इन दिनों पूरे देश-दुनिया में कोरोना का शोर है. कोरोना की वजह से लॉकडाउन है, और लॉकडाउन की मार जिस तबके पर सबसे अधिक पड़ी है वो है मजदूर. रोजी-रोटी की तलाश में हजारों किलोमीटर दूर गया मजदूर अपने गांव-घर लौटने को मजबूर हो गया है. कहीं पैदल ही लौट ही रहा है तो कहीं बसों और ट्रकों में जानवरों की तरह लदा हुआ. कहीं सरकार के तमाम दावों के विपरीत उधारी करके टिकट पर हजारों खर्च करता हुआ. अब आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको ये क्या सुनाने लगा. तो दरअसल बात ऐसी है कि इन दिनों ट्विटर पर #IndustryInBihar ट्रेंड कर रहा है, और हमारी ठीक इसी दौर में कभी आरा जिले के सफल कारोबारी से भेंट हुई. अब आगे की दास्तां सुनिए…
कहानी पहली पीढ़ी की जो आखिरी भी रही
शाहाबाद के चार ज़िलों में से एक है आरा. इस जिले का कोईलवर प्रखंड हाल के दौर तक उद्योग के लिए जाना जाता था. कोईलवर में सोन नदी पर अंग्रजों के समय का बना एक पुल भी है. ऊपर से रेल और नीचे से सड़क गुजरती है. पुल के नजदीक एन.एच 30 और 19 के ठीक बगल दो अहाते दिखाई देते हैं. स्थानीय बताते हैं कि दिखने वाली अहाते आज खंडहर हैं. यहां पहले फैक्ट्रियां चला करती थीं. नजदीक से गुजरते दो नेशनल हाइवे और एक रेलवे स्टेशन के साथ ही सोन नदी का तट इस जगह को कारोबार के लिहाज से महत्वपूर्ण बना देता है. उस अहाते में दाखिल होने पर हमारी मुलाकात कभी कालीन कारोबारी रहे 70 साल के वीरेंद्र कुमार सिंह से होती है. फैक्टरी की बात छेड़ते ही वो सब कुछ एक सांस में बताने लगते हैं मानो वर्षों से उनसे किसी ने इस मसले पर बातचीत ही ना की हो.
अपने दौर और कालीन के कारोबार को याद करते हुए वीरेंद्र बताते हैं, ”मैं एक वेटनरी डॉक्टर था, बाबूजी के कहने पर उत्तरप्रदेश को छोड़ कर अपने ज़िले में काम शुरू किया. मैं अपने परिवार का पहला कारोबारी था. अपने गांव जवार में ही धंधे की शुरुआत की.” वे आगे कहते हैं कि बात 1973-74 की है. यहां कालीन की एक शानदार फैक्टरी थी. यहां की बनी कालीन का डिमांड जर्मनी तक में था. हैंडलूम की वजह से इस कारखाने के आस-पास के करीब 500 लोगों को रोज़गार मिलता था. कई परिवारों के चूल्हे चला करते थे. मेरा तो पूरा करियर बर्बाद हो गया, अब तो कोई उम्मीद भी नहीं दिखती.
जब हमने कालीन फैक्टरी की तबाही और अगली की पीढ़ी के जुड़ाव पर सवाल किया तो उन्होंने कहा, ”मेरा बेटा तो एफ.सी.आई में मैनेजर है. उसे इस काम में कोई इंट्रेस्ट नहीं. हो सकता है कि आने वाले समय में यहाँ कोई गोदाम हो या किसी को भाड़े पर दे दिया जाए. वो कहता है कि पापा आपने तो अपनी लाइफ खराब कर ली, अब हम क्यों करे.”
कभी नजदीकी अहाते में चलती थी दाल फैक्टरी
यहां हम आपको यह भी बताते चलें कि इस कालीन फैक्टरी के अहाते से सटा हुआ एक और अहाता भी है. वीरेंद्र सिंह हमें वहां भी ले गए. इस दाल फैक्टरी की इमारत के निर्माण के लिए उन्होंने वित्त निगम से कर्जा भी लिया था. निगम ने इसके उपयोग के लिए उन्हें 2 साल का समय दिया था. वे आगे कहते हैं कि वे दाल फैक्टरी को 6 महीने के भीतर ही खड़ा कर चुके थे. जब वर्किंग कैपिटल की बात आई तो निगम ने हाथ खड़े कर दिए. वे दफ्तरों के चक्कर काटते रहे, लेकिन सारी मेहनत का हासिल सिफर रहा.
दाल की फैक्टरी दिखाते हुए वीरेंद्र कहते हैं, “आज यह पूरा प्लांट स्क्रैप में जा चुका है. यहां काम करने वाले तमाम वर्कर आज दिहाड़ी मजदूरी करने को विवश हैं. 90 के दौर में लोन मिलना मुश्किल हो गया था. बाद में मामला जरा सुधरा भी तो उन्हें कुछ नहीं मिल सका.”
सनद रहे कि आज दाल की चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि सूबे में ‘जन वितरण प्रणाली’ के तहत दाल बांटने के लिए राज्य सरकार देश के दूसरे राज्यों से दाल खरीद रही है. लॉकडाउन के तीसरे महीने बीतने के बाद भी लोगों की थाली तक दाल नहीं पहुंच सका है. जबकि जानने वाले जानते हैं कि पटना से सटे मोकामा टाल के भीतर ही पूरे देश को दाल खिलाने की कुव्वत है, ऐसे में शाहाबाद में बंद पड़े दाल कारखानों की बात कौन करे?
