लॉकडाउन डायरी, डे -17: प्रिय इको, हम सिर्फ़ अपने दुखों की मृत्यु चाहते हैं…

लॉकडाउन डायरी, डे -17: प्रिय इको, हम सिर्फ़ अपने दुखों की मृत्यु चाहते हैं…

देहरादून
रविवार, मार्च 29, 2020

हलो. इको,

मुझे तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारा नाम किस तरह पुकारा जाए. तुम्हें शायद नाम की ज़रूरत भी नहीं. आज सुबह-सुबह तुम्हारा ख़त पढ़ा. तुमसे इतनी छोटी सी मुलाक़ात है कि मैं ठीक से कह भी नहीं सकती कि तुम्हारी चाहतें, तुम्हारी ज़रूरतें क्या थीं. तुम्हारे गाँव का ज़िक्र करते हुए सिद्धार्थ ने एक बार कहा था कि उसका वहाँ जाना एक बरबाद कर देने वाला अनुभव था, डिवस्टेटिंग. तब से मैं वहाँ जाना चाहती थी. बरबाद होने के लिए.

आज जब तुम्हारी चिट्ठी में तुमसे मुलाक़ात हुई, या कहूँ कि तुमसे आज की छोटी सी मुलाक़ात को जब मैंने एक ख़त की तरह पढ़ा तो कुछ देर के लिए सबकुछ थम गया. शायद मेरे भीतर भी कोई हकलाने वाला लड़का हो, जिसे तुमसे मोहब्बत रही हो. तुमसे या तुम्हारे बदन से. मोहब्बत क्या है, किसे कहते हैं. मैं इस पर कुछ नहीं कहने वाली. कम से कम अभी नहीं. अभी मैं तुम्हारे और मेरे बारे में बात करना चाहती हूँ. और थोड़ी बहुत उस हकलाने वाले लड़के मिज़ोगुची के बारे में, जो तुम्हें आख़िरी बार देखने के बाद बेहोश हो गया था. कुछ देर के लिए ही सही, उसके लिए सबकुछ थम गया था. भीतर और बाहर दोनों दुनियाओं में. फ्रॉइड हालाँकि कहते हैं कि भीतर, बहुत भीतर सबकुछ तभी थमता है, जब.. जब साँस थम जाती है.

मैं देखती हूँ कि तुमने अपनी साँसों को थाम लेना चुना. मैं सवाल नहीं करना चाहती कि तुमने ऐसा क्यों किया. मैं तुम्हारी जगह ख़ुद को रखकर देखना भी नहीं चाहती कि मैं वहाँ होती तो क्या करती. मैं वहाँ नहीं थी. नहीं हो सकती थी. मैं यहाँ हूँ. तुम्हें यह ख़त लिखते हुए. तो मैं क्या चाहती हूँ? मैं बस तुम्हारे साथ कुछ दूर तक चलना चाहती हूँ. नेवी अस्पताल में वॉलंटियर करने से लेकर एक डेज़र्टर से प्यार करने, और ख़ुद को उस एक आदमी को सौंप देने तक के सारे चुनाव तुम्हारे हैं. फ्री विल के होने न होने के सवाल को मैं इस वक़्त फिर पीछे छोड़ रही हूँ. यूँ भी मुझे लगता है कि जब भी दो परस्पर विरोधी संभावनाएँ एक साथ आती हैं तो दोनों ही महत्वहीन हो जाती हैं. महत्व सिर्फ इस बात का रहता है कि सामने क्या है.

तुम्हारे सामने तुम्हारा पूरा जीवन था, तुम्हारा सुंदर शरीर था, तुम्हारा एकांत था, तुम्हारी बाइसिकल थी, सवेरे का सफ़र था, अस्पताल था, घायल थे, एक लड़का था जिसने लड़ना छोड़ दिया था, तुम्हारा हृदय था जो उसके लिए लड़ना चाहता था, और उसके बहाने तुम्हारे ख़ुद के लिए भी. कितना कुछ रहा होगा तुम्हारे पिछले सालों में जो तुम्हें युद्ध से थक चुके एक घायल सैनिक तक लेकर आया होगा. मैंने कई बारे देखा है कि जब हम अपने युद्ध से थक जाते हैं तब हम दूसरे का युद्ध लड़ने का ज़िम्मा उठा लेते हैं. क्योंकि हम जान रहे होते हैं कि न खत्म होते दिखने वाले युद्ध कितना थका सकते हैं.

