माह-ए-मुहर्रम: जब इमाम हुसैन ने यज़ीद की बादशाहत मंजूर करने के बजाय गर्दन कटाना मंजूर किया…

माह-ए-मुहर्रम: जब इमाम हुसैन ने यज़ीद की बादशाहत मंजूर करने के बजाय गर्दन कटाना मंजूर किया…

इस्लामिक हिजरी कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम का होता है। इसके 10वें दिन को यौमे अशूरा के तौर पर भी जाना जाता है। आज से 1,381 साल पहले कर्बला के मैदान में एक बड़ी ही अजीबोगरीब जंग लड़ी गई थी। इसमें एकतरफ क्रूरता की सारी हदें पार कर देने वाली यज़ीद की 22,000 से भी अधिक संख्या वाली एक संगठित सेना थी। तो वहीं दूसरी ओर पैगंबर मुहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन थे और इनके साथ बूढे़-बच्चों को लेकर कुल 72 लोग थे।

पैगंबर मुहम्मद के दुनिया से पर्दा लेने के बाद मुसलमान अलग-अलग गुटों में बंटने लगे। ऐसे में धीरे-धीरे उनके बीच आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आने लगे। इसे लेकर कई बार उनके बीच टकराव की स्थितियां भी बनीं। आपस में बहुत सारी छोटी-बड़ी जंगें भी हुईं। इनमें मुख्य रुप से जंगे जमल, जंगे सिफ्फिन एवं जंगे नहरवान का ज़िक्र आता है। हालांकि इन जंगों की वजह से कभी भी किसी एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के लोगों के खाने-पीने के ऊपर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। औरतों एवं बच्चों पर किसी तरह की बर्बरता नहीं की गई। जीत हासिल करने वाले पक्ष द्वारा दूसरे खेमे के लोगों और खास तौर पर बच्चे व महिलाओं को सही सलामत घर तक छोड़े जाने का ख्याल रखा जाता था।

हालांकि हमेशा ऐसा नहीं रहा। एक बार ऐसा हुआ कि अत्याचारी यज़ीद के बेरहम सिपाहियों ने कर्बला के मैदान में ज़ुल्म की इंतहा कर दी। इंसानियत को शर्मसार कर दिया। इमाम हुसैन एवं उनके साथ के लोगों पर पानी पीने तक पर पाबंदियां लगा दी गईं। तीन दिन तक भूख-प्यास से तड़प रहे लोगों को 61 हिजरी में 10 मुहर्रम के दिनों तक जंग के लिए मजबूर किया गया। इस्लामिक उसूलों एवं पैगंबर मुहम्मद की बतायी बातों का यज़ीदी लश्कर ने बिल्कुल ख्याल नहीं रखा।

यहां हम बताते चलें कि इससे पहले इमाम हुसैन के वालिद हज़रत अली के मुसलमानों का खलीफा बनने पर यज़ीद के पिता मुआविया ने शाम का गवर्नर रहते हुए बगावत का ऐलान कर दिया था। जाहिर तौर पर इसकी वजह से दोनों के बीच जंग भी हुई। जंग में अपनी हार तय देखते हुए मुआविया ने बड़ी चालबाजी से जंग को बीच में ही रोक दिया। अली से पूर्व के खलीफा ने मुआविया को शाम का गवर्नर नियुक्त किया था।

इस बीच नमाज़ पढ़ते हुए अली पर ज़हरीले तलवार से हमला किया गया। इसके ज़हर के प्रभाव से तीन दिन के भीतर अली की मौत हो गई। इसके बाद अली के बड़े बेटे इमाम हसन मुसलमानों के खलीफा बने। एक बार फिर मुसलमानों को दो गुटों में बंटता देख 6 महीने के अंदर ही हसन ने खलीफा का पद त्याग दिया और अपने नाना के दीन का सही संदेशा मुसलमानों तक पहुंचाने में जुट गए। इस बीच उन्हें भी ज़हर देकर मार दिया गया। मुआविया के साथ हुई संधि में इमाम हसन ने यह शर्त रखा कि अपने बाद किसी को अपना उतराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार मुआविया के पास नहीं होगा।

यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि मुआविया ने इन शर्तों को न मानते हुए बेटे यज़ीद को अपना उतराधिकारी घोषित कर दिया। इस बीच हसन के साथ मुआविया के बीच हुए समझौते की शर्त तोड़े जाने को गलत ठहराते हुए विरोध के सुर भी मजबूत होने लगे। विरोध को दबाने के लिए यज़ीद ने बड़ी बेरहमी से हर तरफ मुसलमानों का कत्लेआम शुरू कर दिया। शाम से लेकर मदीना, मदीने से मक्का एवं मक्के से कूफ़ा तक जासूसों का जाल बिछा दिया गया। जहां कहीं भी विरोध की आवाजें उठतीं, उन्हें फौरन कुचल दिया जाता। डर के मारे मुसलमानों ने इस मसले पर बात करना भी बंद कर दिया और अधिकांश लोगों ने सोने-चांदी, पद के लालच में एवं अन्य दूसरे लोगों ने डर से यज़ीद की अगुआई को कुबूल कर लिया।

इसके बाद यज़ीद ने पैगम्बर मुहम्मद के घर वालों एवं उनके सहयोगियों पर अपने मातहत आने के लिए षड्यंत्र रचा। उसे यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि इन लोगों पर न धन-दौलत का असर होगा और न ही किसी तरह की हिंसा के सामने ये घुटने टेकने से रहे। इसके बावजूद यज़ीद ने इमाम हुसैन के पास अपनी बादशाहत कुबूल करने का प्रस्ताव भेजा। हुसैन यह कहते हुए यज़ीद के प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं कि हम मुहम्मद के घर वाले यज़ीद जैसे किसी अत्याचारी एवं इस्लाम के उसूलों की धज्जियां उड़ाने वाले की बादशाहत मरते दम तक नहीं स्वीकारेंगे। अपना गर्दन कटाना मंजूर करेंगे लेकिन यज़ीद जैसे अत्याचारी के हाथ पर बैत नहीं करेंगे।

यहीं से शुरू होती है कर्बला के संघर्ष की बुनियाद…
यहीं से कर्बला के संघर्ष की बुनियाद खड़ी होती है। इस बीच कूफ़े से खबर आती है कि वहां हजारों लोग इमाम हुसैन के इस संघर्ष में साथ देने को तैयार हैं। हुसैन अपने चचेरे भाई मुस्लिम बिन अक़ील को कूफ़े की वास्तविक स्थिति समझने के लिए भेजते हैं। मुस्लिम के कूफ़ा आने की ख़बर पाकर गवर्नर अब्दुल्ला बिन ज़ियाद घर-घर तलाशी करवाता है। मुस्लिम का सहयोग करने वालों को जान से मार डालने की धमकी दी जाती है। अंततः मुस्लिम पकड़े जाते हैं और उन्हें शहीद कर दिया जाता है। उधर हुसैन अपने परिवार एवं सहयोगियों के साथ कूफ़ा जाने की ठान लेते हैं।

भारत में मुहर्रम की एक तस्वीर- उत्तरप्रदेश के किसी शहर से- (PC- hellotravel.com)

पहलेपहल वे मक्का जाते हैं। वहां कुछ और लोग उनके साथ हो लेते हैं। हज का समय होता है। अधिकतर लोग उन्हें कूफ़ा जाने से मना करते हैं और गिनती के कुछ लोग ही उनके साथ आने को तैयार होते हैं। 2 मुहर्रम को हुसैन का काफिला कर्बला पहुंचता है। यज़ीद के सिपाही उन्हें यहां से आगे जाने से रोक देते हैं। एक बार फिर यज़ीद के सिपाही इमाम हुसैन पर यज़ीद की बादशाहत कुबूल करने के लिए दबाव बनाते हैं। इमाम हुसैन अपनी बातों से न डिगते हुए यज़ीद से मिलकर बात करने की इच्छा जाहिर करते हैं। यज़ीद न सिर्फ हुसैन से मिलने से इनकार करता है बल्कि हुसैन और उनके सहयोगियों पर पानी पीने पर भी प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी कर देता है।

उसकी मानवीय संवेदनाओं के खात्मे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 7 मुहर्रम को कर्बला के बगल से गुजरने वाली दरिया फ़ुरात पर हजारों सैनिकों का पहरा लगा दिया जाता है। 3 दिन के भूखे-प्यासे हुसैन एवं उनके साथियों को युद्ध के लिए मजबूर किया जाता है। जब अपने 6 महीने के बेटे अली असगर को प्यास से तड़पता देख हुसैन से रहा नहीं जाता। तो वे बच्चे को गोद में लेकर पानी की आस में दुश्मन के खेमे की ओर जाते हैं। बच्चे की मासूमियत का हवाला देकर पानी की मांग करते हैं। उधर से बच्चे पर तीर से वार किया जाता है। तीर अली असगर की गर्दन को चीरती हुई हुसैन के बाजुओं में जा लगती है। अली असगर शहीद हो जाते हैं। अली असगर की शहादत पर रोते हुए ज़ख्मी हुसैन बेहोश होकर ज़मीन पर गिर जाते हैं।

