भारत में कोविड से हुई मौतों का आंकड़ा एक लाख के पार हो चुका है. अलग अलग राज्यो में ज़रूरत के हिसाब से लॉकडाउन लागू होते रहना इस महामारी की गंभीरता को तमाम व्यस्तताओं के बीच भूलने नहीं देता. जहां बाज़ार, रेस्तरां, संस्थान नये नियमों के अनुसार खुलते-बंद होते रहते हैं, वहीं चुनाव एक मसला है जिसे स्थगित नहीं किया जा सकता. संसद में प्रश्नकाल का रद्द होना और बात है.
खैर, बीमारी का इलाज जब मिलेगा तब मिलेगा, अभी तो चुनाव बिना प्रचार किए नहीं हो सकते. बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारी जोरों पर है तो राजस्थान में पंचायत चुनाव का माहौल अनूठे रूप में दिलचस्प हो चला है. अंगूठी, अलमारी, ब्रश जैसे चुनाव चिह्न बड़े पोस्टर्स पर सड़कों के बीच खंभों के सहारे टंगे हैं. इन्हीं चिह्नों से अंतर पता चल पाता है, वरना करीब-करीब सभी सरपंच उम्मीदवारों ने सफेद कुर्ता और पंचरंगा साफा पहना होता है फोटो में. तिस पर सरनेम भी करीब-करीब एक जैसे, चौधरी, राजपुरोहित वग़ैरह. भ्रम और बढ़ जाता है जब सुनने में आए कि फलां जगह जाट, तो फलां जगह माली, बिश्नोई, या राजपूत खड़ा हुआ है. नाम और काम पूछने पर पता चलता है, जाति पहले मालूम चल जाती है.
सरपंच चुनाव की तैयारियों के बीच शाम को घर लौटते वक़्त अचानक तेज़ आवाजाही के साथ चलती गाड़ियों में कम उम्र के लड़कों को लुभावने और ऊपरी छलावे देकर, अपने ही नाम के हर रोज़ ज़िंदाबाद के नारे लगवाना घोर भौंडा शक्ति प्रदर्शन तो लगता ही है, भयभीत भी कर देता है. बैठ कर सोचूं तो इन लड़कों पर अब तरस आता है. पांच साल में एक बार हर घर का दरवाज़ा खटखटाकर वोट मांगा जा सकता है तो एक छोटे से इलाक़े में साल में कम से कम दो बार तो इसी तरह हर घर जाकर काम-काज से जुड़ा फीडबैक तो लिया ही जा सकता है, तकलीफ़ चाहे भले न पूछें.
1992 में संविधान में 73वां और 74वां संशोधन, जिसके चलते पंचायत चुनाव का समावेश हुआ, स्वराज (self-rule) की अवधारणा पर ही तो आधारित था. ताकि गांव की जनता पंचायत के प्रतिनिधियों के बीच सहज महसूस कर सके और अपनी परेशानियां खुल कर साझा कर सके. साथ ही अपने गांव के विकास में अपनी भागीदारी भी होते हुए देख सके. हाल के वर्षों की बात करें तो 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सांसद आदर्श ग्राम पंचायत’ योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य प्रत्येक ज़िले में न्यूनतम एक आदर्श ग्राम का विकास करना था और चयनित ग्रामों को कृषि, स्वास्थ्य, साफ-सफाई, आजीविका, पर्यावरण, शिक्षा आदि क्षेत्रों में सशक्त बनाना था. हैरानी की बात है कि 2014 से लेकर अब तक केवल 1855 ग्राम पंचायतों का चयन किया गया है जबकि लक्ष्य 2024 तक 2,65,000 ग्राम पंचायतों का चयन करना है जिसके तहत आदर्श ग्राम का विकास करना होगा.
गांव-कस्बों में लोगों को चाहे अपने सरपंच / मुखिया / प्रधान का काम, तौर तरीके न पसंद हों, तब भी उनकी बातों से लगता है कि इन्हें हर मामले में छूट मिली हुई है और इनसे जवाब-तलब करने में वे हीन महसूस करते हैं तो अनजाने में उनका उधड़ा अपने फटे से ढकने लगते हैं. इसी चुनाव प्रचार के माहौल के बीच मैं अपने आसपास कुछ ऐसी ही बातें सुन रही हूँ तो उनसे संबंधित मेरे मन में कुछ नितांत साधारण सवाल उपजे हैं :- जैसे…
वे कहते हैं, इतना सब तो किया ही हैं न, एक आदमी क्या क्या करेगा!
सवाल : एक आदमी! बाकी के पंचायत सदस्य क्या करते हैं? क्या लोकल सेल्फ़-गवर्नेंसे को माइक्रो लेवल पे इसीलिए नहीं तोड़ा गया है कि ग्राम सभा ज़मीनी मुद्दों को सरकारी अधिकारियों तक पहुँचाए?
