मुझे लगता है कि मैं एक चक्रवात के बीच फँसी हूँ. दो अलग दुनियाओं से उठती हवाओं का बना चक्रवात. एक तरफ मेरा कमरा है, जहाँ बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो रही हैं, सोशल मीडिया का वो हिस्सा है जहाँ संगीत-साहित्य-विलासिता है. दूसरी तरफ सड़कों, फैक्ट्रियों, रेलवे स्टेशन और अपने फ्लैट्स में फँसे हुए लोग हैं जिन्हें सो पाने के लिए एक गर्म कोने, खाने के लिए रोटियों और जीने के लिए दवाइयों की ज़रूरत है.
परसों शाम को मेरे कुछ साथियों ने देशभर में लॉकडाउन के कारण परेशानी का सामना कर रहे लोगों के लिए कुछ फोन नंबर्स जारी किए. तब से अबतक लगातार ज़रूरतमंदों की मदद की गुहार हम तक पहुँच रही है. देर रात चार बजे तक फ़ोन आते रहे हैं. सुबह आठ बजे से फिर बातचीत जारी है. अभी सुबह के दस बजकर बावन मिनट हुए हैं. कुछ देर पहले एक लड़की का फोन आता है. नॉएडा के सेक्टर पचपन में रहती है. कुछ दिनों पहले उसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ है. रात से वह दर्द में है, उसके टाँके खुल गए हैं. पेनकिलर दवाइयाँ खा चुकी है, पर राहत नहीं है. वह रोते हुए बताती है कि उसने सभी सरकारी इमर्जेंसी नंबर्स पर फोन किया, पर कहीं से मदद नहीं आई. किसी से उसे हमारा नंबर मिला है.
यह एक बड़े शहर की स्थिति है. सरकार के पास नागरिक की मदद की तैयारी बिलकुल नहीं है. उनकी तैयारी भाषणों और घोषणाओं तक ही है. उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता. हमें ही एक दूसरे के लिए खड़ा होना है. कोरोना आपात के लिए जारी किए गए सरकारी पैकेजों, पीएम रिलीफ़ फंड, पीएम जन आरोग्य योजना और उसके बाद एक और नए पीएम केयर फंड के इस समय में मैं देखती हूँ, कि देश के हर कोने से लोग मदद के लिए आवाज़ दे रहे हैं. उन्हें काम से निकाल दिया गया है. रहने की जगहें छीन ली गई है. इन शहरों में, जहाँ वे दूर गाँवों से काम करने आते रहे हैं, उनका हिस्सा नहीं है, न उन फैक्ट्रियों में जहाँ वे काम करते हैं, न उन जगहों पर जहाँ वे अदृश्य, हमारे आस-पास घूमते हैं. अदृश्य क्योंकि शहर के लिए उनके नाम, उनकी पहचान, उनके अस्तित्व का मतलब, वो काम के घंटे भी नहीं है जिसे बेचकर वे रोज़ जीने का इंतज़ाम करते हैं. वो काम के घंटे बदले जा सकते हैं, ये नहीं तो कोई और. कोई और नहीं तो एक और.
इनके पास निश्चित रोज़ी का, सम्मान से जीने के अधिकार न होना, शासन के पास इनके लिए कोई व्यवस्था न होना एक बात है, वह बात जिसे हम अपने संस्कार की तरह स्वीकार कर चुके हैं. पर इन्हें बेजान बसों की तरह सफ़ाई करने वाले कैमिकल से धो देना बिलकुल दूसरी बात है. पर यह बात भी कचरा प्रबंधन के अभाव में सड़ते हमारे सफ़ाई पसंद शहरों के गले से चुपचाप उतर जाती है, चीज़केक के एक छोटे टुकड़े की तरह. क्या शहर ने इन्हें निर्जीव मान लिया है? कुछ लोग जो अन्य असह्य बातों पर सवाल करते रहे हैं, इस बार भी अपना ग़ुस्सा जताते हैं, सवाल करते हैं. पर धूल सतह से इंच भर भी ऊपर नहीं जाती. कोई तूफ़ान नहीं उठता. जो पत्ते सरकार पर क़ाबिज़ पार्टी के लॉन में पड़े हैं, वहीं पड़े रहते हैं, बिना हिले, मुर्दा. यह घटना किसी भी आम खबर की तरह बासी होकर दम तोड़ जाती है.
