तीन केन्द्रीय कृषि कानूनों का मसला आज-कल चारों तरफ बहस के केन्द्र में है. चाहे सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म हों या फिर टेलीविजन पर चलने वाली डिबेट. ऐसे में एक टेलीविजन चैनल पर चलने वाली डिबेट के दौरान जब एंकर ने समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता सुमैया राणा से यह सवाल पूछा कि कृषि कानूनों में कहां झोल है, तो वह फोन पर गूगल सर्च करने लगीं. तब से ही न सिर्फ उनका और उनकी पार्टी का मखौल बन रहा है बल्कि भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी चुटकी ली.
दरअसल, टीवी डिबेट की शुरुआत में एंकर ने सुमैया से पूछा कि इस देश के लिए मिया खलीफा और रिहाना जरूरी हैं या फिर अक्षय कुमार, अजय देवगन और करण जौहर? एंकर ने आगे कहा कि किसान आंदोलन का एजेंडा अब एक्सपोज हो रहा है. जिस पर सुमैया राणा बोलीं कि बाहर के लोग इस पर रिएक्ट करें, ये उन्हें अच्छा नहीं लगा. उनका कहना था कि नजर का तीर जिगर में रहे तो अच्छा है, ये बात घर में रहे तो अच्छा है.
इसके बाद उन्होंने गणतंत्र दिवस पर हुई घटना को लेकर कहा कि सरकार विवादित कृषि कानून को वापस नहीं ले रही है, इसलिए ये सब हो रहा है. सुमैया की इस प्रतिक्रिया के बाद टीवी एंकर ने उनसे कृषि कानूनों के भीतर होने वाली आपत्तियों से जुड़ा सवाल किया. ऐसे में सुमैया मौके पर ही अपने फोन में गूगल सर्च करने लगीं. सुमैया के ऐसे करने पर भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने उनकी चुटकी ली.
कौन हैं सुमैया राणा?
सुमैया नागरिकता संसोधन कानून (सीएए ) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान खासी सुर्खियों में रहीं. वह उर्दू के मशहूर शायर मुनव्वर राणा की बेटी हैं. सुमैया ने सीएए के खिलाफ उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में घण्टा घर के पास प्रदर्शन किया था. तब उनकी तमाम गतिविधियां उत्तरप्रदेश की योगी सरकार को नागवार लगी थीं.
यहां हम आपको यह भी बताते चलें कि उत्तरप्रदेश में अगले वर्ष यानी कि साल 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में सुमैया ने समाजवादी पार्टी से अपनी राजनीति पारी की शुरुआत की है. सपा मुखिया अखिलेश यादव की मौजूदगी में लगभग एक महीने पूर्व ही वह पार्टी की सदस्य बनी हैं.
पहले भी नहीं बता सकी थीं वैक्सीन का नाम-
हालांकि सुमैया के लिहाज से यह पहला मौका नहीं कि वह टीवी डिबेट के दौरान फंसी हैं. कोविड वैक्सीन से जुड़े डिबेट में भी वह वैक्सीन का नाम नहीं बता सकी थीं. भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया ने सुमैया से वैक्सीन का नाम बताने को कहा था और वह तब भी बगलें झांकने लगीं थीं. वह तब न वैक्सीन का नाम बता पाईं थीं और न निर्माता कंपनियों के बारे में ही उनके पास कोई जानकारी थी.
अंत में यह जरूर कहना है कि टीवी चैनलों की बहसों ने वास्तविक मुद्दों को गौण करने में अजीब सी भूमिका अदा की है. जहां तमाम पैनलिस्टों को हम एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते अधिक पाते हैं, बजाय इसके कि वे जनता को कुछ जरूरी जानकारी दे सकें…