मिल सके.

बाढ़ एक समस्या हैं. इससे ही मुक्ति दिलाने के लिये बांध और तटबंध बनाए गए लेकिन पिछले पांच दशकों का अनुभव यह है कि बांधों और तटबंधों ने बाढ़ से बचाव तो नहीं किया, बल्कि कई नई समस्याएं खड़ी कर दीं. बहरहाल, बांधों और तटबंधों का अस्तित्व अब एक हकीकत है. तटबंधों के जरिए बाढ़ रोकने की कोशिश दुनिया भर में नाकाम हो चुकी है. इसलिये अब इसके वैकल्पिक तरीके विकसित करने के प्रयास हो रहे हैं. जरूरत है कि बिहार सरकार भी नींद से जागे और तटबंधों से बाढ़ को रोकने का ख्वाब छोड़ दे.

यह ब्लॉग अविनाश कुमार सिंह ने लिखा है. इस आलेख से जुड़े कई अंश और जरूरी जानकारियां पत्रकार पुष्यमित्र के विभिन्न आलेखों से लिया गया है. हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक हैं और फिलहाल पत्रकारिता से जुड़े हैं. यह उनका ब्लॉग है. यहां लेखक के अपने विचार है, जरूरी नहीं है कि इसमें द बिहार मेल की सहमति हो.