नायिका अपना चेहरा हटाती है नायक के सीने से। थामती है उसकी बांहें हथेलियों में और कहती है, ‘‘ तू अगर मुझे छोड़कर जाना ही चाहता है तो अपना मन कच्चा झनकर। ये ले मेरा हाथ, हैण्ड शैक कर, जिलेम्बू नहीं हां, हैंड शैक बस। कह ओ.कैय और मैं भी कह दूंगी ओ.कैय। निश्चिन्त रह, बाद में मैं सिगरेट नहीं पीऊंगी, सिगरेट मैं पीती नहीं। निश्चिन्त रह, आंसू भी नहीं पीऊंगी, मैं आंसू भी नहीं पीती रे। मैं ना, कुछ और ही हुई, लाटे की जीन सिम्मंस। जाने कैसी–जैसी हुई रे मैं।’’
प्यार में जब ‘ओ.कैय’ हो जाए तो यह मान लेना चाहिए कि दो आत्माओं और दो शरीरों के बीच कुछ भी शेष नहीं रह गया और जो रह गया वह मौन है, एक चुप्पी है उन सभी सपनों और भविष्य का जो जिया जा सकता था, जो घट सकता था लेकिन मन की तहों के बीच अनजाने में नहीं बल्कि जान–बूझकर गुम हो गया. बेबी और डीडी साथ में बहुत कुछ हो सकते थे लेकिन अलग हो गए. सारी परिस्थितियों को ओ.कैय कहकर. बेबी धीरे–धीरे बेबी को मारती गई और मैत्रेयी होती गई और डीडी धीरे–धीरे डीडी से भागता गया और देवीदत्त हो गया.
यह कहानी है कसप की. जो कोई भी हिंदी साहित्य में रुचि रखते हैं, उनकी नजर कभी न कभी इस किताब पर पड़ती जरूर है। इस किताब की कहानी पहाड़ी पृष्ठभूमि से होते हुए, महानगर से विदेश तक पहुंचती है और फिर यह प्रेम कहानी खत्म होते-होते जरा सी रह जाती है। भला कहानियां कभी खत्म होती हैं, वह तो नदी की तरह बहती रहती है। अब पूरी कहानी जानने के लिए तो आपको कसप पढ़नी ही पड़ेगी। यह किताब दो प्यार में पागल लोगों की कहानी है। एक थोड़ा कम पागल, दूसरा उससे थोड़ा सा ज्यादा पागल।
कसप के लेखक मनोहर श्याम जोशी ने जैसा कि इस किताब में कहा है, ‘‘ प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसंद करता नहीं। खैर, सयाना–समझदार होकर प्यार, प्यार कहां रह पाता है!’’
अक्सर आजकल लोग प्रेम में प्रैक्टिकल होने की सलाह देते हैं। अगर प्रेम भी प्रैक्टिकल और योजनाबद्ध तरीके से हो गया तो इस दुनिया में बच क्या जाएगा बिना किसी लाग लपटे के करने को। डीडी थोड़ा प्रैक्टिकल होने की कोशिश किया और क्या हो गया। वह जिसके लायक बनने की कोशिश कर रहा था, उसे ही खो दिया। लेकिन इसका दोष किसे दें बेबी या डीडी को। किताब पढ़ते समय आप इसके लिए डीडी को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन प्रेम में हों या अन्य रिश्ते में. हमने पूर्व में जो भोगा है, वह लंबे समय तक हमारे साथ चलता है। डीडी हमेशा प्यार से वंचित ही रहा था इसलिए बेबी की बेपनाह मोहब्बत पर उसे पूरी तरह से विश्वास नहीं हो पाता है।
हम जो सोचते हैं, वह लिखते या बोलते समय आधा बर्बाद हो जाता है। यानी हम मन की बातों का शब्दों या अक्षरों में ठीक–ठीक तर्जुमा नहीं कर पाते हैं। शायद डीडी अपनी भावनाओं को बेबी को बता पाने में ही असमर्थ था। डीडी समझता था कि वह बेबी को जिस मन और बुद्धि के साथ पत्र लिख रहा है, बेबी उसे ठीक उसी तरह पढ़ेगी। वह प्यार में बेबी को डीडी ही मान बैठा था जबकि बेबी तो बेबी थी बल!
यही बात किताबों के साथ भी है। लेखक की लिखी हुई किताब जब पाठकों के हाथों तक पहुंचती है तो पाठक उन सारे शब्दों के क्या मतलब निकालेंगे, यह पाठक अपने अनुसार तय करता है। अगर लेखक बारी–बारी से पाठक की बात सुने तो लगेगा कि पाठक उन चीजों के बारे में भी बात कर रहे हैं, जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं था।
डीडी और बेबी की कहानी को बहुत खूबसूरती से बुना गया है और उसी खूबसूरती के साथ किताब में पाठक के साथ लेखक का संवाद भी आता है। लेखक का संवाद पढ़ते समय एहसास होता है कि हम किसी कक्षा में बैठें हैं और हमारे पसंदीदा शिक्षक हमें साहित्य और जीवन पर व्याख्यान दे रहे हैं और इसमें वह डीडी और बेबी को केंद्र में रखकर वह प्रेम की तमाम कोमल और क्रूर बाते बता रहे हैं।
इस किताब की खूबसूरती यह है कि यह जीवन और प्रेम के बेहद करीब है और अलगाव की कहानी भी कहता है लेकिन नफरत के करीब नहीं पहुंचाता है बल्कि जीवन के करीब पहुंचाता है।
आज मनोहर श्याम जोशी की जयंती है। वह हिंदी साहित्य के बेहतरीन उपन्यासकारों में से एक माने जाते हैं।उन्होंने फिल्मों और धारावाहिकों के लिए पटकथा लिखने का भी काम किया।
1 Comment
निर्मोही August 10, 2018 at 5:35 am
इस लेख के लेखक ने भी मनोहर श्याम जोशी के इस उपन्यास के बारे में जो उत्सुकता अपने पाठक तक पहुचाने की कोशिश की है वो बहुत हद तक उस में कामयाब हुए है एक नई कोशिश को मेरा सलाम और बहुत सारा प्यार.