हागिया सोफिया: दुनिया में सारे फैसले ‘भावनात्मक’ कहकर सही ठहराए जाएंगे

हागिया सोफिया: दुनिया में सारे फैसले ‘भावनात्मक’ कहकर सही ठहराए जाएंगे

तुर्की में हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदलने के बाद वहां पहली बार नमाज अदा करते हुए तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन की तस्वीरों पर दिल वाली इमोजी के साथ मैंने कई तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखी। इनमें से कुछ लोगों से वास्ता था तो सोचा कि इसे समझने की कोशिश करती हूं कि आखिर अपने ही देश में मुस्लिम अल्पसंख्यक होने की वजह से आए दिन प्रताड़ना, अविश्वास और कितना कुछ झेलने वाले मुस्लिम वहां राजनीतिक स्टंट और अल्पसंख्यक विरोधी फैसले से खुश कैसे हो सकते हैं?

हागिया सोफिया का निर्माण बाइज़ेंटाइन सम्राट जस्टिनियन-I ने छठी सदी में किया था।  1453 में फातिह सुल्तान मेहमद ने इसे कैथेड्रल से मस्जिद में बदल दिया। इसके बाद 1930 में मुस्तफा कमाल आतातुर्क ने इसे संग्रहालय में बदल दिया।

तो इसे समझने के लिए मैंने ऐसी ही तस्वीर लगाने वाली एक लड़की से बात की और उनसे सीधा यही सवाल किया तो उन्होंने कहा कि देखिए यह एक भावनात्मक पहलू है, जब यहां कोरोना वायरस के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, कुछ भी इधरउधर होने पर पूरे समुदाय को कठघरे में खड़ा किया जाता है, तो अगर कहीं से भी मुस्लिमों के लिए  अच्छी खबर आ रही है तो उसका स्वागत तो किया ही जा सकता है। जब मैंने उनसे पूछा कि लंबे समय से हिंदू समाज का एक बड़ा तबका भी बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को भावनात्मक मुद्दा ही बताता रहा था और अगर देखा जाए तो दोनों ही देश के इतिहास और दोनों देश के संबंधित स्थलों के विवाद में भले ही  फर्क हो लेकिन कहीं न कहीं दोनों विवाद एकदूसरे से मिलते जरूर हैं। तो उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है, हालांकि  उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कहा कि हां, यह एक तरह से पावर की लड़ाई है और यहांवहां दोनों ही जगह पावर की जीत हुई।

अब इन सभी चीजों पर बातें करने का भी मन नहीं करता क्योंकि लोग अपनी राय बना चुके हैं।इस बात पर मुझे आश्चर्य नहीं लगा कि बाबरी मस्जिद और हागिया सोफिया को लेकर तर्क और कुतर्क लगभग एक ही जैसे हैं , भावनात्मक मुद्दा, नेहरू ने गलत किया था, आतातुर्क ने यूरोप को खुश करने के लिए यह फैसला लिया था आदि, आदि। नेहरू और आतातुर्क कोई आलोचना से परे व्यक्ति नहीं हैं लेकिन मेरी दिलचस्पी यह जानने में है कि क्या हम इतिहास की गलतियों से सबक ले सकते हैं, उससे आगे बढ़कर नए की शुरुआत कर सकते हैं या फिर उसे मौजूदा समय के हिसाब से और विकृत कर सकते हैं, यह एक सवाल है और इसका जवाब कहीं की भी बहुसंख्यक आबादी को पसंद नहीं है क्योंकि सदियां गुजर जाए लेकिन भावनात्मक मुद्दा तो भावनात्मक ही रहता है।

हागिया सोफिया में नमाज अदा करते राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन 

तुर्की में एर्दोआन कई साल पहले खुद हागिया सोफिया को मस्जिद में बदलने की मांग के साथ नहीं थे लेकिन राजनीति में इंसान वोट के लिए कुछ भी कर सकता है। पिछले साल इस्तांबुल में मेयर का चुनाव हुआ था एर्दोआन की ओर से खड़े किए गए उम्मीदवार को विपक्षी उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा। यह चुनाव परिणाम स्वीकार नहीं किया गया, फिर से चुनाव हुए और इसमें भी एर्दोआन के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा। यह हार एर्दोआन के लिए बहुत बड़ा था और तबसे मीडिया से लेकर आलोचकों पर और ज्यादा नकेल कस दी गई।

तुर्की के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक ओरहान पामुक ने एक पत्रिका को वर्षों पहले दिए साक्षात्कार में जब कहा था कि 20वीं सदी में तुर्की में 30,000 कुर्द और एक मिलियन आर्मेनियाई लोगों की हत्या हुई तो उन्हें इसके लिए मुकदमा झेलने से लेकर क्याक्या न सामना करना पड़ा, यह नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक की बात थी, जो इस्लामिक नेताओं के हमले से फिर भी बच गए। लेकिन इतनी ज्यादा संख्या में लोगों की हत्या अभी के जिंदा लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दा नहीं बनता क्योंकि यह उनके वर्गीकरण वाले दायरे में नहीं आता है।

दुनिया में अमेरिका, यूरोप समेत अन्य देशों के प्रोपेगेंडा से कौन इनकार कर सकता है, लेकिन अपने हिसाब से हर चीज को प्रोपेगेंडा बता देना इंसान के अपने प्रोपेगेंडा को भी जाहिर करता है। भारत में कैसे कोरोना वायरस के प्रसार के लिए मुस्लिमों को दोष देने वाले सैंकड़ों वीडियो दिख गए, हालात ऐसे बना दिए गए कि किसीकिसी गांव में मुस्लिम समुदाय के लोगों के प्रवेश नहीं करने को लेकर पोस्टर तक लग गए, कुछ ऐसी ही स्थिति तुर्की में भी है। वहां भी इसको लेकर कहींकहीं ईसाईयों को दोष दिया गया। राष्ट्रपति एर्दोआन की मानें तो नमाज के दौरान हागिया सोफिया और उसके आसपास के इलाके में हजार नहीं लाख की संख्या में लोग मौजूद थे यह दिखाता है कि महामारी के दौरान एक राष्ट्रपति के लिए प्राथमिकता क्या है, लोगों की जान कोराजनीतिकधर्म के लिए खतरे में डालना

यह आलेख स्नेहा ने लिखा है. यहां व्यक्त विचार उनके हैं, जरूरी नहीं है कि इसमें द बिहार मेल की सहमति हो।