सोशल मीडिया की खिड़की से दुनिया में झाँकते हुए मैं एक साथ दो तस्वीरें देखती हूँ. एक तस्वीर सजे हुए घरों की, आरामकुर्सियों और चाय के प्यालों की, किताबों की और क़ायदे से परोसी गई थालियों की. दूसरी तस्वीर उन अदृश्य हिंदुस्तानियों की है जो अचानक से दिखाई देने लगे हैं. पर उसी तरह जैसे एक फ़िल्म के दृश्य में एक्स्ट्राज़ की भीड़ दिखती है. जिनके चेहरे नहीं होते, चेहरों जैसा कुछ होता है जिसे याद नहीं रखा जाना होता. दोनों ही तस्वीरें शहर अपलोड कर रहा है. बड़ी भीड़ की तस्वीर उतार सकने वाला बड़ा कैमरा शहर के पास है. गाँव के पास बस भीड़ बनने की लाचारी है.
कहते हैं कि मुश्किल वक़्त में आप ज़्यादा साफ़ देख पाते हैं कि आप जीने के लिए कितने तैयार हैं. आपके संसाधन क्या हैं और कमियाँ क्या. कोरोनावाइरस की यह नई मुश्किल हमें दिखा रही है कि किसके पास क्या है. और हम साफ़-साफ़ देख रहे हैं कि लाखों की संख्या में लोगों के पास रोटी नहीं. आज भी. रोटी. एक पहर का खाना. ज़िंदा रहने के लिए पहली ज़रूरत. आदमज़ात के उस ग़ुरूर, लालच, इज़्ज़त और ताकत से बहुत पहले की चीज़, जो लोगों की जान लेती है, उनकी जान के सौदे करती है. पर हम यह भूल जाते हैं कि जान रोटी भी लेती है.
आज मार्च का आख़िरी दिन है. कल देर रात तक मैं सोशल डिस्ट्रिब्यूशन के बारे में पढ़ती रही. कल यह जर्नल पूरा न लिखा जा सका. मुझे हमेशा लगता था कि मानव मन को समझने के लिए साहित्य पढ़ना बहुत होता है. धीरे-धीरे यह लगना कम हो रहा है. साहित्य से मानव मन को समझा जा सकता है, अगर साहित्य उतना व्यापक हो. कुछ देर पहले फोन पर पिता से मानव मन पर बात हो रही थी. वे अक्सर बताते हैं कि अंतर्मन के चार हिस्से होते हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार. मन, जहाँ संकल्प और विकल्प होते हैं. बुद्धि, जहाँ पूर्व अनुभवों से अर्जित ज्ञान संचित होता है. चित्त, जो हमारी वृत्तियाँ निर्धारित करता है, जहाँ हमारी इच्छाएँ जन्म लेती हैं. और अहंकार यानी हमारा आकार, वह आकार जिसमें हम स्वयं को, अपने मैं को देखते हैं, जहाँ से हमारी ममता, मोह, ईर्ष्या, क्रोध और लोभ जैसे विकार पैदा होते हैं.
बड़े किताबी शब्दों में कही मन की इस व्याख्या को समझना उतना आसान नहीं है. पिता ने कितनी बार मुझे यह समझाया है, पर हर बार मुझे लगता है मैं पहली बार समझने की कोशिश कर रही हूँ. लेकिन साहित्य पढ़ते हुए, फ़िल्में देखते हुए, फ्रॉइड या डोर्किन को समझने की कोशिश करते हुए या फिर सोशल मीडिया और बाकी मीडिया के विषयों और संवादों पर ग़ौर करते हुए मानव मन की जो जटिलताएँ मैं देख पाती हूँ, वे किताबी नहीं हैं, बहुत गोचर हैं, वास्तविक हैं. मैं देखती हूँ कि जो कुछ मैं मिशिमा को पढ़कर नहीं समझ सकती, वह शायद कौटिल्य को पढ़कर समझ सकती हूँ. मुझे यह भी लगता है कि कल शायद मिशिमा, कौटिल्य और फ्रॉइड में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. बाहर जो दुनिया दिखती है वह मानव मन के भीतर की दुनिया का बाहरी विस्तार है. बाहर के अन्याय को खत्म करने के लिए हमें भीतर का अन्याय खत्म करना होगा.
