पहाड़ और पानी के बीच पर्यावरण की रक्षा में लगे 76 साल के बुजुर्ग की कहानी

पहाड़ और पानी के बीच पर्यावरण की रक्षा में लगे 76 साल के बुजुर्ग की कहानी

पहाड़ और पानी यही दो चीज तो चाहिए है जीवन के लिए. ऐसा लगता है, लेकिन सच्चाई यह नहीं है. हमें सब कुछ चाहिए होता है. शोर भी और शांति भी. शायद यही वजह है कि मैं कहीं रहने का दावा कर भी लूं तो कुछ समय बाद बोर हो जाऊंगी. तो ऐसा है कि मुझे सड़क चाहिए और एक कमरा भी, लेकिन दुनिया में ऐसे भी लोग होते हैं जो एक जगह के होके रहते हैं. यही होना उनकी पूंजी हो जाती है. ऐसे ही एक बाबा मिले बचन सिंह बुटोला.

मंदाकिनी नदी और शहरी वर्ग का सपना 

इन तक पहुंचने के लिए दिल्ली से कम से कम 12 घंटे की यात्रा करनी पड़ती है, लेकिन यहां पहुंचने के बाद लगता है कि इस आदमी की यात्रा के सामने हमारी यात्रा कुछ भी नहीं है. हम मंदाकिनी के किनारे-किनारे इनके घर तक पहुंचे थे. इनका घर बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि शहरी और नौकरी जीवन से परेशान कुछ लोग कहते हैं कि एक दिन सब छोड़ किसी जंगल में कुटिया बना लेंगे. किसा नदी के किनारे. हां तो बिल्कुल ऐसा ही है. मंदाकिनी सड़क से लगकर बहती है और इनके कुटिया के पास यहां की स्थानीय नदी गदेरा बहती है. पानी में काफी शोर है और कुटिया में पक्षियों की आवाज.

मेरे लिए यह कुटिया ही है. जंगलों में छुपे इस घर में पहुंचने के बाद गले लगाकर एक महिला हमारा स्वागत करती हैं. अब इस कुटिया में चार कमरे हैं. इनको कमरा भी कहना ठीक नहीं है. यह बेहद छोटे हैं. एक कमरे में वह खुद रहते हैं. एक कमरा अतिथियों के लिए है. एक में खाना बनता है और एक में दो कुत्ते रहते हैं. इन्हीं कमरों में से एक में बुटोला की जवानी की फोटो लगी हुई है और दो पेटियां हैं, जिसमें कुछ जरूरी सामान और उनके कुछ कपड़े हैं.

बचन सिंह बुटोला का कमरा

उत्तऱाखंड त्रासदी और नतनी

वह 76 साल के हैं. पिछले 16 साल से इस कुटिया से शायद ही दूर गए हैं. यानी 24 घंटों की सेवा सिर्फ पेड़-पौधों के नाम क्योंकि कब बंदरों का हमला यहां हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. उनके पास तेंदुआ का सामना करने के लिए कुछ पारंपरिक हथियार भी हैं. वह बातों ही बात में एक छोटी बच्ची का जिक्र करते हैं. यह छोटी बच्ची उनकी नतनी है. उनका कहना है कि उनकी जिंदगी अभी इस छोटी बच्ची के आस-पास ही घूमती है. अब बच्ची की कहानी.

इस बच्ची का नाम नेहा है. सुनते ही मैंने कहा कि मेरा नाम भी यही है. नेहा का जन्म 2013 में उसी समय हुआ था जब उत्तराखंड ने भीषण तबाही का सामना किया था. नेहा के पापा केदारनाथ में यात्रियों की लिए खच्चर चलाते थे और वह उसी बाढ़ में बह गए और अब तक उनका कुछ पता नहीं चल पाया है. नेहा की मां को मानसिक बीमारी है. नेहा के पास बस उनके नानी-नाना ही हैं जो उसके भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं. नेहा अपने नाना-नानी के आस-पास ही घूमती रहती है.

