जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चुनावी बिगुल बज चुका है और आने वाले छः सितंबर को मतदान है. JNU छात्र संघ चुनाव केवल मतदान की ही प्रक्रिया नहीं बल्कि यह एक लंबी प्रक्रिया है और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियां भी अन्य संस्थानों के चुनाव के लिए एक नजीर पेश करती हैं. इस विश्वविद्यालय का चुनाव न हीं केवल कैंपस के मुद्दों पर आधारित है बल्कि इस चुनाव में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी अहम जान पड़ते हैं यदि हम पिछले चार वर्षों के चुनाव का आकलन करें तो हम यह पाते हैं कि इन बीते वर्षों में JNU और इसके चुनाव का स्वरूप बदलता हुआ नज़र आता है और यह बदलाव इस विश्वविद्यालय की प्रकृति को एक नई दिशा की ओर लेकर जा रहा है.
इन चार सालों में वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों के साथ ही साथ कैंपस में आंबेडकरवादी ‘बापसा’ का गठन हुआ है. 2015 में बापसा का पहला प्रेसीडेंसियल कैंडिडेट चिन्मय महानंद पहली बार अध्यक्षीय भाषण के मंच से अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं. उसके बाद 2016 में बापसा का दूसरा उम्मीदवार राहुल सोनपिंपले अध्यक्ष पद पर खडे़ होकर बापसा के वोटों की संख्या बढ़ाते हैं और बापसा को एक सफल पार्टी के तौर पर कैंपस में पेश करते हैं.
बीते साल कैंपस में एक और दल छात्र राजद का गठन होता है और जयंत जिज्ञासु जो कि इस दल से प्रेसिडेंट पद के लिए खड़े हुए थे, अपने दमदार व प्रभावशाली भाषण से छात्र राजद को इस संस्थान में लाते हैं.
भाषण का बदलता स्वरूप
JNUSU चुनाव धन बल से हटकर देश विदेश के मुद्दे पर आधारित होते हैं. छात्रों को आकर्षित करने के लिए हरेक दल तरह- तरह के पर्चे व भाषण से वोट लेने का प्रयास करते हैं. JNU में काउंसलर पद से लेकर अध्यक्ष पद के उम्मीदवार अलग अलग दिनों में अपने भाषण के जरिए अपने विचार व्यक्त करते हैं. अधिकतर भाषण हिन्दी में दिए जाते हैं और ऐसा पाया जाता है कि छात्र व छात्राएं जो गैर हिन्दी भाषी राज्य से आते हैं वो भी अपने विचार हिन्दी में व्यक्त करने की कोशिश करते हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि यहाँ हिन्दी समझने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है.
अब हम भाषण के तत्वों की बात करें तो 14 मिनट के लंबे भाषण में देश- विदेश के मुद्दों की चर्चा अधिक होती है और यह दिखलाता है कि यह संस्थान और यहाँ के लोग किस प्रकार जागरूक है. अध्यक्षीय भाषण बहुत ही लोकप्रिय है और मीडिया कवरेज भी इसे ज्यादा मिलता है, इस मंच से दिए गए भाषण का महत्व इसी एक बात से समझा जा सकता है कि 2015 का कन्हैया कुमार का भाषण इतना दमदार था कि दो दशकों का रिकॉर्ड को ध्वस्त करके AISF को JNUSU प्रेसिडेंट पोस्ट दिलाता है और सालों से जीतती हुई आईसा को पराजित होना पड़ता है.
गौरतलब है कि उक्त वर्ष यूनाइटेड लेफ्ट का गठबंधन नहीं हुआ था और अगले साल SFI- AISA का गठबंधन हुआ जिसे लेफ्ट यूनिटी का नाम गया. उसके उम्मीदवार मोहित पांडे दो दलों का वोट लेकर जीत तो जाते हैं लेकिन सोनपिंपले जो कि बापसा के उम्मीदवार थे, वे अपने प्रभावशाली भाषण की लोकप्रियता के कारण दूसरा स्थान हासिल करते हैं और बापसा एक मजबूत संगठन के रूप में सामने आती है. आने वाले साल 2017 में फारुख आलम जो कि एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, वे भी अपने भाषण के दम पर AISF की मजबूत उम्मीदवार अपराजिता राजा से भी अधिक वोट निकाल ले जाते हैं. गत वर्ष जयंत जिज्ञासु जो कि छात्र राजद से थे, के द्वारा दिया गया भाषण यह दर्शाता है कि JNUSU के मंच से दिए गए भाषण के आधार पर काफी वोट अपनी ओर खींचा जा सकता है. यह इस चुनाव की प्रमुख विशेषताओं में से एक है. 2015 से 2018 को लिया जाए तो विद्यार्थी परिषद को छोड़कर लगभग सभी दलों के भाषण के केंद्र में भाजपा नीत मोदी सरकार जरूर रही है, भारत में बढ़ती हिंसा की घटनाएं, किसानों की बदहाली और रोजगार का अभाव मुख्य मुद्दों में शामिल है. यदि हम चुनावी माहौल को देखें तो पहले की तुलना में लोगों की संख्या प्रत्यक्ष राजनीति में घटती नजर आती है. फिर भी मतदान की शैली और प्रारूप तो यह दिखाते हैं कि अभी भी इस संस्थान में लेफ्ट विचारधारा हावी है. अंततः अन्य बातों के साथ ही साथ यह बात भी रोचक रहेगी कि लेफ्ट और राइट की राजनीति के मध्य और कौन सी अन्य विचारधाराएं यहाँ उभर पाती हैं.
नोट: ऋतु (दिल्ली विश्वविधालय) व विकास (जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय) दोनों शोधार्थी है. यह उनके स्वतंत्र विचार हैं.