क्या हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका ज्यादातर सिर्फ संतुलन बनाने के लिए होती है?

क्या हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका ज्यादातर सिर्फ संतुलन बनाने के लिए होती है?

भारत जैसा देश, जहां समाज जाति, धर्म और लिंग (जेंडर) की बेड़ियों में बंधा है, वहां महिलाओं का फ़िल्मों में काम करना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आज भले ही फिल्मों में महिलाओं का काम करना सामान्य बात हो, लेकिन फिल्मों की शुरुआती दौर में ये बिल्कुल भी सामान्य नहीं था। पहली हिंदी फिल्म दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्मित ‘राजा हरिश्चंद्र 1913 में रिलीज़ होती है। जब दादा साहेब फाल्के ने इस फ़िल्म को बनाने का निर्णय लिया तो उन्हें एक महिला की आवश्यकता थी, जो राजा हरिश्चंद्र की पत्नी की भूमिका निभा सके।

इस किरदार के लिए दादा साहेब फाल्के ने कई महिलाओं से संपर्क किया लेकिन उस वक्त कोई महिला फ़िल्म में काम करने लिए तैयार नहीं हुई। फिर उन्होंने वेश्यावृत्ति करने वाली एक महिला से उसकी बेटी को फ़िल्म में काम करने के लिए सम्पर्क किया था। तब उस महिला ने साफ़ कहा था कि आप मेरी बेटी से शादी कर लें, फ़िर आप उससे फिल्मों में काम करा सकते हैं।मुझे कोई एतराज नहीं होगा दादा साहेब फाल्के ने शर्त नहीं मानी। अंत मे उन्हें राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का किरदार एक पुरूष से कराना पड़ा। मैं यहां आपको बता दूं कि इस फिल्म में सभी महिला पात्र पुरुषों द्वारा ही निभाए गए हैं।

राजा हरिश्चंद्र फिल्म का एक दृश्य

हमारा विषय फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को लेकर है। फिल्मों में महिलाओं की भूमिका फ़िल्म के विषय से तय होती है। यदि फ़िल्म ऐतिहासिक घटना, समकालीन घटना या पौराणिक पृष्ठभूमि पर है तो महिला पात्रों की भूमिका पहले से तय होती है। यदि फ़िल्म किसी व्यक्ति के जीवन पर बनती है तो इसमें पुरुष या महिला पात्रों का विश्लेषण उचित नहीं होगा। प्रेम विषय पर आधारित फिल्मों में अभिनेता व अभिनेत्रियों की समान भूमिका देखी जाती है। किंतु जो फ़िल्में काल्पनिक विषयों को लेकर बनती है उनमें पात्रों की भूमिका कम ज़्यादा होने की गुंजाइश अधिक होती है। भारतीय सिनेमा के आरंभिक दौर की फिल्में दो तीन स्रोतों से अपनी कहानियां चुनती थीहिन्दू पुराणों तथा मिथकों से, पारसी थियेटर से अथवा उपलब्ध साहित्यिक कृतियों से। लेकिन समय-समय पर कुछ फिल्मकारों ने भारतीय सिनेमा की इस परिपाटी को तोड़कर कुछ नए प्रश्न उठाए और सिनेमा के पटल पर नए चरित्र लेकर आएं।

इन फिल्मकारों में महबूब खान, वी शांताराम और अमिय चक्रवर्ती जैसे फिल्मकार प्रमुख थे। सिनेमा में स्त्रियों को कितना और कैसे चित्रित किया जाएगा ये काफी हद निर्देशक की संवेदनशीलता और कहानी की मांग पर निर्भर था। फिल्मों में स्त्रियों की प्रमुखता चित्रित करने के लिए वी शांताराम कीदुनिया ना माने और महबूब खान  कीऔरत उल्लेखनीय है। ‘औरत’ ही बाद में ‘मदर इंडिया’ का रूप लेकर जनमानस की स्मृति में अमर हो गई। यहीं वो समय था जब सिनेमा समय-समय पर सामाजिक रूप से हेय समझे जाने वाले मुद्दों को उठाकर अपनी सीमाओं में विस्तार करता रहा।