कि ट्विवटर पर भी रोजगार मांग रहे युवा
आज जब चारों तरफ रिवर्स माइग्रेशन, कारखाने, उद्योग और इनकी संभावनाओं पर बातचीत चल रही है. ठीक उसी दौर में राज्य के युवा ट्विटर पर #industryinbihar ट्रेंड करा रहे हैं. इस कैम्पेन में प्रमुखता से भाग लेने वाले जे.एन.यू के पूर्व छात्र रोमित रंजन कहते हैं, ”इस हैश टैग को ट्रेंड कराने के पीछे मुख्य उद्देश्य सरकार एवं उन तमाम लोगों पर एक दबाव बनाना है जो इन प्रवासी मजदूरों को बिहार पर एक लानत की तरह देख रहे हैं. साथ ही साथ इंडस्ट्री को लेकर हमारी पहले से जो लड़ाई चल रही थी उसे भी एक नया जामा पहनाना था.” वे आगे कहते हैं कि यह लड़ाई एक प्रिविलेज्ड क्लास लड़ रही है. जिसके पास चलाने के लिए स्मार्ट फोन है. अधिकतर बिहार से बाहर ही रहते हैं लेकिन कोशिश और नीयत में रत्ती भर भी खोट नहीं है. अपनी इन तमाम कोशिशों को रोमित चिंगारी भर ही मानते हैं. वे अंत में कहते हैं कि कोरोना काल के बाद सूबे में जनक्रांति पनपेगी और अलग अलग उद्योग यहां फिर से दौड़ेगे.
सरकार की तैयारी और वास्तविकता?
यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि सूबे के मुखिया से लेके उप मुखिया तक बिहार में उद्योग/कारखाने लगाने के बजाय लोगों के पलायन को एक सकारात्मक नज़रिये से देखते आये हैं. मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव के दौरान यहां तक कहा था कि पूरे देश में हमारी श्रमशक्ति का सम्मान हो रहा है. बिहार के उप मुखिया ने इसी साल अप्रवासी सम्मलेन के मंच से यह तक कहा कि बिहारी चाह लें तो चांद पर भी नौकरी खोज लेंगे. सूबे में कथित तौर पर डबल इंजन की सरकार चला रहे प्रतिनिधियों और रोजगार के मौके पर वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र कहते हैं, “सरकार इस सम्बन्ध में मनरेगा के अंतर्गत 200 दिनों तक रोजगार देने की बातचीत कर रही है. क़्वारंटीन सेंटर में भी स्किल मैपिंग की बातचीत हो रही है लेकिन यह सब पटना तक ही सिमटता नजर आ रहा है.”
पुष्य मित्र आगे कहते हैं कि ग्राउंड पर काम कर रहे तमाम लोगों से इस सम्बन्ध में नकारात्मक सूचना ही मिल रही है. उद्योग को लेकर सरकार का सकारात्मक रूख नज़र नहीं आ रहा. चुनाव का साल होने की वजह से मौजूदा सरकार पर दबाव तो है इसलिए शायद विज्ञापन के माध्यम से माहौल बनाने की कोशिश चल रही है. रिवर्स माइग्रेशन और रोजगार के मौके पर वे आगे कहते हैं, “इस पूरी समस्या को अगर बर्ड आई व्यू से देखा जाए और अगर सरकार मदद करे तो उन्हें दो तरह के रोजगार एवं उद्योग के अवसर दिखाई पड़ते हैं. पहला यह कि खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा दिया जाए. दूसरा यह कि जो युवा अपना व्यवसाय या उद्योग लगाना चाहते हैं उनकी मदद की जाए.”
इन तमाम बातों को कहने का लब्बोलुआब यह है कि किसी भी फैक्टरी के बंद हो जाना केवल व्यक्तिगत क्षति नहीं होती, बल्कि सामूहिक क्षति होती है. कालीन और दाल फैक्टरी का ही उदाहरण लिया जाए तो इस पूरे धंधे में खट रहे मजदूर, इस फैक्टरी के लिए दलहन उपजाने वाले किसान. इन सब का ब्योरा रखने वाले कर्मचारियों समेत सैंकड़ों लोग बेरोजगार हो गए होंगे. ऐसी प्रबल संभावनाएं हैं कि किन्हीं रोजगार की तलाश में उन्हें अपना गांव-घर छोड़ना पड़ा हो.
कभी कालीन और दाल फैक्टरी के मालिक रहे वीरेंद्र सिंह अपने अहाते से विदा करते हुए हमसे कहते हैं कि पहले भी एक जन इंटरव्यू लेने आये थे पर आज तक कुछ नहीं हुआ. वे तो बस अपना दुख अब बांट कर ही हल्का कर सकते हैं, सरकार से उन्हें कोई उम्मीद तो नहीं. इन तमाम नाउम्मीदी के बीच यह रिपोर्ट हमारे तमाम पाठकों के नाम जो कम से कम इस राज्य के कारोबारियों के हताशा के वसीले से ही इस गूंगी बहरी सरकार से सवाल पूछने की कोशिश कर रहे हैं…