बोसे लेने की तमन्ना में थे ख़ाक स्याह।
वही हसरत ज़दा अब निकले हैं बनकर तरबूज़॥
~नजीर अकबराबादी
जेठ की इस तपती दोपहरी में जब हम लू की लहर से बचने के लिए तरबूज की ओर शीतलता की उम्मीद से देखते हैं, तो उस दौरान इसी धूप में नदी की रेत पर खेत में तपते तरबूज किसानों का जलता हुआ खून–पसीना हमसे नज़रअंदाज हो जाता है. जिस तरबूज को खरीदने में हमारी आंख निकलती है उसके लिए इन किसानों को पैकारों से बहुत ही न्यूनतम मूल्य मिलता है.
विडंबना यह है कि इन किसानों पर हर तरफ से मार पड़ती है. कभी–कभी तो बीज खरीदने तक में इनके साथ धोखा हो जाता है और फसल मारी जाती है. दुबारा बुवाई की सारी प्रक्रिया से फसल इतनी पिछड़ जाती है कि बाढ़ की चपेट में आ जाती है और लागत गंडक की लहरों के नाम हो जाती है, खैर इस बार तो फसल पर पत्थर की भी मार पड़ी है.
खाद और मजदूर मिलने की समस्या
एक समस्या खाद की भी है. इलाके में लोगों के पलायन से मवेशिओं की कमी हो गयी है, जिससे इन्हें पर्याप्त मात्रा में खेतों में डालने के लिए जैविक खाद नहीं मिल पाता. ऐसी स्थिति में किसान मुर्गी फार्म से महंगे दामों में बीट लाकर खेतों में डालते हैं. चूँकि इस फसल की बुवाई से फलों के ढोआई तक, बहुत ही ज्यादा मात्रा में मैन पावर (श्रम शक्ति) लगता है तो पलायन की वज़ह से मजदूर मिलने में दिक्कत आ रही है और बढ़ती हुई मजदूरी की दर भी किसानों की परेशानी का सबब है.
लोगों की कमी और दियरा इलाके में पर्याप्त आवाजाही नहीं होने से नीलगाय, घोड़परास, बनैला सूअर आदि दिन–ब–दिन अनियंत्रित होते जा रहे हैं, जिनसे दिन–रात फसल को बचाना किसानों के लिए भारी समस्या हो गयी है. मुस्तैदी में हुई थोड़ी बहुत कमी भी फसल बर्बाद होने का कारण हो जाती है.
तिसपर से गर्मी आने पर लोग खुली जगह देख अपनी गाय–भैंस उधर चरने के लिए हांक देते हैं. दियरा इलाके में तरबूज के खेत की हरियाली और आस–पास पानी की मौजूदगी देख आवारा मवेशी खेतों में बार–बार आने को आतुर रहते हैं. पशुओं की यह आवाजाही भी किसानों को हलकान किये रहती है .
फसल तैयार होने तक विभिन्न तरह की बीमारियों और कीड़ों का प्रकोप भी बहुत होता है, जिनसे बचने के लिए समय–समय पर कीटनाशकों का छिड़काव करना होता है जो बहुत महंगा मिलता है. बीज और कीटनाशक विक्रेता कम्पनियों का मनमाना रेट भी इनकी लागत में इजाफा करता है.
स्थानीय मंडी में तय होता है तरबूजे का भविष्य:
तरबूज का मूल्य स्थानीय मंडी में इसकी उपलब्धता के आधार पर ही तय होता है .दिल्ली के आजादपुर या गाजीपुर मंडी या फिर फ्लोरिडा के किसी मंडी में तरबूज के डिमांड का यहाँ के बाज़ार पर कोई असर नहीं होता. यहाँ सब स्थानीय आढ़तों के स्तर पर ही तय होता है. अगर ज्यादातर फसल अच्छी और उत्पादन बम्पर है तो भी यह एक समस्या लेकर आता है.
स्टोरेज की कोई सुविधा नहीं होने और बाजार में माल की प्रचुरता की स्थिति में फसल बेचने का संकट आ जाता है, जबकि अगर फसल में किसी भी वज़ह से क्षति हुई और मंडी में कम माल आया, तो अच्छा रेट मिल जाता है. लोकल डिमांड-सप्लाई का यह खेल बाज़ार के इस लुका–छिपी में किसानों को अपने मुनाफे को लेकर कभी निश्चित नहीं होने देता.
सिंगाही गांव के अनिल सहनी की मानें तो, ‘एक ट्रक तरबूज की कीमत फसल कम होने पर 55 हजार तो अधिक होने पर 16 हजार तक मिलती है. विगत सालों में कई बार अधिक फसल होने पर तरबूज से लदे ट्रक को मंडी में किसी तरह ढाह के आना पड़ा है.’
संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन आदि देशों में बेहतर सुविधा और तकनीक के सुनियोजित इस्तेमाल से किसान बहुत ही फायदे में रहते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका में तरबूज सबसे ज्यादा खाया जाने वाला फल है तो वहां इसके स्टोरेज की पर्याप्त सुविधा है.
तरबूज का इतिहास:
यूँ तो ज्यादातर देशों में तरबूज एक मौसमी फसल ही है, लेकिन मेक्सिको में ऐसे तरबूज की खेती भी होती है जो हर मौसम में फल देता है. एक बार पौधा तैयार होने पर तीन से चार साल तक वह फल देता रहता है. ऐसे प्रमाण हैं कि सबसे पहले तरबूज का फल अफ्रीका के कालाहारी मरुस्थल में पाया गया था, लेकिन पांच हजार साल पहले इसकी विधिवत खेती मिस्र में ही पहली बार शुरू हुई . इसके भीतर जल की प्रचूर मौज़ूदगी की वजह से यह मध्यपूर्व के ईरान, तुर्की आदि देशों में बहुत ही जल्द लोकप्रिय हो गया और आज ब्राजील, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन तरबूज के मुख्य उत्पादक देश हैं .
मिस्र में मकबरों की दीवारों पर उकेरे गए चित्रों में तरबूज को भी जगह मिली है .वहां कब्रों में अगले जीवन तक आरामदायक सफ़र या फिर पानी की उपलब्धता की वज़ह से, शीतलता के लिए तरबूज के फल शव के साथ रखे जाते थे, क्योंकि इसमें जल तत्व सबसे ज्यादा 92 प्रतिशत है और इसे देर तक संग्रहित रखा जा सकता है . शुरुआत के बहुत सालों तक इसे अखाद्य माना गया और कड़वे सेव के नाम से पुकारा गया .
हजार सालों की यात्रा में मनुष्य ने पशुओं की तरह ही इसे भी अपने काम के लायक बनाया और अपने स्वाद के अनुरूप ढाल लिया. कितने ब्रीडिंग से गुजर कर तरबूज को जंगली त्याज्य फल से घरो में रसीले, किचेन फ्रूट का दर्जा मिला. तरबूज, खीरा, ककड़ी, लालमी, कोहरा सभी एक ही परिवार से आते हैं. मतलब सबकी शुरुआत एक ही साथ हुई है, लेकिन काल के साथ विकास में सबने अपनी अलग–अलग उपयोगिता और रूप को प्राप्त किया .
संयुक्त राज्य अमेरिका में तरबूज बंधुआ मजदूरों, गुलामों के साथ बाहर से आया. वे अपने साथ तरबूज के बीज लाये थे. आज तरबूज अमेरिका में उपजाए जाने वाले प्रमुख फसलों में से है. यह देश तरबूज का प्रमुख उत्पादक है और तरबूज की सबसे ज्यादा खपत करने वाला भी है . टेक्सास, फ्लोरिडा, जॉर्जिया, कैलिफोर्निया आदि राज्य तरबूज उत्पादन में बढ़–चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.
भारत में तरबूज लगभग सातवीं शताब्दी के आस–पास सौदागरों के माध्यम से पहुंचा और यहाँ भी इसकी खेती होने लगी. यहीं से यह चीन पहुंचा और आज चीन विश्व का सबसे बड़ा तरबूज उत्पादक देश है. आठवीं शताब्दी के प्रमुख चीनी कवि ली पो की एक प्रसिद्ध कविता में तरबूज का ज़िक्र मिलता है.
बाद के जापानी हाइकु कवियों ने भी अपनी कविताओं में तरबूज का खूब ज़िक्र किया है. यूरोप में यह लगभग तेरहवीं शताब्दी के आस–पास पहुंचा. आज पूर्वी और दक्षिणी यूरोप में इसकी खेती व्यापक पैमाने पर होती है.
तरबूज किसानों का जीवन असुरक्षा से घिरा हुआ है:
आलोकधन्वा की काव्य पंक्ति “जहाँ विस्मय / तरबूज की तरह / जितना हरा उतना ही लाल ” और किसी के लिए पता नहीं क्या मानी रखता है, लेकिन मुज़फ़्फ़रपुर और छपरा जिले में गंडक के तटीय इलाकों में खेती करने वाले तरबूज के किसानों की स्थिति बताने के लिए यह पंक्ति मानीखेज है.
