लॉकडाउन डायरी: कि तय चीजें कहां हुई हैं, होती हैं…

लॉकडाउन डायरी: कि तय चीजें कहां हुई हैं, होती हैं…

आज 29 मार्च है. लॉकडाउन का 5वां दिन. आज बनारस में होना तय था. विश्वविद्यालय के साथियों के साथ (दस साल बेमिसाल) का सेलिब्रेशन तय था. वीडियो शूट किया जा चुका था, ग्रुप में सबके आने की बातें जोर-शोर से जारी थीं. मेरी अगुवाई तय थी लेकिन आज हम सभी अपने-अपने घरों में कैद हैं. लॉकडाउन. देश में तालाबंदी हो गई है.

बीती रात सोते समय मेरी मच्छरदानी में एक-दो मच्छर घुस गए थे. पहले मन किया कि इन्हें मार दूं, या कम से ये स्टेटस ही फेसबुक पर डाल दूं कि मच्छर भी लॉकडाउन है. ये त्वरित इच्छाएं खूब उफान मारती हैं, हालांकि उन पर इस बीच काबू पाने की कोशिश कर रहा हूं. पहले भी करता रहा हूं. लॉकडाउन के बावजूद राजमार्ग पर पैदल चल रही जनता को लेकर सरकार से सवाल करो तो लोग कम्युनिस्ट कहने लगते हैं. मैं उन्हें स्पष्ट भी नहीं करता. दो रोज पहले मित्र पलाश ने फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई थी कि, जिन्हें आप पर्सनली नहीं जानते, उनकी बात को पर्सनली नहीं लेना चाहिए. मैंने पलाश से कुछ सवाल किए लेकिन वो समझ नहीं पाया. मैंने भी टॉपिक बदल दिया. खैर, इन सभी बातों का क्या है, मैं भी ये क्या कुछ सुनाने लगा…

चलिए फिल्मों की बात करते हैं. नेटफ्लिक्स और अमेजॉन वाली. स्नेहाजी से आईडी-पासवार्ड मांगकर ‘Parasaite’ देखी. शानदार फिल्म है. वर्ग है और वर्ग संघर्ष है. जैसा इन दिनों हमारे देश में दिख रहा. इसी फिल्म में एक डायलॉग है कि, क्या प्लान है? दूसरा किरदार कहता है कि प्लान ये होना चाहिए कि कोई प्लान नहीं होना चाहिए. तय चीजें कहां हुई हैं, होती हैं. कहां मुझे आज बनारस होना था और बनारस के रास्ते दिल्ली जाना था, और मैं आज कई दिनों से पटना के कमरे में लगभग कैद हूं.

सुबह उठकर परसों का लाया हुआ पपीता खाया. आधा खाया और आधा रख दिया. इस दौरान एक चीज खाते-खाते उसे बचाने का मोह बढ़ जा रहा है. इंटरनेट का डेटा इस्तेमाल करते हुए उसे बचाने का मोह बढ़ जा रहा है. ये जानते हुए कि सब मोह-माया है. रह-रहकर फेसबुक स्क्रॉल करने लगता हूं. ये जानते हुए कि दुनिया में इससे वाहियात काम कोई नहीं. खुद को छलावा देता हूं कि अपना तो धंधा यहीं से है. छद्म. दो दिन पहले मां से बात हुई थी. मां शहर वाले घर से गांव जाने की बात कह रही थी. नवरात्रि के लिए. मैंने कहा, “तोहार कौनो देवी-देवता काम लायक नइखS, मां पूछती है, काहे? मैंने कहा, “सब देवी-देवता हे समय में कैद बा, हनुमान जी से बात ना कइलू हs, मां कहती है, कहनीं हs, सब ठीक होई. मैं और सवाल नहीं करता. मां घर आने को कहती है. मैं काम का हवाला देने लगता हूं. यह जानते हुए कि काम के नाम पर मैं इन दिनों आखिर क्या कर रहा हूं, लेकिन मध्यमवर्गीय परवरिश घर से बाहर रहने को भी एक काम ही मानती है.

