महासमर 2019 के मद्देनजर चुनावी बिसात बिछने लगी है. स्थापित दल नए गठजोड़ और समीकरण बना रहे हैं. नए दल कहीं सट तो कहीं से हट रहे हैं. टिकट के दावेदार रातोंरात पार्टियां बदल रहे हैं. इसी क्रम में कांग्रेस ने भी अपना कथित ब्रम्हास्त्र चला दिया है. अब तक खुद को रायबरेली और अमेठी तक महदूद रखने वाली प्रियंका को पार्टी ने बड़ी जिम्मेदारी देने का फैसला किया है. उन्हें पार्टी का महासचिव बनाने के साथ ही उत्तरप्रदेश की 40 सीटों का जिम्मा दिया गया है. उन्हें यह महत्वपूर्ण रोल देने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मीडिया से बातचीत में कहा कि कांग्रेस बैकफुट पर खेलने के मूड में नहीं है. वह फ्रंटफुट पर खेलेगी. ऐसे में सवाल उठने लाजमी हैं कि आखिर प्रियंका की इंट्री से ही एकाएक कैसे कांग्रेस एकदम से फ्रंटफुट पर खेलने लगेगी?
प्रियंका के मार्फत कितनी होगी वोटों की बारिश?
यह तो तय सी बात है कि प्रियंका मीडिया और आम जनता के लिए आकर्षण का केन्द्र रहेंगी. तिस पर से उनके इर्दगिर्द बनाया जाने वाला एक आभामंडल, लेकिन बड़ा सवाल तो यह है न कि क्या वह कांग्रेस के पक्ष में वोटों की बारिश करा पाएंगी? इस सवाल के जवाब में कांग्रेस के पूर्व विधायक सह 14 के चुनाव में वाराणसी लोकसभा से कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय कहते हैं कि प्रियंकाजी के आने से निश्चित तौर पर परिवर्तन की लहर चल गई है. यूपी ही नहीं पूरे देश के भीतर कांग्रेस आ रही है.
इसी सवाल पर पूर्वांचल की राजनीति को नजदीक से देखने वाले पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव कहते हैं कि, ‘देखिए प्रियंका के आने से चुनाव का माहौल खुशनुमा हो सकता है. सीटों के मामले में उन्हें कोई खास कारनामा होता नहीं दिख रहा. महागठबंधन के पक्ष में एक मजबूत जातीय समीकरण है और प्रियंका उसमें सेंध लगाती नहीं दिखतीं. तिस पर से यदि प्रियंका खुद चुनाव लड़ीं तो और भी मुश्किल हो जाएगा. संगठन का काम देखना और खुद भी चुनाव लड़ना बड़ी बात है. उनसे इतनी मेहनत शायद ही हो पाए.
रायबरेली और अमेठी के हवाले से…
प्रियंका की इंट्री और वोटों की बारिश पर अमेठी के रहने वाले और फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थी परिषद के लिए सक्रिय आशुतोष कहते हैं कि उन्हें तो प्रियंका आ जाने से कुछ खास बदलाव होता नहीं दिखता. वे तो अपने स्कूली दिनों से उनकी रैलियां देखते रहे हैं. अपनी कही बात की मजबूती के लिए वे अमेठी और रायबरेली के विधानसभा चुनाव का हवाला देते हैं. वे कहते हैं कि गांधी परिवार की तमाम सक्रियता के बावजूद ऐसी कई सीटें हैं जहां कांग्रेस तीसरे पायदान पर चली जाती है. प्रियंका तो वहां भी प्रचार करने आती-जाती रही हैं. यहां हम आपको बता दें कि रायबरेली और अमेठी लोकसभा के भीतर कुल 10 विधानसभा सीटें हैं और कांग्रेस के पास सिर्फ 2 सीटें हैं.
ग्लैमर तो आएगा लेकिन वोट?
प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में पदार्पण की खबरों के साथ ही सोशल मीडिया सेंसेक्स उफान मारने लगा. लोग पक्ष और विपक्ष में लिखने लगे. कांग्रेसी तो उनमें पहले से इंदिरा की छवि देखते रहे हैं लेकिन जब हम यही सवाल अभिषेक श्रीवास्तव से करते हैं तो वे सपाट जवाब देते हैं. देखिए कांग्रेस का पारंपरिक वोटर उनसे छिटक गया है और प्रियंका उस वोट को वापस लाने की स्थिति व मजबूती में नहीं दिखतीं.
वे आगे कहते हैं कि यदि कोई वोट हाल ही में किसी से छिटका भी है तो वो घरवापसी के लिए कांग्रेस के पास क्यों जाए? ऐसी स्थिति यूपी और बिहार की है. प्रियंका अधिक से अधिक यूपी के नाराज ब्राम्हणों और कहीं-कहीं मुसलमानों को खींच पाएंगी. वो भी प्रत्याशी पर निर्भर करेगा. भाजपा के खिलाफ बन रहे समीकरण पर निर्भर करेगा. हां, ऐसा हो सकता है कि कांग्रेस और शिवपाल मिलकर कोई जुगत भिड़ाएं. जैसी कि बातें भीतरखाने में हो रही हैं. तो वे जरा सा कन्फ्यूजन क्रियेट कर सकते हैं लेकिन इसे प्रियंका इफेक्ट कहना जल्दबाजी होगा.
प्रियंका में इंदिरा का अक्स?
कांग्रेसी तो लंबे समय से प्रियंका को चुनावी समर में कूदने की अपील करते रहे हैं. ऐसा कई बार हुआ भी कि उन्हें आमंत्रित करते पोस्टर्स व बैनर पूर्वांचल के कई हिस्सों में लगे लेकिन वह परिवार का हवाला देकर बचती रहीं. उनके कैंपेन करने के दौरान प्रियंका नहीं ये आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है के नारे लगते रहे हैं लेकिन इस बार उनके विपक्षी भी निर्मोही हैं. अमित शाह और नरेन्द्र मोदी अपने विपक्षियों को निपटाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेने से गुरेज नहीं रखते.
आखिर यूं ही कांग्रेस समर्थक प्रियंका गांधी से मोदी और शाह की लंकादहन की गुहार थोड़े न लगा रहे. इस बात में शायद ही कोई विवाद हो कि प्रियंका को लंबाई और खूबसूरती विरासत में मिली है, तिसपर से उनका खुद को इंदिरा की तरह ही आगे लेकर चलने की कोशिश करना. चुनाव के दौरान इंदिरा की ही तरह साड़ी पहनकर प्रचार-प्रसार करना इंदिरा की याद तो दिलाता ही है लेकिन सिर्फ खूबसूरती और यादों के दम पर राजनीति कहां चली है, चली है क्या?