मैं उनकी कुटिया के आस-पास चक्कर लगाते हुए पेड़-पौधों को देखने लगती हूं और सोचती हूं कि पर्यावरण के इस संकटकाल में बुटोला जो कर रहे हैं, वह कितना शानदार है. जब सरकार एक तरफ लोगों को पेड़ लगाने के लिए कहे और दूसरी तरफ बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के वास्ते हजारों-लाखों पेड़ भी काटे तो लगता है कि क्या मजाक चल रहा है.  तर्क आखिर यही है कि विकास जरूरी है. इस विकास की परिभाषा में किसका विकास शामिल है और किसका विनाश. यह एक बड़ा सवाल है और इसके जवाब में हजारों उत्तर हैं. तेजी से यह दुनिया कुछ लोगों के रहने के लिए बन रही है जिसमें मनुष्य ही मनुष्य होंगे और बाकी सारी प्रजातियां मनुष्य के संरक्षण नीति में आएंगे या नहीं आएंगे, इसका फैसला भी मनुष्य ही करेगा। यहां तक कि मनुष्य के संरक्षण में भी कितने मनुष्य हैं या होंगे, इसका फैसला भी ‘सर्वशक्तिमान’ मनुष्य ही करेगा.

बुटोला का परिवार

धुआं अपनी जेब में रखें 

बुटोला कहते हैं कि कोई भी पेड़-पौधा सूखने लगे तो उन्हें नींद नहीं आती है, वह उसे बचाने की तरकीब खोजने लगते हैं. कहीं जाते नहीं हैं क्योंकि इन पेड़-पौधों को पानी कौन देगा? वह बार-बार बाड़े के लिए तार और पानी का जिक्र करते हैं. वह कहते हैं कि मुझे बस अपने पेड़-पौधों के लिए पानी चाहिए. इसके अलावा वहां पास में टनल का काम चल रहा है और वहां से निकलने वाला धुआं इनके पेड़-पौधों पर प्रभाव डालता है. वह चाहते हैं कि यह काम जल्दी से जल्दी खत्म हो.  वह कहते हैं कई बार वह कंपनी को कह चुके हैं,  ‘’तुम आग लगाओ और धुआं करो, मुझे आपत्ति नहीं लेकिन आग से निकलने वाला धुआं तुम अपनी जेब में रख लो. जब मैंने कुछ अपने पेड़-पौधों के लिए कुछ बुरा किया ही नहीं है तो तुम्हारे धुएं का असर मेरे पेड़-पौधों पर क्यों पड़े’’

और यह रहा खाना

ताजा-ताजा खीरे की चटनी 

इसी बीच उनकी पत्नी ताजा-ताजा खीरे के साथ चटनी ले आती हैं. चटनी का स्वाद ऐसा है कि लगता है कि असली चटनी लंबे समय के बाद हाथ लगी है. जितना ज्यादा खा सकती थी, खा लिया. इसके बाद मेरे साथ आए मेरे दोस्त अपनी वेबसाइट के लिए स्टोरी शूट करने लगते हैं और मैं इस जगह का मुयाअना और अपने रिटायरमेंट तक के प्लान बना लेती हूं. लेकिन असली प्लान मेरा यही रहता है कि शाम में बस पकड़नी है और दिल्ली लौटना है.

फिर आवाज आती है कि बुटोला प्रधानमंत्री मोदी से मिलना चाहते हैं और उनसे शिकायत करना चाहते हैं कि उन्हें लगाने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ मुफ्त में नहीं मिलते हैं. धुएं से उनके पौधे खराब हो रहे हैं.

काम खत्म होने के बाद आता है खाना और बताया जाता है कि खाने में नमक छोड़ बाकी सारी चीजें यहीं उपजाई हुई हैं, नमक भी पैसा न देकर बल्कि अनाज के बदले लिया गया है. खाने में है राजमा, चावल और साग. मैं सुकून से खाती हूं. निकलते समय दोनों से गले लगती हूं और यह कह जाती हूं कि फिर लौटूंगी… इनसे मिलवाने के लिए पंकज सिंह राठौर को जितना भी धन्यवाद दूं, कम है.

नोट: यह ब्लॉग स्नेहा ने लिखा है। वह पेशे से पत्रकार हैं।