क्या किसान आंदोलन की तह में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के संकेत दिख रहे हैं?

क्या किसान आंदोलन की तह में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के संकेत दिख रहे हैं?

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों की लड़ाई दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमा से होते हुए देश के कई हिस्सों में पहुंचने लगी है. इस आंदोलन की अगुवाई भारतीय किसान मोर्चा के नेता राकेश टिकैत कर रहे हैं. बीते कई दिनों से राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश हरियाणा के कई हिस्सों में बुलाए गए किसान महापंचायत में शामिल हो रहे हैं. क्या इस आंदोलन से तीन कृषि कानूनों की वापसी होगी, यह तो वक्त बताएगा.लेकिन इस आंदोलन की तह में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के संकेत भी दिख रहे हैं.

बदल गई है आंदोलन की दशा और दिशा

किसान आंदोलन चलने को तो पिछले 60 से ज्यादा दिनों से चल रहा हैं. लेकिन 26 जनवरी प्रकरण के बाद आंदोलन का रंग पहले से गाढ़ा नजर आ रहा है. अब सिंघू, गाजियाबाद, और हरियाण के कई बॉडरों के साथ किसानों की मजबूती महापंचायत में भी दिखने लगी है. महापंचायतों में जुटने वाले किसानों की तादाद काफी देखी जा रही है. दरअसल में यह किसानों की नई रणनीति है, जहां वे महापंचायतों के जरिये ऐसे किसानों को जोड़ रहे हैं, जो कृषि कानूनों के खिलाफ हैं. लेकिन अबतक आंदोलन में शामिल नहीं हो सके हैं. मुजफ्फरनगर, मथुरा, जींद और कई इलाकों में हुए महापंचायत इस बात की तस्दीक करने लगे हैं कि अब किसान आंदोलन अपने पुराने अंदाज़ से अलग हो चुका है.

किसान महापंचायत

महापंचायतों के होने के क्या है मायने

जहां-जहां महापंचायत का आयोजन हो रहा है, वहां किसानों का हुजूम साफ देखने को मिल रहा है. दरअसल में इन महापंचायतों के इन इलाकों में होने का भी कारण है. ये वो इलाके हैं, जहां के लोगों की निर्भरता खेती- किसानी है. किसान आंदोलन अब अपनी पहुंच खेती- किसानी से जुड़े हर आखिरी आदमी तक कर रही है. महापंचायतों में आए हर किसान को यह निर्देश दिया जा रहा है कि वो महापंचायत के निर्णय को अपने टोले-जवार में बताते चले. महापंचायत के इस कदम से कृषि कानूनों के खिलाफ गांव-गांव तक माहौल बन रहा है. महापंचायत होने से जो लोग अबतक आंदोलन में शामिल नहीं हो पाए थे, अब वो भी आंदोलन के लिए दिल्ली से जुड़े हुए सीमा पर पहुंच रहे हैं.

क्या आंदोलन सामाजिक बदलाव भी लाएगा?

पिछले कुछ सालों में समाज में धार्मिक आधार पर विभाजन की लकीर साफ दिखने लगी है. जनता एक-दूसरे की पहचान धार्मिक आधार पर करने लगे लेकिन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जिस तरह की एकजुटता देखने को मिल रही है. वो सामाजिक जुड़ाव को भी प्रदर्शित करता है. इस एकजुटता की वजह धर्म से अलग होकर एक सरीखे काम करने वाले लोगों की बन रही है. जहां पर लोग धर्म से अलग हटकर वर्ग की पहचान बना रहे हैं इस आंदोलन की वजह से लोग कृषक वर्ग बनकर समाज मे सामने आ रहे हैं. इस आंदोलन ने न केवल नागरिक अधिकारों की चेतना को जगाया है,बल्कि दंगों के बाद समाज में आई सांप्रदायिक कड़वाहट को भी कम करने का काम कर रही है. इलाके के लोगों में फिर सामाजिक सौहार्द्र स्थापित होने लगा है. साल 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से कई पंचायतें बंट गई थीं. मुस्लिम भारतीय किसान यूनियन से अलग हो गए थे. लेकिन राकेश टिकैत के समर्थन में हो रही पंचायतों में अब फिर से सभी एकजुट हो रहे हैं. इसमें कमरूद्दीन और परगट सिंह फिर से एकसाथ नजर दिख रहे हैं. किसानों का कहना है कि अलग-अलग राजनीतिक दलों में बंटे लोग अब पंचायत की वजह से एक हो रहे हैं.