मैं तुम्हारे साथ बैठकर महसूस करना चाहती हूँ कि किस तरह तुमने उस युवा लड़के के ज़ख़्मों की देखभाल करते हुए अपने भीतर बहुत कुछ सेहतमंद होते महसूस किया होगा. मैं जानना चाहती हूँ कि वह कौन सा पल रहा होगा, जब तुम्हें पहली बार पता चला होगा कि तुम अपने आप को अब किसी अन्य व्यक्ति को सौंप चुकी हो. तुम उस वक्त क्या कर रही होगी? क्या तुम मुस्कुराई थीं, या फिर जड़ रह गई थीं, या फिर उस रोज़ तेज़ रफ़्तार से बाइसिकल दौड़ाते हुए तुमने कोई गीत गुनगुनाया था. मुझे लगता है कि उस दिन तुमने अपने आप को सबसे आज़ाद महसूस किया होगा. कुछ क्षणों के लिए ही सही. अपने आप को किसी और को सौंप पाना हमेशा क्षणिक होता है. ये एक उफान की तरह होता है, जिसे कुछ देर बाद उतर ही जाना है. पर ये वही चंद घड़ियाँ हैं, फ़याज़ हाशमी ने जिन्हें आज़ाद कहा है.

मैं तुम्हारे साथ उस सफ़र से गुज़रना चाहती हूँ जो तुम्हारे भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया के बीच के पहले टकराव से शुरू होता है और स्वर्ण मंडप की एक सौ पाँच सीढ़ियों के ऊपर की ओर तुम्हारे गर्वीले प्रयाण पर खत्म होता है. मैं जानना चाहती हूँ कि तुमने वह रात क्या करते हुए बिताई होगी जब तुमने पहली बार अपने गर्भ में एक जीवन को पलते महसूस किया होगा. तुमने फ़िक्र की होगी कि क्या तुम उस बच्चे को वैसी दुनिया में ला सकोगी जैसी तुम उसके लिए चाहती हो. तुमने एक पूरी दुनिया का भार अपने भीतर उठाकर भी उसे फूल जैसा हलका होते देखा होगा. तुमने उस बच्चे के चेहरे की कल्पना करते हुए उसमें कई चेहरों को देखा होगा. मैं उस वॉर्ड के बाहर रुककर तुम्हारा इंतज़ार करना चाहती हूँ जब तुमने अपने सैनिक को बताया होगा इस नई दुनिया के बारे में. तुमने उसे विश्वास दिलाया होगा कि सबकुछ उतना मुश्किल नहीं है, कि वो एक बार तुम्हारी तरह अपनी आँखों में उम्मीद लेकर जीवन के करिश्मों और सपनों की तरफ़ देखे. उसके डर और अविश्वास ने तुम्हें परेशान तो किया होगा पर उसी दम तुमने उस डर को भी अस्वीकार कर दिया होगा, और अविश्वास को भी. बिलकुल उसी तरह जब उस मैदान में पुलिस के जवानों के बीच खड़ी तुमने इस पूरी दुनिया को अस्वीकार कर दिया था.

पूरी दुनिया की उस बड़ी अस्वीकृति के बीच मिज़ोगुची को ख़ुद को मिली अस्वीकृति उतनी घातक नहीं लगी होगी कि उसे तुम्हारी मृत्यु की कामना करनी पड़े. और उस पल तुम्हें दिया उसका अभिशाप खुद उस पर आ पड़ा होगा. हम किसी की मृत्यु की कामना नहीं करते. हम सिर्फ़ अपने दुखों की मृत्यु चाहते हैं. अपनी शर्म की, अपनी कमियों की, अपनी असहायता की मृत्यु चाहते हैं. पर क्योंकि हमने बाहर देखकर अपनी ओर देखना सीखा होता है, हम अपनी शर्म, अपनी कमियाँ, अपनी असहायता और अपने दुख बाहर किसी और के सर डाल देना चाहते हैं, डाल देते हैं. जिनके सर पर हम अपना बोझ डालते हैं, अक्सर उन्हें पता तक नहीं होता. जैसे मिज़ोगुची ने तुमसे इतनी नफ़रत की कि तुम्हें मरने का अभिशाप दिया, और तुम्हें यह कभी पता नहीं चला.

