रिपोर्टर डायरी- जब सिंघु बॉर्डर पर किसानों के सवाल ने मुझे निरुत्तर कर दिया…

रिपोर्टर डायरी- जब सिंघु बॉर्डर पर किसानों के सवाल ने मुझे निरुत्तर कर दिया…

29 नंवबर 2020 की वह सुर्ख व कड़कड़ाती हुई सुबह. मैं फिर से सिंघु बॉर्डर पहुंचा. वहां का मंजर देख तो मेरी आखें बस खुली की खुली रह गईं. बस से उतरा तो पाया कि मेरे सामने किसानों का जमघट लगा है. आंदोलन को आगे बढ़ाने की रणनीति पर बातें जारी हैं. नेशनल हाइवे जैसे एक संयुक्त परिवार हो गया हो. जहां एक तरफ आटा गूंथते, रोटियां पकाते, सब्जी बनाते किसान और दूसरी तरफ सीने में जीत की आस लिए लोग एक दूसरे की मदद कर रहे हैं. ऐसा लग रहा था जैसे नेशनल हाइवे कोई बड़ा सा किचन बन गया है और किसी भोज की तैयारी जोर-शोर से जारी है. पुलिस भी दूसरी तरफ शांति से बैठे चाय पीती दिखी. यह नजारा बीते दो दिन पहले के नजारे से एकदम जुदा था. ऐसा लगा मानों अब किसानों और पुलिस वालों के बीच समझौता हो गया है.

मैं आगे बढ़ा. कुछ दूरी पर किसान नेता किसानों को संबोधित कर रहे थे.  कुछ किसान उनकी बात सुन रहे थे और कुछ अपने कामों में मशगूल थे. उनके बीच ये समझ थी कि  मैं यहां काम करूंगा और तुम जाओ सूचना लेकर आओ. काम बंटा हुआ था. कुछ लोग पुलिस और किसानों के बीच बॉर्डर का काम कर रहे थे ताकि कोई अनावश्यक विवाद ना हो. सब कुछ शांत सा लग रहा था. बाहर से दिखने वाली शांति ये कह रही थी कि अब किसानों ने अपना डेरा-डंडा यहां जमा लिया है. एक निश्चिंत सा भाव वहां तारी दिखा.

मैं माहौल लेता हुआ आगे बढ़ा और एक चाय की दुकान पर रुका. दुकानदार एक महिला थीं. महिला से बातचीत शुरू हुई. बातचीत के दौरान लगा मानो वो महिला पिछले तीन दिनों में कितनी राजनीति सीख गई हैं. खासकर किसानों के मसले पर. वो बात को छेड़ने पर यूं ही बोलने लगीं, ‘मोदी को किसानों की बात मान लेनी चाहिए. किसान जो सबका पेट भरते हैं उनको मारना-पीटना ठीक नहीं है.’बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा तो महिला बताने लगीं कि-‘उन्होंने ये दुकान मजबूरन लॉकडाउन में ही खोली है. उनके परिवार को खाने-पीने की दिक्कतें होने लगी थी. अब कम से कम दाल रोटी का इंतजाम कर लेती हैं.’

नेशनल हाईवे ही बन गया है रसोई और दालान

मैं आगे बढ़ा और सीधे किसानों से बात करने पहुंच गया. पंजाब के जिला फतेहगढ़ से आने वाले कृपाल सिंह कहते हैं.-‘हम छोटे किसान हैं. ये मोदी सरकार कानून लाकर हमें बर्बाद करना चाहती है. ये हमारी जमीनों को बड़ी-बड़ी कंपनियों को देना चाहते हैं. इस समय देश में आरएसएस की विचारधारा का राज चल रहा है. जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम हो गया वैसे ही आरएसएस इस देश को कॉरपोरेट का गुलाम बनाना चाहता है.’

300 किलोमीटर दूर पंजाब के संगरूर से आने वाले दर्शन सिंह कहते हैं-‘ये कानून हम जैसे छोटे किसानों को मारने की साजिश है. हमारे पास पांच एकड़ जमीन है. हम उसी से अपना खर्च चलाते हैं. इस कानून के आने के बाद हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा. हम अपने ही खेत में मजदूर हो जाएंगे.’

