दहाई तs जाई आs नs दहाई तs आई, सिर्फ एक बाली के सहारे चल रहा जीवन…

दहाई तs जाई आs नs दहाई तs आई, सिर्फ एक बाली के सहारे चल रहा जीवन…

बिहार का एक जिला है चंपारण. जहां कभी गांधी आए थे. जहां गांधी ने सत्य के साथ अपने प्रयोगों की शुरुआत की थी. आज चंपारण दो हिस्से में बंट गया है. पूर्वी चंपारण (मोतिहारी) और पश्चिमी चंपारण (बेतिया). आज यह पूरा इलाका अलग-अलग नदियों की प्रयोगशाला है. इस इलाके से गुजरने वाली नदियां अपनी धारा बदलने के लिए बदनाम हैं. यहां लगभग हर साल बाढ़ आती है. इस बार भी आई है. कई लोगों के घरों में हाल तक पानी था और कई तो अब भी तटबंध जो अब सड़क है के ऊपर ही तिरपाल और प्लास्टिक के सहारे रातें काट रहे हैं. डेंगियां खेती-बारी करने और माल-मवेशी ढोने का साधन हैं. इन्हीं खबरों को देखते-सुनते हम पूर्वी चंपारण (मोतिहारी) के मधुबनी घाट, वार्ड नंबर 14 पहुंचे- अब आगे…

सड़क किनारे तिरपाल के सहारे चलती जिंदगियां

यहां आपको हम विशेषतौर पर एक बात बताते चलें कि इस पूरे इलाके में एक ही फसल हो पाती है. रोपनी के बावजूद धान और अन्य फसलें तबाह हो जाती हैं. आमतौर पर खेती करने वाले किसान दो फसलें बोते और काटते हैं. बोले तो दो ‘बालियां’ लेकिन इस पूरे इलाके में एक ‘बाली’ का ही सहारा है. जीवन वैशाखी (वैशाख माह में की जाने वाली) फसलों के सहारे ही चल रहा है. मधुबनी घाट पर ही खड़े हरीन्द्र सहनी के पास दो बिगहे की खेती है. फिलहाल सारा खेत जलमग्न है. सरकारी मुआवजा अब तक नहीं मिल सका है. मिलने की उम्मीद तो लगाए हैं. सामान्य जनवितरण प्रणाली (PDS) के तहत मिलने वाले राशन मिलता तो जरूर है लेकिन उसमें भी काट हो जाती है. पांच किलो चावल के बजाय चार या साढ़े चार किलो. गेंहू और दाल में भी कटौती. हालांकि लोगों ने बाढ़-दहाड़ और लूट को ही अपनी नियति मान लिया है. महिलाएं राशन में कटौती के सवाल पर कहीं अधिक मुखर हैं. जाहिर तौर पर घर का भोजन पकाने की जिम्मेदारी उनके माथे ही है/होती है.

मधुबनी घाट, वार्ड नंबर 14 के रहनेवाले हरीन्द सहनी

इसी बस्ती में बूढ़ी गंडक के धारे के ठीक किनारे हमारी मुलाकात तीला देवी से हो गई. तीला देवी माइक देखते ही बोलने लगती हैं. कहती हैं, ‘साहब हमारी जिंदगी बड़ी मुश्किल से कट रहा है. घर में दस दिनों तक पानी रहा. डेंगी के सहारे चलते रहे. डेंगी भी गांव का लोग अपने से बनाया है. सरकार का कोई देखने तक नहीं आया. जो थोड़ा-बहुत चूड़ा वगैरह बंटता भी है तो पहुंच नहीं पाता. आजकल तो मजदूरी पर भी आफत हो गया है. नेता लोग खाली चुनाव के वक्त मां-बेटी करता है और चुनाव के बाद लापता हो जाता है.’ तीला देवी इस बात को हमारे जाते-जाते भी कहती हैं कि केहू तरे एक बाली पर जीवन चलत बाs.

किसी तरह गुजर-बसर करती तीला देवी

मौके पर ही हमारी मुलाकात मनोज से हुई. मनोज कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के बीच वापस आए हैं. सिकन्दराबाद के किसी राइस मिल में मजदूरी करते थे. हमारे इस सवाल पर कि सरकार तो आप जैसे मजदूरों के लिहाज से -स्किल मैपिंग- की बात कह रही. क्या आपके स्किल की भी मैपिंग हुई? – “मनोज सरकार के ऐसे किसी भी प्रोग्राम से अनभिज्ञता जताते हैं. कहते हैं कि 10,000 रुपया लगा वापस आने में, हालत खराब हो गई. कहीं पैदल तो कहीं बस से चलकर आए. इधर कमाई पूरी तरह ठप है.” फिर से वापस लौटने के सवाल पर मनोज कहते हैं, ‘डर है साहब, कि कहीं लौटे और फिर कुछ हो गया. तो क्या करेंगे? यहां भी कोई साधन नहीं है लेकिन अपनों के बीच किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं.’

लॉकडाउन के बाद किसी-किसी तरह गांव लौटे मनोज, बिना किसी काम धंधे के काट रहे समय

इसी बस्ती में हमें मिली बदामी देवी कहती हैं, ‘हमरा खाली बैसाखी (वैशाख के फसल और बाली) का ही आस है. भदई फसल हर बार दह (बह) जाता है. ऐसन होखला कि दहाई तs जाई आs नs दहाई तs आई. सब किस्मत भरोसे है.” बदामी देवी की कही बात में वहां खड़े तमाम ग्रामीणों का दर्द भी है और व्यथा भी- जीवन एक बाली के ही सहारे चल रहा. दहाड़ के जद में जा चुकी एक फसल के मुआवजे के लिए भी अब मुखिया का ही मुंह ताकना है. हो सकता है चुनाव आने को हैं और सरकार की ओर से भेजा जा रहा पैसा इन ग्रामीणों को भी मिल जाए या नहीं भी…

दरवाजे पर मोटरसाइकिलों के बजाय डेंगियां ही बढ़ा रही शोभा- जरूरत पर वही बनती हैं सहारा…