37 रुपये तो दिन भर चाय पीने में चले जाते हैं, कोई पूरे परिवार को कैसे पालेगा?

37 रुपये तो दिन भर चाय पीने में चले जाते हैं, कोई पूरे परिवार को कैसे पालेगा?

37 रुपये तो 5 बार चाय पीने में खत्म हो जाते हैं साब, कोई पूरे परिवार को इतने में कैसे पालेगा? जब मैं कहता हूं कि इतने में तो पटना की किसी अच्छी चाय दुकान में चाय भी नहीं मिलेगी, तो उनके पास खड़ी एक दूसरी महिला रसोइया कहती हैं कि साहब इतने पैसे में तो दुकान के भीतर भी घुसने नहीं देगा सब. चाय पीने की तो बात छोड़िए. इन रसोइयों से यह छोटी सी बातचीत इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी है कि भारत सिर्फ विविधताओं ही नहीं बल्कि घोर असामानताओं का भी देश है. एक तरफ जहां हम विश्वगुरु बनने के दावे कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर लोगों को 37 रुपये प्रतिदिन की दर पर खटाया जा रहा है.

यहां यह बताना जरूरी है कि बिहार सरकार ने दूसरे राज्यों की देखादेखी एक योजना चलाई. नाम है मिड-डे मील योजना. इस योजना ने खासी सुर्खियां भी बटोरीं. पूरी दुनिया में चर्चे हुए लेकिन इन दिनों इसके मुख्य किरदार (रसोइये) राजधानियों के सड़कों की खाक छान रहे हैं. कभी दिल्ली तो कभी पटना. बीते सप्ताह वे जंतर-मंतर पर थे तो कल उनका जुटान गर्दनीबाग में था.

अररिया जिले से आए चंद्रिका सिंह चौहान साल 2004 से ही रसोइये का काम कर रहे हैं. वे हमसे बातचीत में कहते हैं, ” वे मिड-मील योजना से साल 2004 में जुड़े. शुरुआत में उन्हें 50 पैसा प्रति बच्चे की दर से वेतन मिला करता. बाद के दिनों में वेतन बढ़ाकर 1000 रुपये कर दिया गया. उसके बाद साल 2014 में यह 1250 रुपये कर दिया गया. वो भी आंदोलन और लड़ाई के बाद. यह 1250 रुपये भी साल में सिर्फ 10 महीने ही मिलते हैं”.

मिड-डे मील वर्कर्स यूनियन का बैनर पकड़े चंद्रिका (बिल्कुल बाएं)

उनकी मांग है कि सरकार उन्हें नियुक्ति पत्र दे. रसोइयों को चतुर्थ वर्ग कर्मचारी की श्रेणी में डाला जाए. साल में एक जोड़ी कपड़े दिए जाएं. 1250 रुपये प्रतिमाह के वेतन को बढ़ाकर न्यूनतम वेतन (18,000) किया जाए. रसोइयों के आंदोलन को 32 दिन हो चुके हैं लेकिन सरकार उनकी मांगों को मानने के बजाय धमकी दे रही है कि जो रसोइये हड़ताल से वापस नहीं आएंगे उन्हें हटा दिया जाएगा. दूसरे रसोइए रख लिए जाएंगे.

चंद्रिका आगे कहते हैं कि नवंबर में उनके संगठन के लोग दिल्ली भी गए थे. वित्त मंत्री से मुलाकात भी की थी. तब वित्त मंत्री ने पांच राज्यों में होने वाले चुनावों का हवाला देते हुए विचार करने का आश्वासन दिया गया था लेकिन अब तक कुछ भी नहीं हुआ. किन्हीं नेताओं के सहयोग के सवाल पर वे वाम धड़े के तीन विधायकों के उनके प्रदर्शन में शामिल होने की बात कहते हैं.

रसोइया प्रदर्शनकारी

इसी प्रदर्शन में ही आए सम्पत बाबू कहते हैं, “सरकार अबतक सारे रसोइयों के साथ बंधुआ मजदूर की तरह व्यवहार कर रही है. बिना किसी कागज-पत्तर और नियुक्ति पत्र दिए उनसे काम लिया जा रहा है. वे मांग करते हैं कि सरकार 18,000 का वेतनमान देना सुनिश्चित करे, अन्यथा उनकी हड़ताल जारी रहेगी. सरकार के खिलाफ रसोइयों का हल्लाबोल जारी रहेगा.”

अररिया से ही आई कुसुमी देवी हमसे बातचीत में पूछती हैं, “इस महंगी के दौर में 1250 रुपये में क्या होता है साहब? खुद खाएं कि बच्चों को खिलाएं? बच्चों को कैसे पढ़ाएं-लिखाएं? कब तक उनके सपनों का दम घोटते रहें?” वह आगे कहती हैं कि रसोइये तो (9 बजे) मास्टर के आने से पहले ही स्कूल में आ जाते हैं. बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन बनाने, खिलाने और उसके बाद सारे बर्तन धुलकर रखने का क्रम तीन बजे तक चलता है.

प्रदेश के अलग-अलग हिस्से से गर्दनीबाग में प्रदर्शन करने जुटे रसोइये

कुसुमी सरकार से गुहार लगा रही हैं कि ऐसी स्थिति में वो कहां जाएं? उन्हें कोई मजदूरी पर भी नहीं रखेगा. उन्होंने तो अपना पूरा दिन इसी काम में झोंक दिया और बदले में सम्मानजनक वेतनमान भी नहीं मिल रहा.

कुसुमी अंत में कहती हैं कि सरकार रसोइयों की मांग मान ले. हर रसोइये के परिवार से कम से कम 10 लोग जुड़े हैं और वोट के दम पर वे लोग सरकार बदल देंगे. आगे किसे लाएंगी के सवाल पर वह कहती हैं कि अभी तो इसी सरकार को चुने हैं तो उसी से मांग रहे हैं और क्या कर