दरभंगा. आज का नहीं आज़ादी से पहले का, जब राजे–रजवाड़ों का शासन था. बताने वाले बताते हैं कि दरभंगा राजघराना संगीत में खासी दिलचस्पी रखता था. कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के साश ही इतिहास को संजोने में भी इस घराने का खासा योगदान रहा है. दरभंगा घराने से ही मल्लिक परिवार का जुड़ाव है और शहनाई का पर्याय बन चुके उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का भी. हालांकि आज बात मल्लिक परिवार के बजाय बिस्मिल्लाह खान की है. माना जाता है कि बिस्मिल्लाह खान का बचपन दरभंगा में बीता और राज दरबार मे संगीतज्ञ रहे. हालांकि बिस्मिल्लाह खान छोटी उम्र में ही बनारस चले गए लेकिन दरभंगा उनके दिल से नहीं गया। दरभंगा उनका आना-जाना लगा रहता था। संगीत के साधक बिस्मिल्ला खान कला को धर्म से ऊपर मानते थे और यही कारण रहा कि कला के माध्यम से लोगों के दिलों में जगह बनाई.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जब दस साल की उम्र में पहली बार अपने मामा के घर दरभंगा आए थे तो न ही उस्ताद थे और न ही शहनाई के सुर के पक्के. बिस्मिल्लाह खान ने अपनी पहली नौकरी भी दरभंगा में ही की. मामा राज दरबार में दीवान थे और नौकरी लगाने में मदद की थी.
राजा राजबहादुर विशेश्वर सिंह की मौत के बाद बिस्मिल्लाह खान बनारस चले गए और आख़िरी बार राजकुमार जीवेश्वर सिंह की बेटी की शादी में शहनाई बजाने चले आए. खान साहेब ने शहनाई बजाना शुरू ही किया था कि नंगे पांव घुटने तक धोती पहने उदास महाराज कामेश्वर सिंह आए और शहनाई बंद करने की गुज़ारिश की. इसके बाद महाराज और खान साहेब दोनों रोए थे. ऐसा कहा जाता है, पूरा माहौल ग़मगीन हो गया था.
खान साहेब की आख़िरी इच्छा थी कि दरभंगा के उस तालाब में नहाने की जहां वह दरभंगा प्रवास के दौरान नहाते थे लेकिन वो पूरी न हो सकी. वह तालाब नष्ट हो चुकी थी और बिस्मिल्लाह खान इस बात से बहुत दुखी थे. कहा जाता है उस तालाब के नज़दीक बिस्मिल्लाह खान रियाज़ किया करते थे. ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के एक आयोजन में बिस्मिल्लाह खान को न्योता भेजा गया था लेकिन उस्ताद ने आने से मना कर दिया था. उस वक्त उनकी तबीयत माकूल नहीं थी ये सही बात है लेकिन एक कारण दरभंगा न आने का यह भी रहा कि दरभंगा में अब वह तालाब नहीं था जहां वह नहाते और रियाज़ किया करते थे.
कुछ दिनों पहले बिस्मिल्लाह खान, विद्यापति रचित इस रचना पर धुन देते सोशल मीडिया पर देखे गए. आप भी देखिए.
“पिया मोर बालक हम तरुणी गे
कोन तप चुकलहुँ भेलहुं जननी गे…”