टिकैत,जयंत चौधरी और मोहम्द जौला (तस्वीर स्त्रोत- एशियाविल)

क्या किसान आंदोलन से राजनीतिक उलटफेर की बन रही है संभावना

साल 2010 के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिकता की आंच धीरे धीरे तेज हो रही थी. 2013 में हुए महापंचायत के बाद सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण साफ दिखने लगा था. इन इलाके में कई जगहों पर दंगे हुए.  दंगों में किसान संगठनों के कई नेताओं के नाम पर प्राथमिकी दर्ज हुई थी. इन नामों में राकेश टिकैत का नाम भी था. उनकी भूमिका भी तब संदिग्ध मानी गई थी. तब इन इलाकों में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का राजनीतिक दबदबा वाला क्षेत्र माना जाता था. लेकिन दंगों के बाद इन क्षेत्रों की राजनीति बदल गई. जिसके बाद इन जगहों पर भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) की एंट्री हुई. यह एंट्री इतनी जबरदस्त थी कि किसान नेता के तौर पर पहचान रखने वाले चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभालने वाले नेता अजित सिंह भी बीजेपी से हार गए. लेकिन आठ साल बाद मुज्जफरनगर नगर में हुए महापंचायत में राकेश टिकैत के साथ गुलाम मोहम्मद जौला भी मौजूद थे. गुलाम मोहम्मद जौला साल 2013 के दंगों के बाद पहली बार राकेश टिकैत के साथ मंच साझा कर रहे थे.

यहां हम आपको बताते चले की गुलाम मोहम्मद जौला भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) की स्थापना से ही महेंद्र सिंह टिकैत के साथ थे. लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद इनके रास्ते अलग हो गए.  जौला ने इसके बाद भारतीय किसान मजदूर मंच का गठन किया.  दंगों में कम से 62 लोगों की मौत हो गई थी और 50,000 से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए थे.  द हिंदू की खबर के मुताबिक 29 जनवरी को मुजफ्फरनगर में महापंचायत में नरेश टिकैत ने दो बातों के लिए माफी मांगी. एक रालोद अध्यक्ष अजित सिंह के खिलाफ 2019 में वोट करने के लिए और दूसरा मुजफ्फनगर दंगे के दौरानमुस्लिम भाइयों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरनेके लिए.

गुलाम मोहम्मद जौला और राकेश टिकैत
(तस्वीर स्त्रोत- पल पल न्यूज)

वहीं भावुक होते हुए जौला ने कहा, ‘ ‘मैंने महेंद्र के साथ 27 साल तक काम किया. राकेश और नरेश मेरे बेटे जैसे हैं लेकिन उन्होंने 2013 से  गलत रास्ता पकड़ लिया.  नरेश ने जब माफी मांगी और जयंत ने मेरे पैर छुए तो उम्मीद है कि दंगे के घाव भर जाएंगे. महापंचायत में शामिल एक लाख किसानों में से कम से कम 30,000 मुस्लिम हैं.’’

इस दौरान चौधरी चरण सिंह के पोते और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी भी मंच पर थे. मंच की यह तस्वीर राजनीतिक बदलाव की तरफ इशारा करती है क्योंकि इस इलाके के लोगों पर इन तीन नेताओं की छाप अबतक बनी हुई है.

गौरतलब है कि बीते विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में ये तीनों नेता अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों में अपना भविष्य तलाश रहे थे. लेकिन किसान आंदोलन के बहाने राकेश टिकैत, गुलाम मोहम्मद जौला और जयंत चौधरी की समीपता एक बड़े राजनीतिक बदलाव की इबारत लिख रहे हैं. अब आगे क्या होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है. लेकिन वर्तमान का दृश्य तो यही कह रहा है.