फिल्म ‘किस्मत’ (1943) में पहली बार लिव इन और बिना विवाह गर्भवती होने का प्रसंग फिल्मों में देखने को मिलता है। यहीं वो समय भी था जब फीयरलेस नाडिया अपनी फिल्मों में एकछत्र नई कंबंकर राज कर रही थी और देविका रानी जैसे कलाकार अपने दम पर पूरा स्टूडियो संभाले हुए थीं। आरंभिक फिल्मों की कहानी विषय को ध्यान में रख कर लिखी जाती थी। महबूब खान निर्देशित ‘मदर इंडिया’ (1957) में एक विधवा महिला की कहानी है, जो अपने बच्चों का पेट पालने के लिये ख़ुद हल जोतने से भी नहीं डरती है। के० आरिफ़ की ‘मुग़लआजम’ (1960) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बनी प्रेम आधारित विषय पर है। फ़िल्म पूरी तरह से ऐतिहासिक होने की गारंटी नहीं देती है। फ़िल्म में महिला पात्रों की भूमिका को कम ज्यादा करने की पूरी गुंजाइश थी, लेकिन फ़िल्म में मधुबाला (अनारकली), व दुर्गा खोटे (जोधा भाई) का पात्र मजबूत था और कहानी उनके बिना नहीं कही जा सकती थी।

फिल्म मदर इंडिया औऱ मुगल-ए-आजम का पोस्टर

इसी प्रकार गुरु दत्त की ‘प्यासा’ (1957) और ‘कागज़ के फूल’ (1959) में वहीदा रहमान का किरदार नायक के बराबर महत्व रखते है। ‘साहिब बीवी और ग़ुलाम’ (1962) फ़िल्म की कल्पना मीना कुमारी (छोटी बहू) और वहीदा रहमान(जबा) के बिना नहीं की जा सकती थी। हालांकि विजय आनंद निर्देशित ‘गाइड’ (1965) महिला केंद्रित फ़िल्म है, किन्तु फ़िल्म पुरुष और महिला पात्रों को बराबर की जगह प्रदान करती है। ‘नदिया के पार’ (1982) फ़िल्म की कल्पना सविता बजाज (गुंजा) की भूमिका के बिना नहीं की जा सकती है। फ़िल्म ‘आँधी’ (1975) में सुचित्रा सेन (आरती देवी) और संजीव कुमार(जे के) दोनों का रोल बराबर महत्वपूर्ण है। ‘नगीना’ सीरीज की फ़िल्मों में श्रीदेवी की भूमिकाएं महत्वपूर्ण है।

‘उमराव जान’, ‘मंडी’, ‘बाज़ार’, ‘चाँदनी बार’, ‘चमेली’, ‘बेग़म जान’ जैसी वेश्यावृत्ति पर आधारित फ़िल्मों में विषय की मांग के कारण महिला कलाकारों को अधिक महत्व दिया गया है। ‘चुपके चुपके’ (1975) में जया बच्चन और शर्मिला टैगोर को कहानी के साथसाथ स्क्रीन में भी अच्छा हिस्सा मिला है। ‘प्रेम रोग’ (1982) महिला आधारित फ़िल्म है, जो विधवा महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालती है और विधवा पुर्नविवाह की वक़ालत करती है। ‘आस्था’ (1996) महिला केंद्रित फ़िल्म है, जो विवाहेत्तर संबंधों पर केंद्रित है। यह फ़िल्म विवाहोत्तर संबंधों को सही नही ठहराती है।

फिल्म जगत का संतुलनवादी रवैया

अगर आप गौर करें तो कई फिल्मों में संतुलनवादी तरीका अपनाया जाता है। इन फ़िल्मों की कहानी में अभिनेत्रियों की ख़ास भूमिका नहीं होती है। लेकिन एक फ़िल्म में जितने अभिनेता होते हैं उतनी ही अभिनेत्रियों को रखना आवश्यक हो जाता है। फ़िल्म ‘ख़ानदान’ (1965) महिला कलाकारों के प्रति संतुलनवादी रूप प्रस्तुत करती है। मुख्य कहानी में नूतन (राधा) व मुमताज़ की भूमिका अधिक नहीं है, किन्तु दो हीरो होने के कारण दो अभिनेत्रियां हैं। यही बात ‘शोले’ (1975) के विषय में भी कही जा सकती है। फ़िल्म की कहानी में दोनों अभिनेत्रियों की ख़ास भूमिका नहीं है। फ़िल्म में हेमा मालिनी की पात्र बसंती को हँसीमज़ाक और हिंसा से उपजे तनाव को कम करने के लिए रखा गया है। वहीं जया बच्चन की पात्र राधा को मुख्य कथा को अतीत में ले जाने के लिए और अभिनेताअभिनेत्रियों का संतुलन बनाने के लिए रखा गया है।