वे कहते हैं, यह अभी-अभी आएँ हैं, इनके पहले कोई और थे. काम तो होते होते होगा न.
सवाल : संविधान तो 1950 से लागू हो गया था और तब से हम एक संप्रभु कंट्री हैं. तब से अब तक काम हो ही रहा है? और वो भी बेसिक काम मसलन, पानी का कनेक्शन, लगातार बिजली सप्लाई, गुणवत्तापूर्ण नि:शुल्क प्राइमरी शिक्षा, पक्की सड़के, पब्लिक टॉयलेट्स, इत्यादि. चादर बिछाते ही जा रहे हैं, ओढेंगें कब?
वे कहते हैं, असली सरपंच ये हैं. बीवी काग़ज़ों पे सरपंच है, इनके पति खुद सरपंच रह चुके हैं.
सवाल : क्या ऐसा कोई प्रावधान है जिसके अनुसार सरपंच पत्नि अपने पति को मुखर रूप से सेक्रेटरी का ज़िम्मा दे सकती है इस आधार पर कि वे पूर्व में सरपंच रहें हों या ये भूमिका वे खुद अपने ज़िम्मे लेते हैं जिससे इनके घर की इज़्ज़त बनी रहे?
वे कहते हैं, यह फलना नेता जी का इलाक़ा है.
सवाल : क्या हम उनके द्वारा खैरात में दी गई ज़मीन पर गुज़र बसर कर रहे हैं?
वे कहते हैं, नए लड़कों में ज़्यादा समझ नहीं होती. यह पुराने हैं और इनका रौब-रुतबा भी है, इनको ही जिताएंगे.
सवाल : नए ‘लड़कें’ मतलब? मनुष्यों में धरती पर केवल आदमी ही जन्मते हैं? रौब-रुतबा होने से काम हो जाता है क्या? जिनको अभी तक जिताते आए, उनका रौब-रुतबा था? यदि था तो फिर आप लोग क्यूं बिजली, पानी, मिड डे मील, स्कूल, सड़क, पेंशन, भत्ते, अस्पताल को लेकर परेशान रहते हैं?
सवाल कई हो सकते हैं. उन्हें पूछना बदस्तूर जारी रखना होगा. खुद को टटोलते रहना होगा. यदि यह सवाल आपके मन में भी आते हैं और परेशान करते हैं तो सोच समझ कर वोट करने की जरूरत है. आखिर जनता के पास ‘नोटा’ का विकल्प भी तो मौजूद है. नोटा के परिणामों को कार्यान्वित करने के लिए पर्याप्त क़ानून अभी बनने बाकी हैं लेकिन, अगर कोई काम करने वाला उम्मीदवार नहीं है तो एक संदेश ज़रूर जाना चाहिए कि आप हमारा प्रतिनिधित्व करने के लायक नहीं हैं.
जैसा कि महात्मा गांधी कहते हैं, ‘एक संपूर्ण गणतंत्र तभी संभव है जब गांव कस्बों का विकास ‘स्वराज’ के सिद्धांतों पर आधारित हो और यह देश की प्राथमिकता में शामिल हो. गांधी की कल्पना में इस तरह के गांव बसते थे जो पूर्णतया स्वच्छ हों. हवादार हों. अपने घर के पांच मील के दायरे में प्राप्त होने वाली सामग्री से बने हों. घर के उपयोग के लिए और अपने मवेशियों के लिए सब्जियां लगाने के लिए घरवालों को सक्षम करने वाले आंगन हों.
गांव की गलियां टहलने योग्य हों और धूल से मुक्त हों. आवश्यकताओं के अनुसार इसमें कुएं हों जो सभी के लिए सुलभ हों. इसमें सभी के लिए पूजा घर हों. एक आम सभा स्थल, अपने मवेशियों को चराने के लिए जगह, सहकारी डेयरी, प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल, जिसमें औद्योगिक शिक्षा केंद्रीय तथ्य हो और इसमें बसने के लिए पंचायतें हों. ज़ाहिर है समय के साथ आदर्श ग्राम की परिभाषा बदलती गई लेकिन आदर्श ग्राम यानि मॉडल विलेज का बीज उन्होंने ही बोया था.
राजस्थान में पंचायत चुनाव होने तय हैं. चरण दर चरण चुनाव आगे बढ़ रहा है. क्यूं न गांधी जी के सुझाए गए ग्राम विकास (Village Development) की जरूरत और अपने वोट के महत्व को समझने की कोशिश की जाए…
1 Comment
Manoj kumar October 5, 2020 at 4:35 pm
बेहद जरूरी आलेख, ये सभी जगह पर मुद्दों की जरूरत को बयान कर रहा है।
इस से हमे सभी मुंह नहीं फेर सकते कि जो भी सरकार या जान प्रतिनिधि बनते हैं, वो हमारे मत से ही चुन कर आगे जाते हैं। हम ही अंततोगत्वा जिम्मेदार हैं। इस आलेख की रचनाकार को साधुवाद