क्या बेगूसराय को कम्युनिस्टों का गढ़ कहना सच के बजाय झूठ पर आधारित है?

क्या बेगूसराय को कम्युनिस्टों का गढ़ कहना सच के बजाय झूठ पर आधारित है?

देश में आचार संहिता लग चुकी है. देश का सियासी माहौल दिन-रात गरमाता ही जा रहा है. सियासी माहौल के साथ ही तापमान भी बढ़ने लगा है. अलग-अलग गठबंधन बन रहे हैं. कहीं लोग जुट रहे हैं तो कहीं छिटक रहे हैं. सबंधित धर्मों और जातियों के कथित नेता एवं मतदाता अपनी प्रतिनिधित्व को लेकर बेचैन हैं. यहां तक कि छोटी-छोटी पार्टियां और सबंधित नेता गण बड़ी पार्टियों से प्रतिनिधित्व मांग रहे हैं, लेकिन इसी बीच बिहार में लगभग 20 प्रतिशत की आबादी वाले मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को समाप्त करने की कोशिशें भी की जा रही हैं.

यहां हम स्पष्ट कर दें कि बात बेगूसराय की हो रही है. लेनिनग्राद के नाम से चर्चित बेगूसराय. कभी कम्युनिस्ट पार्टी के गढ़ के तौर पर चर्चित बेगूसराय, लेकिन आज इस बात और नैरेटिव में अधिक दम नहीं दिखता. इस बात को और भी स्पष्ट करने के लिए हालिया राजनीतिक क्रम को देखा जा सकता है, तस्वीर और भी साफ होगी. हालांकि इसी नैरेटिव को आधार बनाकर अलग-अलग गठबंधनों में भी कम्युनिस्ट पार्टियां इस सीट पर अपना दावा ठोकती हैं. इस चुनाव में भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियां बनती दिख रही हैं, जबकि बेगूसराय को परंपरागत तौर पर मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिलाने वाली सीट के तौर पर भी देखने के पर्याप्त दावे और आंकड़े मौजूद हैं.

यहां हम आपको बता दें कि साल 2009 में जद(यू) के डॉ मोनजीर हसन यहां से सांसद निर्वाचित हुए थे. बीते लोकसभा चुनाव मोदी लहर के बावजूद राजद के बैनर तले पूर्व विधानपरिषद डॉ तनवीर हसन मजबूती से लड़े और सम्मानजनक वोट बटोरे. अभी स्थितियां बहुत हद तक स्पष्ट नहीं लेकिन ऐसा महसूस किया जा सकता है कि जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की सक्रियता ने मुस्लिम प्रतिनिधित्व को खटाई में डालने का काम तो कर ही दिया है.

कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ बेगूसराय?
यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि आज बेगूसराय को कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ कहे जाने वाली बात में अधिक दम नहीं. भले ही कभी लोग उसे लेनिनग्राद कहते रहे हों. कम्युनिस्ट पार्टी की बात किए जाने पर हमें इसे समग्रता में देखने की कोशिश करनी होगी. तो जरा पीछे जाकर आंकड़ों को देखते हैं.

गौरतलब है कि आजादी से लेकर अब तक केवल साल 1967 में ही कम्युनिस्ट पार्टी यहां जीत दर्ज कर पाई है. जबकि साल 1962 के आम चुनाव में अख्तर हाशमी, 1971 में योगेन्द्र शर्मा और 2009 के आम चुनाव में शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के बैनर तले लड़ते हुए दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा.

विधानसभा चुनाव में वोट मांगते कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार का पोस्टर

1977 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के इन्द्रदीप सिंह को 72,096 वोट, 1998 में रमेन्द्र कुमार को 1,44,540, 1999 के चुनाव मे सीपीआई(एमएएल) के शिवसागर सिंह को 9317 और 2014 के लोकसभा चुनाव में जद(यू) के गठबंधन के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को 1,92,639 वोट मिले और इन्हें तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा.

बात यहीं खत्म हो जाती तब भी ठीक था लेकिन साल 1980, 1984, 1989, 1991, 1996 और 2004 के आम चुनावों को देखें तो कम्युनिस्ट पार्टी इस संसदीय सीट पर अपना प्रत्याशी तक न उतार सकीं. ऐसे में सवाल उठने तो लाजमी हैं कि आखिर बेगूसराय कम्युनिस्ट राजनीति का गढ़ किस आधार पर है?