दोपहर के बाद 4 बजे शाम में खाना बनाया. दाल-भात-चोखा. पहले सोचा चोखे में एक टमाटर ही डालूंगा. एक कल के लिए बचा लेता हूं. बचाने की प्रवृत्ति घर कर रही है या फिर ये अचानक से आया डर है? खाना बनाते वक्त ही शाश्वत भाई का फोन आया. शाश्वत भाई अच्छे आदमी हैं. देश-दुनिया की सरकारों के साथ काम कर चुके हैं. सरकार की नाकामी और यथास्थिति को समझते हैं. बात इस पर विशेष तौर पर हुई कि ये दिल्ली और देश के अलग-अलग हिस्से में फंसे लोग कैसे कहीं गिनती में हैं ही नहीं. वे मेरे भोजन-पानी को लेकर चिंतित दिखे, मैं यही कहता रहा कि मैं घर में रहने का आदी नहीं. कुछ तो करता. आज एक दोस्त साथ भी ले जाने वाली थी, उसने भी संदेशा नहीं दिया. कुछ हो नहीं रहा. अजीब छटपटाहट है.

लॉकडाउन के दौरान आलू-प्याज लेकर कॉलोनी में घूमता ठेलेवाला

बिहार सरकार भी अजीब खेलाड़ी है. कुछ पता ही नहीं चलने देती. मैं खुद पीएमसीएच जैसे अस्पतालों के आइसोलेशन वार्ड तक जा चुका हूं. कोरोना के आइसोलेशन वार्ड में जॉन्डिश के मरीजों को रख लिया जा रहा है. नर्सों के पास मास्क तक नहीं. डॉक्टर्स रिवोल्ट कर रहे हैं. संविदा पर बहाल कर्मी प्रदर्शन कर रहे हैं कि वे अपनी जान क्यों जोखिम में डालें. ये सभी जानते हैं कि बिहार या कहें कि हिन्दी पट्टी में स्थितियां भयावह हो जाएंगी. अभी बीती रात ही कोरोना के आइसोलेशन वार्ड से एक कोरोना पॉजिटिव मरीज ने अपना वी़डियो जारी किया था कि वहां कैसे इंतजाम हैं. मरीज ऐसी स्थितियों में वहां से भागेगा नहीं तो क्या करेगा? भले ही वो सभी को संक्रमित कर दे.

लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं. मैं कर ही नहीं पा रहा. आदत नहीं है. विकास से दो रोज पहले बात हुई थी. वो चाइनीज कंपनी के लिए हैदराबाद में काम करता है. मैंने कहा कि भाई वहां से पैदल ही चल दो. अधिक से अधिक नाइकी का जूता ही तो घिसेगा. इतने जूते क्या करोगे? पटना आ जाओ. अविनाश को बनारस से बुला लेंगे. रेलवे ट्रैक पकड़कर वो भी चला आएगा. साथ ही रहा जाएगा. साथ ही मरा जाएगा. विकास चीन की बदमाशियां गिनाने लगता है और कहता है कि इसमें भारी कॉन्सपिरेसी हो सकती है. मैं भी हां में हां मिलाता हूं. कहता हूं कि भाई अपने देश लौटो. ये जानते हुए भी कि अपना देश अब अपना देश भी कहां रहा. कि जनता दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा से पैदल ही चल चुकी है. सोचता हूं कि वे भी तो वर्क फ्रॉम होम करने ही लौट रहे. अपने-अपने घरों को ही तो लौट रहे, लेकिन लोग उनपर तंज कस रहे. गरिया रहे. जैसे इन्हीं के देह पर चढ़कर कोरोना आया हो. मैंने शाम होते-होते दाल-भात-चोखे का आधा हिस्सा खा लिया है और आधा बचाकर रख दिया है कि देर रात खाऊंगा. ये जानते और सोचते हुए कि तय चीजें कहां हुई हैं, होती हैं…