यहाँ ज्यादातर किसानों का जीवन असुरक्षा से घिरा हुआ है .यह असुरक्षा तरबूज की खेती में होने वाले अत्यधिक खर्च और फसल तैयार होने पर इस रकम की वापसी की अनिश्चितता के कारण है. ज्यादातर किसान बहुत मंहगी दर से जमीन पट्टे पर ले खेती करते हैं, जिसका उनके पास कोई दस्तावेज भी नहीं है कि वह फसल बीमा मिलने जैसी स्थिति में किसी को बता सकें कि मेरी इतने बीघे की खेती है. जमीन से सम्बन्धित जो भी करार है, वह यहाँ मुंहजबानी ही होता है.
बीज से खाद तक सब कुछ इन्हें बहुत महंगे दाम में मिलता है. सरकार से कोई भी मदद या सहूलियत नहीं मिलती. बहुसंख्य किसान ब्याज पर पैसे लेकर खेती करते हैं, जिससे ये कर्ज चुकाने के अतरिक्त दबाव में रहते हैं. ऐसे में खेती के रिस्क का प्रतिशत बहुत ज्यादा हो जाता है. इस बार तरबूज की कई बीघे फसल गंडक के जलस्तर बढ़ने से खोने वाले सिंगाही के ही अजीत कुमार बताते हैं, ‘मैंने बाहर से पैसा उठा कर पिछली बार कम खेती से हुए ज्यादा मुनाफे को देख इस बार ज्यादा खेती की थी लेकिन जमीन खलार होने से फसल तैयार होने से पहले ही खेत में पानी जल्दी आ गया और मैं अपने खेत से एक फल भी नहीं काट पाया.’
सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं:
सरकार या किसी एजेंसी से कोई भी फसल बीमा तरबूज किसानों को उपलब्ध नहीं है. कुछ लोगों को मुनाफा होता है, लेकिन अधिकांश किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती है. कभी–कभी तो कर्ज न चुकाना इतना दारुण हो जाता है कि आत्महत्या जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. ज्यादातर किसान इस खेती को जुआ मानते हैं. उन्हें फसल बर्बाद होने का खतरा तो है ही, लेकिन बालू में और करें तो क्या करें?
बस अफसोस की बात यह है कि सरकार की तरफ से रत्ती भर भी सहयोग नहीं मिलता है. वे लोग अकेले अपने ही दम पर मिट्टी को सोना बनाने का जुआ खेलते हैं. कुछ डूब जाते हैं तो कुछ पार होते हैं. उनकी धारणा है कि तरबूज का घाटा तरबूज ही पूरा कर सकता है. इस घाटे की भरपाई करना और किसी फसल के बूते का नहीं है. नदी उनसे फसल छीनती है तो यही नदी अगली बार फसल देती भी है. वे नदी से कभी भी नाउम्मीद नहीं होते. वे मानते हैं कि पैर में जूते पहनने से हुआ ठेला, फिर से जूता पहनने से ही ठीक होता है न कि जूता खोल कर रख देने से.
सरकार तरबूज को लेकर कितना उदासीन है, इसका एहसास तरबूज उत्पादन के आंकड़ों को देख कर होता है. पूरे देश में तरबूज उत्पादन की अनुकूल स्थिति होने के बावजूद भारत विश्व उत्पादन में मात्र 0.38 प्रतिशत ही योगदान कर पाता है, पूरे विश्व में तरबूज उत्पादन में इसका स्थान 28वां है और पड़ोसी चीन तरबूज उत्पादन में प्रथम स्थान पर है. जबकि बिहार पूरे देश के तरबूज उत्पादन का मात्र 1.28 प्रतिशत ही उपजा पाता है और पूरे देश में तरबूज उत्पादन में इसका स्थान 12 वां है. वहीं पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश पूरे देश का एक चौथाई से अधिक तरबूज अकेले उपजाते हुए तरबूज उत्पादक राज्यों में शीर्ष पर है. तरबूज की खेती को लेकर इस इलाके में अपार संभावना है पर हम अपने पड़ोसी देशों और राज्यों से भी कुछ नहीं सीखते हैं.
सरकारी महकमा इन किसानों को लेकर लापरवाह और असंवेदनशील है. एक उदाहरण देखें– असमय वाल्मीकि नगर बैराज से पानी छोड़ दिया जाता है, जिसके कारण गंडक का जलस्तर असंगत रूप से बढ़ जाता है और तरबूज की हजारों एकड़ फसल डूब जाती है और हजारों घरों की उम्मीद भी, लेकिन प्रशासन का कोई नुमाइंदा या कोई जनप्रतिनिधि, इन किसानों की खोज ख़बर लेने भी नहीं आता!
यह आलेख सुधांशु फिरदौस ने लिखा है. वह पेशे से गणित के शिक्षक हैं और दुनिया उन्हें एक कवि के तौर पर भी जानती-पहचानती और मानती है.