जरा एक नजर विधानसभाओं पर
बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत चेरिया बरियारपुर, साहिबपुर कमाल, बेगूसराय, मठियानी, तेघरा, बखरी और बछवाड़ा विधानसभा आते हैं. चेरिया बरियारपुर से अब तक केवल एक बार 1980 के विधानसभा चुनाव मे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सुखदेव महतो विधायक चुने गये. साहिबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र से अभी तक एक भी कम्युनिस्ट प्रत्याशी नहीं जीत सका है. बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र को देखें तो आज़ादी के बाद से अब तक ऐसा सिर्फ तीन बार हुआ है कि कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को जीत मिली है. कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक राजेन्द्र सिंह ने साल 1995 में यहां से जीत दर्ज की थी. मठियानी विधानसभा की कहानी भी जुदा नहीं. तीन बार चुनाव जीतने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को साल 2000 के बाद जीत नहीं मिल सकी है. तेघरा विधानसभा में कम्यूनिस्ट पार्टी लगातार 2010 से ही विधानसभा का चुनाव हार रही है.

यहा यह बताना जरूरी है कि बेगूसराय लोकसभा के भीतर बखरी और बछवाड़ा विधानसभा ही वामपंथी राजनीति को कुछ हद तक बच पाए हैं. बखरी विधानसभा क्षेत्र ( सुरक्षित ) से कम्युनिस्ट पार्टी आखिरी बार 2005 में चुनाव जीतने में सफल रही थी.

बछवाड़ा विधानसभा पर नजर डालें तो कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों ने यहां चार बार जीत दर्ज की है. वे यहां अंतिम विधानसभा चुनाव साल 2010 में जीते थे. ऐसे में बेगूसराय को कम्युनिस्टों के गढ़ के तौर पर प्रचारित व प्रसारित किया जाना उचित नहीं जान पड़ता.

मौजूदा दौर को ही देखें तो कम्युनिस्ट पार्टियों के तीन विधायक हैं और उनमें से एक भी बेगूसराय का नहीं है. ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही कि जिस लोकसभा में एक भी कम्युनिस्ट पार्टी का विधायक न हो उसे कैसे कम्युनिस्टों का गढ़ कहा जाए?

एक नजर बीते दो लोकसभा चुनावों पर
बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी भोला सिंह यहां से जीत दर्ज करने में सफल रहे. दूसरे नंबर पर डॉ तनवीर हसन थे. उन्हें कुल 3,69,892 वोट मिले थे. जद(यू) समर्थित कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह को 1,92,639 वोट मिले. साल 2009 के आम चुनाव में शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को 1,64,843 मिले. यदि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को साल 2009 और 2014 में मिले वोटों को जोड़ भी दें तब भी वे तनवीर हसन के बराबर नहीं पहुंच पाते. वो भी तब जबकि पूरे देश में कथित तौर पर मोदी लहर चल रही थी.

उपरोक्त आंकड़े इतना बताने के लिए काफी हैं कि बेगूसराय अब कम्युनिस्ट पार्टियों का गढ़ नहीं रहा. जबकि पूर्वी चम्पारण (मोतिहारी), नालंदा, नवादा, मधुबनी और जहानाबाद जैसी सीटों से कम्युनिस्ट पार्टियां दो बार से अधिक बार जीत दर्ज कर चुकी हैं. बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र से महज एक बार ही कम्युनिस्ट पार्टी जीत दर्ज कर पाई है. ऐसे में प्रश्न उठने तो लाजमी हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों बेगूसराय सीट पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर रही हैं?

बीते साल सीपीआई की ओर से गांधी मैदान में आहुत रैली में कन्हैया कुमार

ऐसा कई लोगों का कहना है कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं इसलिए कम्युनिस्ट कोटे से बेगूसराय की सीट कम्युनिस्टों को ही मिलनी चाहिये. अब इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि कन्हैया कुमार राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं, लेकिन उनकी नजरें बेगूसराय पर ही टिकी हुई हैं. मोतिहारी, नवादा, नालंदा, मधुबनी, जहानाबाद भी तो कम्युनिस्टों के गढ़ रहे हैं, पहले से भी पार्टी के सांसद निर्वाचित होते रहे हैं, फिर बेगूसराय ही क्यों?

बीते लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने बनारस में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ना चुना. भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने भी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ने की बात कही है. हार्दिक पटेल ने भी ऐसी मंशा जाहिर की है. फिर ऐसा क्यों है कि कन्हैया कुमार मुसलमान समुदाय के हिस्से में जाने वाली सीट से ही लड़ने को उतावले हैं? ऐसा क्यों है कि बेगूसराय में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को खत्म करने के प्रयास हो रहे हैं, और ऐसा तब है जबकि वामपंथी पार्टियां सामाजिक न्याय और समानुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ ही दलित-मुस्लिम पहचान को मजबूत करने की बातें कहती नहीं थकतीं…

यह लेख तारिक अनवर चंपारणी ने लिखा है. जामिया मिल्लिया इस्लामिया और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था (TISS) से पढ़ाई करने के बाद वे वर्तमान मे बिहार के किसानों के साथ काम कर रहे हैं.