फ़िल्म ‘अमर अकबर एंथनी’ (1977) में बॉबी परवीन, शबाना आज़मी, नीतू सिंह तीनों अभिनेत्रियों की मुख्य कथा में ख़ास भूमिका नहीं है। फ़िल्म के पहले आधे भाग में अभिनेत्रियों की भूमिका नगण्य है, किन्तु संतुलनवादी नियम के तहत तीन अभिनेत्रियां है। फ़िल्म ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) में आशा पारेख और लक्ष्मी छाया को इसी संतुलनवादी नियम के तहत रखा गया है।

अभिनेत्री श्री देवी के हिस्से में कई फिल्में ऐसी आयी जो या तो महिला प्रधान थी या फ़िर उनका रोल बहुत महत्वपूर्ण था। ‘सदमा’ (1983), चाँदनी’ (1989), ‘चालबाज़’ (1989), मिस्टर इंडिया’ (1987) ऐसी ही फ़िल्में हैं। 1990 के दशक की फिल्मों में प्रेम मुख्य विषय के रूप में स्थापित होता है प्रेम पर बनी कई फिल्मों ने सफलता के झंडे गाड़े हैं। प्रेम विषय पर बनी फिल्में में अभिनेता व अभिनेत्रियों के समान भूमिका की मांग होती है। इस दौर के अनेक फिल्मों में अभिनेता व अभिनेत्रियों की भूमिका फ़िल्म में बराबर थी जैसे ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ (1995), कुछ कुछ होता है’ (1998), दिल’ (1990), आशिक़ी’ (1990), राजा’ (1995), राजा हिंदुस्तानी’ (1996), इश्क़’ (1997) आदि।

वहीं कई फ़िल्में अभिनेत्री केंद्रित ही थी, जैसे ‘हम दिल दे चुके सनम’ (1999), साजन’ (1991), धड़कन’ (2000) आदि इन फिल्मों की कहानियां महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती है। धड़कन (2000) एक साथ कई नियमों को साथ लेकर चलती है फ़िल्म शिल्पा शेट्टी (अंजलि) के इर्द-गिर्द घूमती है और महिमा चौधरी (अजंलि वर्मा) को संतुलनवादी नियम के तहत रखा गया है, जबकि उनकी मुख्य कहानी में कोई भूमिका नही है।

 फिल्म उद्योग की शक्ति संरचना, जिसने महिला किरदारोंं पर असर डाला

फ़िल्म उद्योग की संरचना ने फिल्मों के विषय और बनने की प्रक्रिया को गहराई से प्रभावित किया है। फिल्मों के बनने में प्रभाव स्थापित होने के तीन चरण होते हैं। प्रथम चरण में जब फ़िल्म निर्माता और निर्देशक के नियंत्रण में रहने पर फ़िल्म विषय के आधार पर बनती हैइस स्तर में वही होता है जो कथा में तय होता है।द्वितीय चरण में जब किसी अभिनेता या अभिनेत्री का प्रभाव फ़िल्म में ज़्यादा होता है तो इसका प्रभाव साथी कलाकारों के पात्र और उनके स्क्रीन शेयर पर दिखाई देता है। इसमें मुख्य कलाकार की भूमिका अपने पात्र को ज्यादा दिखाने और साथी कलाकारों के भाग को फ़िल्म में कम दिखाने की होती है। तीसरे चरण में जब कोई फिल्म किसी अभिनेता या अभिनेत्री के प्रोडक्शन हाउस में बनती है। ऐसे में बहुत संभावना होती है कि इसमें बाक़ी कलाकार नाम मात्र के होंगे। ऐसी परिस्थिति में सबसे पहले नुकसान महिला कलाकारों के पात्रों पर होता है।

इसी शक्ति संरचना से महिला कलाकारों के फिल्मों में भूमिकाओं पर गिरावट देखी गई है, जिससे महिला कलाकारों की फिल्मों में भूमिका सिर्फ रोमांसनाच और गाने तक सीमित रह गई है इस चलन को ‘दबंग’ (2010), दबंग-2′ (2012) में अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा, गोलमाल-2′ (2010) में करीना कपूर, धूम-3′ (2013) में कैटरीना कैफ, एक्शन जैक्सन’ (2014) में सोनाक्षी सिन्हा की भूमिकाओं से देखा जा सकता है। इनके फ़िल्म में होने या न होने के कहानी में कोई ख़ास फ़र्क नही पड़ता है। अभिनेताओं द्वारा अपना-अपना प्रोडक्शन हाउस खोलने के बाद एक और नई स्थिति देखने को मिलती है। इस स्थिति में निर्माता और अभिनेता एकाकार हो गए हैं। ऐसी फ़िल्मों की कहानी अभिनेता को ध्यान में रखकर ही लिखी जाती है। इन फिल्मों में अभिनेत्रियों की भूमिका न्यूनतम होती है। इस चलन को समझने के लिए ‘बजरंगी भाईजान’ (2015), ट्यूबलाइट’, ‘रेस-3′ (2019) जैसी फिल्मों को देख समझा जा सकता है।