जानती हो इको, जिस समय मैंने तुम्हारा ख़त पढ़ा, उस वक़्त दुनिया एक और युद्ध से गुज़र रही है. यह वैसा युद्ध नहीं है जैसे युद्ध से बचकर तुम्हारा सैनिक तुम तक पहुँचा. इस युद्ध में हम सभी डेज़र्ट्स हैं. यह एक पुराने युद्ध का परिणाम है, मानव के मानव हो पाने का युद्ध. और हम सब बचकर भाग रहे हैं. हमें जिन मोर्चों पर खड़े रहना चाहिए, हम वहाँ जाने से बचना चाहते हैं. इसी लिए युद्ध खत्म होने में नहीं आते. तुम्हें एक डेज़र्टर से प्रेम करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. हम सब अपने भीतर के विश्वासघाती से प्यार करने की कीमत अपना आप खोकर चुकाते हैं. यहाँ मैं रुककर सोचना चाहती हूँ कि जीवित होना क्या होता है.

बालकनी में अंगूर के लत्तर और फलने को तैयार अंगूर… (तस्वीर- विष्णु नारायण)

इस समय रात के दो बज रहे हैं. खबर आई है कि 70 लोग बँगलौर शहर से 70 किलोमीटर दूर पैदल सड़क पर चल रहे हैं. वे जिस जगह काम करते थे, वहाँ नहीं रुके क्योंकि उनके मालिक ने उन्हें काम से निकाल दिया. अब उनके पास रहने को घर, खाने को रोटी नहीं है. अब 3000 किलोमीटर दूर अपने घर लौटने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं है. वे ट्रकों में बैठकर आगे बढ़ रहे थे मगर पुलिस ने उन्हें ट्रकों से उतार दिया. अब वे पैदल हैं. पिछले 36 घंटों से उन्हें खाना नहीं मिला है.

किसका विश्वासघात है जो इन्हें यहाँ तक लाया है? वह पुलिस जो तुम्हें, एक गर्भवती प्रेमिका को एम्बुश करती है ताकि उसके प्रेमी तक पहुँचा जा सके. वह पुलिस उस विश्वासघाती को नहीं पकड़ती जिसके कारण किसी मेहनतकश को 36 घंटे भूखे रहकर सड़क पर पैदल चलना पड़ता है.

इको, अगर तुम इजाज़त दो, तो मैं ठीक उस समय के बाद तुमसे मिलना चाहती हूँ जब तुम सुनहरे मंडप के बाहर चबूतरे पर आख़िरी बार गिरती हो. न, मैं तुम्हें बचाना नहीं चाहती. मैं तुम्हारा चुनाव, तुम्हारी आख़िरी हिचकी का एकांत तुमसे नहीं लेना चाहती. तुम्हारा सम्मान, तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी है. मुझे लगता है उसका स्थान तुम्हारे लिए मेरी करुणा या स्नेह से कहीं ऊपर है. मैं तुम्हें गिरते हुए देखने का कष्ट अपने भीतर उतरने देती हूँ. जैसे इन सत्तर आदमियों की भूख को देखना मेरे भीतर उतर रहा है. बिना किसी आवेग के. जैसे पानी रिस-रिसकर ज़मीन में उतरता है.

तुमने दुनिया को अस्वीकार कर दिया. मैं इसे अस्वीकृति के साथ स्वीकार कर रही हूँ. हो सकता है कि अंत में अस्वीकार करना ही एक आख़िरी चुनाव रह जाए. पर उस समय के आने तक, सबकुछ थम जाने के पहले तक, मैं तुम्हें और जानना चाहूंगी. तुम्हारे सैनिक को जानना चाहूंगी. मिज़ोगुची को भी, जिसने तुम्हें इस तरह चाहा कि तुम्हारी मौत भी चाहने लगा. तुम्हारे देश की पुलिस को, अपने देश की पुलिस को जानना चाहूँगी. उन सत्तर लोगों को, उनके मालिकों को भी जानना चाहूँगी. उन युवा लड़कों को जानना चाहूंगी जो आधी रात को इन 70 लोगों की भूख मिटाने की कोशिश में जाग रहे हैं. मैं जानना चाहूँगी कि इस सबको जानने के बाद और क्या जानना बाकी रह जाता है.

जाने के बाद तुमने क्या जाना, लिखना.

स्नेह
प्रदीपिका

*इको जापानी भाषा के लेखक युकिओ मिशिमा के उपन्यास ‘द टेंपल ऑफ गोल्डन पविलिअन’ की एक पात्र है.