फिर उठते हैं और अपने लड़खड़ाते कदमों से चलकर मासूम बेटे की लाश लेकर खेमे की ओर आते हैं। बीवियां यह दृश्य देखकर तड़पकर रोने लगती हैं। और फिर इसके बाद एकएक कर हुसैन का साथ देने वाले परिवार के सदस्यों में 18 वर्षीय पुत्र अली अकबर, भाई अब्बास, भतीजा कासिम(13 वर्ष), भांजे औन और मुहम्मद(10-12 वर्ष) के साथ कुछ सहयोगी भी अपनी शहादत पेश करते हैं। सबसे आखिर में हुसैन मैदान में आते हैं और लड़ते-लड़ते वे भी शहीद हो जाते हैं।

अंत में हुसैन के साथ आये महिलाओं में बहन ज़ैनब, बीवियों एवं परिवार के अन्य महिला सदस्यों एवं बीमार बेटे सज्जाद को बंदी बनाकर यज़ीद के दरबार में लाया जाता है। दरबार में मौजूद लोगों के बीच बड़ी बहादुरी से अपनी बात रखते हुए ज़ैनब अपने पिता अली के अंदाज़ में यज़ीद एवं उसके सहयोगियों की बर्बरता का पर्दाफाश करती हैं। अपना पक्ष मजबूती से रखते हुए कहती हैं कि कैसे यज़ीद एवं उसके साथियों ने इस्लामिक सिद्धांतों एवं उनके नाना पैगम्बर मुहम्मद के तालीम को दरकिनार करते हुए भय का माहौल बनाकर ज़ुल्म की सत्ता कायम की है। साथ ही उन्हें इस बात की हैरानी भी है कि उनके नाना के बताये रास्ते पर चलकर इस्लाम में दाखिल होने वाले आखिर इस्लाम के नाम पर यज़ीद की ये दरिंदगी देखकर खामोश कैसे बैठे रहे? ऐसी क्या बात थी जो लोगों को उनकी मदद के लिए आगे आने से रोकती रही?

अल्लाह भी अपने दीन पर ईमान लाने वालों से बार-2 कुरान में यह हुक्म देता है कि ऐ ईमान वालों अल्लाह से डरो और हर हाल में सच्चे लोगों का साथ देने के लिए खड़े रहो। अच्छी तरह यह बात जानते हुए कि हुसैन के साथ खड़े होने पर मौत निश्चित है। ऐसे में 72 लोगों का हुसैन पर अपना सब कुछ कुर्बान करना यह साबित करता है कि इतने लोगों तक हुसैन अपने नाना के दीन का सही पैगाम पहुंचाने में सफल रहे थे।

एक तरफ जहां इमाम हुसैन इस लड़ाई में बिल्कुल असहाय दिख रहे हैं। तो वहीं दूसरी तरफ यह उनकी शख्सियत का जादू ही है कि इन मुश्किल हालात में भी ये 72 लोग कंधे से कंधा मिलाकर आखिरी सांस तक उनका साथ निभाते रहे।

अंत में इतना ही कहना है कि इमाम हुसैन एवं कर्बला की ट्रैजिडी पर पहले ही बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है और आगे भी लिखा-पढ़ा जाता रहेगा। ऐसे में वसीम बरेलवी का यह शेर इमाम हुसैन के विश्वास व मजबूरी को बखूबी बयां करता है-

क्या दुख है समंदर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आंख में आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तेरी क्या
हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता ।।

 


यह आलेख ‘द बिहार मेल’ के लिए शाहनवाज़ आलम ने लिखा है. शाहनवाज़ ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की है. बिहार के रहने वाले हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी जानकारी व सूचना अथवा व्यक्त किए गए विचार ‘द बिहार मेल’ के नहीं हैं, तथा ‘द बिहार मेल’ इसके प्रति किसी भी तरह उत्तरदायी नहीं है…