हमारा संविधान वह ढाँचा है जो सोशल डिस्ट्रिब्यूशन पर खूब मेहनत कर बनाया गया है. यह हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है. किताबी अधिकार. ये किताबी अधिकार अगर वास्तविकता तक नहीं पहुँचते तो इसका एक बड़ा कारण मानव का अहंकार है. उसका लोभ, उसकी घृणा, ईर्ष्या और मोह. जिनके पास जितना है, उनका लालच उन्हें और ज़्यादा इकट्ठा करने के लिए प्रेरित करता है. वे यह नहीं सोचना चाहते कि वे किसी अन्य के हिस्से का भी अपने पास रख रहे हैं, चाहे थोड़ा सा ही सही. वे इस लालच को तमाम तर्क देकर उचित साबित कर लेते हैं. वे खुद को और दूसरों को बताते हैं कि वे (लालच से, और ज़रूरत से ज़्यादा) संसाधनों को अपने लिए इकट्ठे करते जाना डिज़र्व करते हैं. इस तरह संसाधन एक तरफ़ इकट्ठे होते जाते हैं. सोशल डिस्ट्रिब्यूशन हर दिन और अन्यायपूर्ण होता जाता है. न्याय और अन्याय की नई, सुविधाजनक परिभाषाएँ गढ़ी और बाँटी जाती हैं. इस पूरे खेल में घृणा को खूब जगह दी जाती है, जो कुछ इस्तेमाल किया जा सकता है किया जाता है, कि तराज़ू का पलड़ा जिस ओर झुका है, झुका रहे.
पिछले दिनों में खूब तस्वीरें देखी जा रही हैं, जहाँ भूखों तक खाना पहुँचाया जा रहा है. बिना तस्वीरों के भी कई जगह खाना पहुँचाया जा रहा है. पर यह मुहिम खाना पहुँचाने के बाद खत्म नहीं होनी चाहिए. जो आज खाना पहुँचा रहे हैं, कल उन्हें ही अन्याय की तरफ़ झुके इस तराज़ू को बीच में लाने की क़वायद शुरू करनी होगी.
यह अजीब बात है कि इज़राइल जब फ़िलिस्तीन में कॉलोनियाँ बनाता है तो इज़राइल के ही लड़के लड़कियाँ वहाँ जाकर फ़िलिस्तीनियों की तरफ से आवाज़ उठाते हैं. अन्याय झेलने वाले की आवाज़, अन्याय करने वाले की आवाज़ के सामने हमेशा नीची रह जाती है, चाहे वह धमाके ही क्यों न करे. मैं अबतक नहीं समझ पाई हूँ कि ऐसा क्यों है. शायद इसलिए कि किसी के प्रति हम अन्याय तब ही कर पाते हैं जब हम उसे ‘अदर’ कर देते हैं, प्रतिपक्ष में खड़ा कर देते हैं, अपने बराबर या अपने में से एक नहीं मानते. जो अपने में से एक नहीं है, उस पर अविश्वास ही किया जा सकता है. ज़्यादा से ज़्यादा उसके प्रति सहानुभूति हो सकती है, समानुभूति नहीं. पर खाना खिलाने वाले को शुरुआत करनी होगी कि जिस तक खाना पहुँचाया जा रहा है उसकी दुनिया, खाना ले जाने वाले की दुनिया से अलग न रहे.
इन दो दुनियाओं का फ़र्क़ कभी नहीं मिटा है, यह कहना आसान है. आसान यह भी कह देना है कि प्रकृति ऑटोपाइलट मोड पर चलती है, खुद ही वह सब ठीक कर लेती है, जो गड़बड़ा गया है. पर जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि आपदाएँ हमें एक बार फिर नए सिरे से चीज़ों के देखने का मौक़ा देती हैं. शहर इस वक़्त अपने सुंदर, आरामदेह घरों में बंद है. इस तालाबंदी के समय में, मैं यक़ीन करना चाहती हूँ कि मानव अपने लालच पर सवाल करेगा. न्यायपूर्ण समाज अगर एक आदर्श सपना है, एक करिश्मा है, तो मैं यक़ीन करना चाहती हूँ कि हम बहुत सारे लोग ये सपना देखेंगे, यह करिश्मा धीरे-धीरे ही सही हमारी आँखों पर उतरेगा.