महिलाओं को फ़िल्म में सीमित भूमिका में रखने का विचार आगे जाकर अंग प्रदर्शन जैसे मुद्दों को बढ़ावा देता है। महिला कलाकारों का फ़िल्म की कथा में कोई ख़ास भूमिका न होना उनको वस्तु की तरह प्रस्तुत करने को बढ़ावा देता है। ये चलन साल 2000 के बाद काफ़ी ज़्यादा था ‘मर्डर’ (2004) और ‘आशिक़ बनाया आपने’ (2005) इस बात का उदाहरण हैं। इन दोनों ही फ़िल्मों ने बहुत सफलता हासिल की। नतीजा ये हुआ कि निर्माताओं ने फ़िल्म की कहानी पर ध्यान देना बन्द कर दिया और अभिनेत्रियों को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। हालाँकि इस फ़ार्मूले से शुरुआती सफलता तो मिली लेकिन ये सफलता की गारण्टी नहीं बना सका। पिछले दो दशकों में इस फ़ार्मूले पर कई फ़िल्में आयीं लेकिन सफलता कुछ ही फिल्मों को मिली, जिसके बाद इस चलन में कमी आयी है।

महिला केंद्रित फिल्मों ने दर्शकों का नजरिया बदला है

वैसे आज के दौर में अभिनेत्रियों के लिए हर तरफ़ निराशा नहीं है। पिछले कुछ सालों में दर्शकों का फ़िल्म देखने का तरीका बदला है। इस वजह से फिल्मों के विषय में परिवर्तन भी आया है। ऐसी फिल्में बड़े पैमाने पर बनने लगी है, जिसमें कहानी ज़्यादा मज़बूत होती है। ‘कहानी’ (2012), कहानी-2′ (2016) दोनों फ़िल्मों की कहानी सस्पेंस और थ्रिलर आधारित है, महिला आधारित नहीं लेकिन विद्या बालन ने बिना अंग प्रदर्शन किए अपने अभिनय के दम पर फ़िल्म को सफलता दिलाई। ऐसा ही कंगना रनौत अभिनीत फ़िल्म ‘क्वीन’ (2011), तनु वेड्स मनु’ (2013), तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ (2015) के विषय मे कहा जा सकता है। अगर कथा, पटकथा और अभिनय अच्छा है तो फ़िल्म बिना अंग प्रदर्शन के भी सफल हो सकती है। चाहे वो महिला प्रधान फ़िल्म ही क्यों ना हो साथ ही ये भी साबित हो गया कि अभिनेत्रियों के अभिनय के दम पर भी फ़िल्में चल सकती है।

फिल्मों के विषय और कहानी में आ रही विविधता का कारण विभिन्न माध्यमों से फिल्मों को चुनौती मिल रही है इसकी वजह से पिछले कुछ सालों में महिला विषयों पर केंद्रित ‘पार्च्ड’ (2015), लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा’ (2017), छपाक’ (20202), पंगा’ और ‘थप्पड़’ जैसी फिल्म देखने को मिली है। महिला केन्द्रित इन  फिल्मों ने हिंदी फ़िल्म जगत में विषय परिवर्तन लाने में मदद की है। इन फ़िल्मों से एक आशा भी जगती है। आज ‘दृश्यम’ (2015) जैसी फ़िल्म भी है, जिसमें तब्बू (मीरा देशमुख) के पात्र को विशेष महत्व दिया गया है। अन्यथा तब्बू के पात्र को पुरुष पात्र में ढाल दिया जाता तो भी कथा में कोई अंतर नहीं आने वाला था। यही ‘गोलमाल अगेन’ (2017) में तब्बू (एना) के पात्र के विषय में कहा जा सकता है। और ये बात बहुत सी फिल्मों पर सटीक बैठती है। ‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा’ में कटरीना कैफ का किरदार अगर पुरुष भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर वो किरदार छोटा होते हुए भी महत्वपूर्ण है।

 

द बिहार मेल के लिए यह आलेख अनुराग गौतम ने भेजा है. अनुराग दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी (इतिहास विभाग) हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इससे ‘द बिहार मेल’ की सहमति हो, यह आवश्यक नहीं है.