कुछ यूं रहा ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’ लिखने वाले बस कंडक्टर के गीतों का सफर…

कुछ यूं रहा ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’ लिखने वाले बस कंडक्टर के गीतों का सफर…

सन 1940 में एक नौजवान रोजगार की तलाश में जयपुर से चलकर शहर-ए-बंबई में दाखिल होता है। नाम था इक़बाल हुसैन। बंबई पहुँचकर बस की कंडक्टरी करने लगता है। तंगी ऐसी की बहुत सारी रातें बंबई की फुटपाथों पर गुजारनी पड़ीं। वर्षों बाद इसी नौजवान ने फिल्मों के लिए सैकड़ों नग़में लिखे और पूरी दुनिया ने उसे ‘हसरत जयपुरी’ के नाम से जाना।

हसरत जयपुरी की पैदाइश जयपुर में 15 अप्रैल 1922 को हुई थी। इब्तिदाई तालीम जयपुर से ही हासिल की। उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी की तालीम पाई। उर्दू और फ़ारसी अपने नाना से सीखा। शेर-ओ-शायरी विरासत में मिलीं। घर पर शायरी की महफ़िलें जमा करती थीं। नाना फ़िदा हुसैन ‘फ़िदा जयपुरी’ अच्छे शायर थे। हसरत जयपुरी इनसे इस्लाह भी लेते थे। नाना फ़िदा हुसैन साहब मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द आग़ा देहलवी के शागिर्द थे, और इस तरह इनका सिलसिला ग़ालिब स्कूल से जुड़ता है। मौलाना हसरत मोहनी से वे इस कदर मुत्तासिर थे कि उन्होंने अपना तखल्लुस हसरत रख लिया। 17 की उम्र में उन्होंने ग़ज़ल कही। ग़ज़ल का एक शे’र देखें-

किस अदा से वह जान लेते हैं
मरने वाले भी मान लेते हैं

जब हसरत 20 वर्ष के थे तो उनको एक लड़की से मोहब्बत हुई, नाम था राधा। लड़की और उनका घर आमने-सामने था। एकतरफा मोहब्बत थी। खुद तो इजहार न कर सके लेकिन जब शायरी की दुनिया में आये तो ऐसी ग़ज़लें कहीं कि मोहब्बत का इजहार करने वालों की ज़ुबानों पर चढ़ गयीं। उन्होंने खुद कहा है कि शे’रो शायरी की तालीम मैंने अपने नाना जान से हासिल की लेकिन इश्क़ का सबक़ राधा ने सिखाया।

तू झरोके से जो झाँके तो मैं इतना पूछूँ
मेरे महबूब तुझे प्यार करूँ या ना करूँ

रोजगार की तलाश में बंबई पहुंच गए। शुरू में कुछ दिन एक कपड़ा मिल में काम किया फिर बस कंडक्टरी करने लगे। बंबई में रहते हुए भी शायरी का दामन नहीं छोड़ा। मुशायरों में जाते थे। बंबई के ही मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर ने इनको ग़ज़ल पढ़ते सुना तो बड़े प्रभावित हुए। उसी दौरान फिल्म बना रहे राज कपूर को एक गीतकार की तलाश थी। पृथ्वीराज कपूर ने हसरत जयपुरी का नाम उनको सुझाया। फिल्म थी ‘बरसात’। इस फिल्म से उन्होंने फ़िल्मी नग़में लिखने की शुरुआत की और राज कपूर के साथ उनका ये सिलसिला राज कपूर के आखिरी सांस तक चला।

हम हसरत जयपुरी को उनके फ़िल्मी नग़मों से ही ज्यादा जानते हैं। बहुत कम लोगों को ये मालूम होगा कि फ़िल्मी नग़मों के अलावा भी हसरत शायरी करते थे। हसरत बुनियादी तौर पर ग़ज़ल के शायर हैं। ग़ज़ल की तारीफ में उन्होंने कहा है-

है सुहाना ग़ज़ल का सफ़र
ख़त्म होगा ना ये उम्र भर
मीर-ओ-ग़ालिब भी शैदाई थे
इस हसीना पे दोनों बशर
ज़ौक़-ओ-मोमिन भी परवाने थे
है वे शम्अ बड़ी मोअतबर
चलती आई है सदियों से ये
लिखते आये हैं दाग़-ओ-जफ़र
इब्तदा कर गए हैं वली
इंतहा कर गए हैं जिग़र
हर ज़बाँ पर है छाई हुई
दुश्मनों की लगे ना नज़र
इसके हसरत भी शैदाई हैं
बात इतनी सी है मुख़्तसर

कुछ ऐसे ही रंग आपको उनके फ़िल्मी नग़मों में भी देखने को मिलेंगे।

हसरत जयपुरी (तस्वीर स्त्रोत- रेख़्ता)