संगरूर के ही रहने वाले परमिंदर सिंह कहते हैं, ‘बेरोजगारी अपने चरम पर है. बेरोजगारी की मार सबसे ज्यादा हमारे बच्चे झेलते हैं. अगर ये कानून लागू होता है तो छोटा किसान पूरी तरह उजड़ जाएगा. बड़े किसान को उजड़ने में थोड़ा समय लगेगा लेकिन उजड़ वो भी जाएगा.’

वहां का माहौल लेते–लेते ये भी पता लगा कि किसानों का मीडिया के प्रति काफी गुस्सा है. खासकर युवा किसानों के अंदर. युवा किसान बलकंत सिंह कहते हैं,‘ये गोदी मीडिया जो खबरें दिखा रहा है वो गलत है. हमारे साथ देश की सारी कौमों के लोग हैं. ये अपने खेत और अपनी खेती बचाने की लड़ाई है. हम आतंकवादी नहीं हैं जैसा कि ‘गोदी मीडिया’ दिखा रहा है. मीडियाकर्मी जो रोटी खाते हैं वो किसान ही उगाता है, इसलिए गलत खबरें दिखाते समय गोदी मीडिया को शर्म आनी चाहिए.’

किसान नेताओं की बातें सुनते बॉर्डर पर जमे किसान-

युवाओं में कुछ मीडिया संस्थाओं द्वारा उन्हें खालिस्तानी, आतंकवादी कहने पर काफी रोष था. कुछ युवाओं ने बात करने से साफ मना कर दिया. तब लगा किसी और की गलती की सजा आपको भी भुगतनी पड़ सकती है. ऐसा नहीं है कि यह सबकुछ मीडियाकर्मियों के साथ पहली बार हुआ है. इससे पहले एनआरसी और सीएएए को लेकर चल रहे शाहीन बाग के आंदोलन से लेकर देश में होने वाले तमाम आंदोलनों क दौरान भी हमें इस तरह की परेशानी झेलनी पड़ी है.

दोपहर का खाना खाने के बाद किसानों के साथ बैठकर कुछ हल्की-फुल्की बातों का दौर शुरू हुआ तो लगा कितनी बातें पता चलती हैं. वो मुझसे पूछने लगे कि मैं कहां से हूं? मैंने जैसे ही बताया कि मैं यूपी से हूं- किसानों ने तपाक से सवाल दाग दिया यूपी के किसान क्यों नहीं आ रहे आंदोलन में? मैं निरुत्तर हो गया, आखिर क्या जवाब देता? बस उनकी तरफ देखता रहा. वो बताने लगे कि पंजाब में बहुत कम लोग ही हैं जिनके पास अधिक जमीन है. पंजाब में छोटे किसान बहुत हैं. उनकी ये बात सुनकर  मेरे दिमाग में एक ही बात आई कि हमारे पूर्वांचल में तो किसान ‘एमएसपी’ जानता तक नहीं. वहां का किसान तो मजदूर बन चुका है तो कैसे आंदोलन में आएगा?

तब तक पता चला कि किसानों ने सिंघु बॉर्डर को दोनों तरफ से घेर लिया है और अब पुलिस बीच में फंस गई है. किसानों का एक जत्था दिल्ली की तरफ से आते हुए पुलिस को घेर चुका है. बाद बाकी इसके अलावा स्थिति सामान्य थी. शाम ढलते-ढलते किसान फिर से रात के खाने की तैयारी में जुटने लगे थे. फिर से सुबह वाली प्रक्रिया दोहराई जा रही थी. मैं किसानों के सवालों और उनकी बातों को सोचता हुए कमरे की ओर लौट चला कि फिर से आऊंगा…

-यह अनुभव (रिपोर्टर डायरी) ‘द बिहार मेल’ के लिए आकाश पांडे ने लिखी है. आकाश काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक हैं और भारतीय जन संचार संस्थान के छात्र रहे हैं…