हुए मर के हम जो रुस्वा…

हुए मर के हम जो रुस्वा…

मेरे नज़दीक़ दिल्ली की वजह इम्तियाज़ इसके सिवा कुछ नहीं कि यहाँ ये शायर-ए-नमनाक दफ़्न है। हालाँकि ग़ालिब से उल्फ़त रखने वाला मैं अकेला ही तो नहीं। ख़ुद गालिब ने कहा था-
“होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को ना जाने ?”

मेरे बहुत से दोस्त हैं जिनका ताल्लुक़ इस मुल्क से नहीं। या ऐसे भी हैं कि जो मुल्क के दूसरे गोशों में रहते हैं। कि कभी दिल्ली ना आ सके। वो अहबाब-ए-गै़र बड़े तजस्सुस से पूछते हैं कि क्या आप ग़ालिब के शहर से आए हैं ? क्या वहाँ ग़ालिब को ख़ूब पढ़ा जाता है ? आप तो अक्सर ग़ालिब के मज़ार पर जाते होंगे ? मज़ार पर मेले लगते होंगे….!!

हत्ता कि वो अपने ज़हन-ओ-गुमान की बुनियाद पर क़यास-आराईयाँ करते जाते हैं। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता हूँ ? कि मैं उस दिल्ली में रहता हूँ कि जिसने कभी अपने शोअरा की क़द्र ना जानी। जहाँ हिन्दुस्तान के इस अज़ीम शायर का निशान अब बेनिशान हुआ चाहता है। एक हद्द-ए-मुद्दत तक उसके घर में चूना पत्थर बिकता रहा। अगर एक फ़र्द-ए-ख़ास ने ज़ाती तवज्जोह ना दिखाई होती तो आईंदा नस्लों में उस हवेली को भी कोई ना जानता।

ग़ालिब की मजार का एक कोना…

अमूमन आख़िरी आरामगाह यानी (मज़ार) सबसे बड़ी निशानी माना जाता है। दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में वाक़ए है। चार दिवारी भी है। पत्थर भी लगा है। मगर इस हाल में कि ग़ाज़ीपुर मण्डी का कूड़ा घर नज़र आता है। जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे हैं। अफ़ीमची और चरसीयों का ठिकाना है। कहने को महकमा-ए-आसार-ए-क़दीमा की निगरानी में है। एक गार्ड भी रख छोड़ा है। मगर सूरत-ए-हाल ये हैं कि नशाखोरों और जुआरियों का कब्ज़ा है।

इसी दिल्ली में एक अजीमुश्शान ग़ालिब इंस्टीट्यूट है। ग़ालिब ही के नाम पर एक अकादमी अलग है। उर्दू अकादमी अलग। NCPUL और अंजुमन तरक़्क़ी-ए-उर्दू जैसे इदारे अलग। अच्छी तनख़्वाह पाने वाले अफ़सरान हैं। ख़ूब कमाईयाँ करने वाली प्रॉपर्टियाँ हैं। इसी शहर में उर्दू के नाम पर दुनिया की सबसे बड़ी मेहफ़िलें सजती हैं। करोड़ों रुपये के स्पॉन्सर्स जमा होते हैं। उन मेहफ़िलों का हाल ये है कि अगर ग़ालिब का नाम भी आ जाए तो हज़ारों नौजवानों का मजमा झूम उठता है। आलम ये भी है कि ग़ालिब के नाम पर होने वाले कुछ इवेंट्स में टिकट भी लगने लगा है। इन सबके अलावा दिल्ली मुल्क भर के तमाम बड़े पब्लिशरों का शहर है। मगर अल्मिया ये है कि किसी को इतनी तौफ़ीक़ नहीं कि जो जाकर इस निशाने-ए-ग़ालिब की ख़बर ले।

ऐसा नहीं है कि ये हाल सिर्फ़ अभी हुआ है। बल्कि एक अरसे-दराज़ से इस मज़ार का यही हाल है। लोगों ने शिकायतें भी कीं। कुछ ना हुआ। सुना है ASI से किसी तंजीम ने निगराँ बनाया है। मगर इसकी हालत नहीं सुधरती।

मैं अमूमन मज़ारों और दरगाहों पर नहीं जाता। मगर ग़ालिब के मज़ार से एक रग़बत है। मैं अक्सर यहाँ जाता हूँ। ग़ालिब के कुछ अशआर बा-आवाज़-ए-बुलंद भी पढ़ता हूँ। घंटों गुज़ारता हूँ। कि ये मेरे पीर का मज़ार है।

कि मजार के कैंपस में कहीं नहीं दिखती सफाई…

अदब वालों, हो सकता है कि ये काम आपकी नज़र में कोई मायने ना रखता हो। मगर मुझे लगता है कि इस जगह को लेकर हमारी कुछ ज़िम्मेदारियां हैं। आगे आईये ! और अगर मुनासिब समझें तो इस आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाएँ।

कोई मायने नहीं रखता कि उस जगह पर किस महकमे का कब्ज़ा है। ना इस बात की कोई हैसियत है कि उस जगह को लेकर हुकू़मत की क्या पॉलिसियाँ हैं। ये आपकी जगह है। आपके ग़ालिब की जगह। ज़िम्मेदारियाँ आपकी हैं। हुकूमत आपसे है।

मैं अगले कुछ रोज़ इस पर मुसलसल लिखना चाहता हूँ। आप भी लिखें। और सिर्फ़ लिखें ही क्यों, इसके लिए आगे बढ़ कर काम करने की ज़रूरत है। ये मुहिम आपके तआव्वुन के बिना मुमकिन नहीं।

– शुऐब शाहिद –

तस्वीर: सिब्तैन शाहिदी