ग्रामीण क्षेत्र: आला अधिकारी से लेकर मुखिया तक रिश्वतखोरी का आलम

ग्रामीण क्षेत्र: आला अधिकारी से लेकर मुखिया तक रिश्वतखोरी का आलम

पत्रकार व लेखक मार्क टली ने अपनी किताब ‘इंडिया इन स्लो मोशन’ के चैप्टर ‘करप्शन फ्रॉम टॉप टू टेल’ यानी ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में प्रधानमंत्री रहते राजीव गांधी के एक बयान का जिक्र किया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि  देश में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का ऐसा आलम है कि ग्रामीण विकास के लिए जो राशि ऊपर से भेजी जाती है, उसका 15 फीसदी हिस्सा ही नीचे तक पहुंच पाता है। इस बयान के करीब दस साल बाद योजना आयोग ने यह कहा कि ग्रामीण विकास पर खर्च होने वाले प्रत्येक 100 रुपये में से सिर्फ 10 से 15 रुपया ही गरीब लोगों तक पहुंच पाता है। इसका मतलब यह है कि बाकी पैसे अधिकारियों और प्रतिनिधियों की जेब में जाते हैं।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े अधिकारी स्तर से जो लूट शुरू होती है, वह निचले स्तर पर जारी रहती है।

गांव में बिना किसी संकोच भाव से इसी तरह से काम जारी है। पीएम किसान सम्मान निधि योजना नहीं मिलने को लेकर जब मेरी बात बिहार के एक किसान से हो रही थी तो उन्होंने कहा कि ब्लॉक में काम कराने के लिए पैसे मांगे गए थे, जब इस घटना के तह में गई तो किसानों को सहायता पहुंचाने वाले  एक अधिकारी से बात हुई, उन्होंने कहा, ‘‘ मैंने कई बार किसानों को यह बात समझाई है कि उनसे इस बारे में कोई पैसा मांगे तो वह शिकायत करें लेकिन किसानों के मन में इस रिश्वतखोरी को लेकर विश्वास इस हद तक जमा है कि कोई भी उन्हें आासनी से ठग सकता है। उनका कहना है कि लंबे समय तक इस तरह की व्यवस्था में रहने से किसानों को लगता है कि अंत में उन्हें किसी न किसी को पैसा देना है, तभी उनका काम होगा।’’

हालांकि अधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि इस तरह की दिक्कतें हैं और किसानों से पैसे लिए जाते हैं, यहां एक सवाल बनता है कि क्या इसकी देखरेख करने के लिए संस्था नहीं है, शिकायत करने के लिए संस्था नहीं है, सब है लेकिन गांव में आए दिन मारा-पीटी और छोटी-छोटी बात को लेकर हिंसा का काफी डर व्याप्त है लोगों में, और ऐसे में वो किसी तरह से जीवन जीने में यकीन रखते हैं, अब संस्थाओं को यह सोचना चाहिए कि वह विफल कहां हैं और क्या वे इस तरह की स्थिति से वाकिफ नहीं हैं? गांव में कौन नहीं जानता है कि अगर आपको किसी भी योजना का लाभ चाहिए तो उसका एक हिस्सा संबंधित प्रतिनिधि और संबंधित अधिकारी के पास जाता है, रही बात सबूत कि तो अगर संस्थाएं लोगों को भरोसा दिलाए और खुद मुस्तैद रहे तो सबूत मिलने में भी समय नहीं लगेगा।

अपने गांव पर एक नजर डालें और भ्रष्टाचार का आलम देखें

आप अपने आसपास गांव स्तर हुई भर्ती पर नजर डालें, आपको चीजें समझ आ जाएंगी, सब कुछ छिपाकर नहीं होता बल्कि टोले-मुहल्ले को पता होता है, कितना पैसा किसको-कहां देना है।

प्रतीकात्मक तस्वीर 

डिजिटलीकरण और खाते में सीधे राशि आने से चीजें सुधरी हैं लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त इस समाज पर नजर डालेंगे तो यह भी पाएंगे कि लोगों से योजना का लाभ देने का करार करके पहले ही कुछ राशि ले ली जाती है या बाद में ले ली जाती है, नहीं देने वालों का ज्यादातर काम होता ही नहीं है।

आंगनवाड़ी केंद्र इसका छोटा सा उदाहरण है। रिश्वत लेकर सेविकाओं और सहायिकाओं की भर्तियां होती हैं। कोई खुलकर नहीं बोलता है कि लेकिन ब्लॉक से लेकर मुखिया तक के पास पैसे पहुंचाए जाते हैं, यही नहीं बच्चों और गर्भवती महिलाओं तक के लिए जो आनाज और पोषक आहार की आपूर्ति होती है, उसमें भी घोटाला होता है। प्रखंड से लेकर गांव तक क्रमबद्ध तरीके से लोग इसमें पैसे खाते हैं।

हालांकि इस बात को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि आंगनवाड़ी सेविकाओं और सहायिकाओं से जितने काम लिए जाते हैं,  उसके अनुसार उनका वेतन कम है। और उस पर से जब वह पहले से ही रिश्वत देकर नौकरी में आएंगी तो वह अपना धन वापस पाना चाहेंगी और इसके लिए नजर पोषाहार से ही पैसे बचाने में होगा।

यही नहीं स्कूलों के मिड डे मिल का आंखों देखा हाल यह है कि जिस दिन अधिकारी जांच करने आते उस दिन का भोजन और सामान्य दिन का भोजन बिल्कुल अलग-अलग ही होता था। यह सब चलता है, बेहद सामान्य तरीके से, बे रोक-टोक।

अरूणा रॉय

जिसकी लाठी उसकी भैंस
गांवों में इस तरह की लूट को लेकर आवाज मुखर करनेवाली और सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाली अरुणा रॉय ने कहा है कि गांवों में शक्ति वाली राजनीति को कभी चुनौती नहीं दी गई है, यह बात अब भी सही है। गांव में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत अब भी लागू है और जैसा कि इसी किताब में मार्क टली ने लिखा है कि यहां हिंसा सबसे आखिरी नहीं बल्कि सबसे प्राथमिक रूप मानकर इस्तेमाल किया जाता है।

यहां देश के बराबरी वाले कानून की जगह तथाकथित सामाजिक कानून सीधे तौर पर चलता है।  इन सामाजिक कानून को स्थानीय पुलिस का बल मिला हुआ होता है। वह भी गांव के इन सामाजिक कानून को स्वीकार्य कर चुके होते हैं। हाल ही में गांव में किसी से बात हो रही थी तो उन्होंने कहा कि पुलिस वाले उन लोगों से अजीब तरीके से और बेहद गुस्सें में बात करते हैं जो यह इशारा नहीं समझ पाते कि फलना काम के लिए अप्रत्यक्ष राशि तय है और उसके बिना काम आगे नहीं बढ़ेगा।

यही नहीं सबसे ज्यादा हैरत कर देने वाली बात अब भी यह है कि पुलिस की निष्क्रियता इस कदर है कि अगर आप किसी को यह कह दें कि पुलिस में शिकायत कीजिए तो वह सीधे कहते हैं कि उससे क्या होगा, क्या इस तरह का संदेश जनता में जाना लोकतंत्र के लिए बड़ा नुकसानदेह नहीं है? बिहार में बढ़ती हिंसा के पीछे कई वजहों में से एक वजह यह है कि लोगों का इस तंत्र में भरोसा न के बराबर है और उनके आस-पास ऐसे काम बहुत कम होते हैं जिससे उनका भरोसा बन सके।