ग़ज़ल का मानी ही होता है औरत से गुफ़्तगू करना। चूँकि बाद में ग़ज़ल में हर मौजूं पर शे’र कहे जाने लगे। उर्दू ग़ज़ल में औरत का तसव्वुर अलग अलग शायरों के यहाँ अलग अलग है। मीर, ग़ालिब, मोमिन, दाग़, आतिश, नासिख़, जिगर आदि के यहाँ औरत अलग-अलग रूपों में घूम घूमकर आती हैं. फैज़ अहमद फैज़, कैफ़ी, मजाज़, मख़दूम के यहाँ भी औरत का तसव्वुर है लेकिन रवायती उर्दू शायरी से एकदम अलहदा। हसरत के यहाँ भी औरत का तसव्वुर है, देखें-

औरत नहीं होती तो जहां कुछ नहीं होता
दिल जिस पे न्योछवार है वह दिलदार है औरत

औरत के मरातब भी कोई कम तो नहीं
दुनियाई मोहब्बत की अलम्बरदार है औरत

हसरत जयपुरी की एक मशहूर ग़ज़ल है जो कैफ़ी की नज़्म “औरत” की याद दिलाती है। एक शे’र देखें-

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जाने ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुए बंधन से निकल

हसरत ने रवायती ग़ज़ल से हटकर ग़ज़लें भी कही हैं लेकिन उससे अपना दामन नहीं छुड़ा पाये हैं या यूँ कहें कि छोड़ नहीं पाये हैं। इनके यहाँ भी हिज्र, विसाल और रक़ीब

हम रातों को उठ उठ के जिन के लिए रोते हैं
वो ग़ैर की बाँहों में आराम से सोते हैं

(नेहा कक्कड़ का एक गाना हाल ही में आया जिसका मुखड़ा यही है बस दो तीन अल्फ़ाज़ हटा दिए गए हैं)

दीवार है दुनिया इसे राहों से हटा दे
हर रस्म-ए-मोहब्बत को मिटाने के लिए आ

मतलब तिरी आमद से है दरमाँ से नहीं है
‘हसरत’ की क़सम दिल ही दुखाने के लिए आ

हसरत मुशायरों में भी शिरकत करते थे। इनकी ग़ज़लों का एक मजमुआ ‘आबशार ग़ज़ल” 1989 में मंज़रे आम पर आया. इसमें कुल 128 ग़ज़लें हैं। 1989 में नई दिल्ली के भीतर हुए आलमी उर्दू कांफ्रेंस में इन्हें जोश मलीहाबादी आलमी अवार्ड दिया गया। हसरत की ग़ज़लों में एक ख़ास बात ये है कि उनकी भाषा एकदम आमफहम है। उनके मजमुए के पेशलफ़्ज़ में फैयाज रक़ात ने लिखा है- “हसरत जयपुरी की लफ़ज़ियात क़दीमो जदीद का बेहतरीन इमत्ज़ाज है। मगर इन्होंने क़दीम लफ़्ज़ों को शक्ल अता की है।”

हसरत जयपुरी ने 350 फिल्मों के लिए 2000 गाने लिखे, और एक से एक बेहतरीन नग़में। एक ज़माना था कि शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र और हसरत ने फ़िल्मी दुनिया में धूम मचा रखी थी। हसरत के मशहूर फ़िल्मी नग़में हैं- हम तुम से मोहब्बत करके सनम (आवारा, 1951), इचक दाना बीचक दाना (श्री 420, 1955), आजा सनम मधुर चांदनी में हम (चोरी चोरी, 1956), जाऊं कहा बता ए दिल (छोटी बहन, 1959), एहसान तेरा होगा मुझपर (जंगली, 1961), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को (ससुराल, 1961), तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं (आस का पंछी, 1961), इब्तिदाए इश्क में हम सारी रात जागे (हरियाली और रास्ता, 1962) बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है (सूरज, 1966), दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई (तीसरी कसम, 1966), कौन है जो सपनों में आया (झुक गया आसमान, 1968), रूख से जरा नकाब उठाओ मेरे हुजूर (मेरे हुजूर, 1968), पर्दे में रहने दो पर्दा ना उठाओ (शिकार, 1968) जाने कहां गए वो दिन… (मेरा नाम जोकर, 1970) और जिंदगी एक सफर है सुहाना (अंदाज, 1971)।

हसरत ने जो आखिरी गाना लिखा था उसके बोल थे- तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे। लगता है हसरत ने ये खुद अपने लिए लिखा था। वाकई हसरत को भुलाया नहीं जा सकता। वे 77 साल की उम्र में 17 सितंबर 1999 को अलविदा कह गए।

हसरत हमारे दम से है ये सुर्खे शफ़क़
ये चरख खूं रोयेगा गर हम नहीं रहे…

यह आलेख हमें विष्णु प्रभाकर ने लिखकर भेजा है. विष्णु ने यूनाइटेड कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है और फिलवक्त ‘समकालीन जनमत’ के सम्पादक मंडल के सदस्य हैं…