ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म उत्तर प्रदेश के कुशीनगर, देवरिया में 1911 में सात मार्च को हुआ था. आज उनकी जयंती है. पढ़ें उनकी पांच कविताएं…
1.धड़कन धड़कन
धड़कन धड़कन धड़कन—
दाईं, बाईं, कौन सी आँख की फड़कन—
मीठी कड़वी तीखी सीठी
कसक–किरकिरी किन यादों की रड़कन?
उँह! कुछ नहीं, नशे के झोंके–से में
स्मृति के शीशे की तड़कन!
2. विदा के चौराहे पर
यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक मीठा था
टूट गया।
कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं:
हैं बीच–बीच में अंतराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में
सब सपने हैं।
पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो वह भी सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी।
देश–देश की रंग–रंग की मिट्टी है:
हर दिक् का अपना–अपना है आलोक–स्रोत
दिक्काल–जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण–पोत।
हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से—
इयत्ता का विराट्।
यों घर—जो पीछे छूटा था—
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम—यों सपना—यों चित्–सत्य
लीक–लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है…
3. कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी–सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी–सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा–मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार…
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा–मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ…
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
4. तुम्हें नहीं तो किसे और
तुम्हें नहीं तो किसे और
मैं दूँ
अपने को
(जो भी मैं हूँ)?
तुम जिस ने तोड़ा है
मेरे हर झूठे सपने को—
जिस ने बेपनाह
मुझे झंझोड़ा है
जाग–जाग कर
तकने को
आग–सी नंगी, निर्ममत्व
औ‘ दुस्सह
सच्चाई को—
सदा आँच में तपने को—
तुम, ओ एक, निःसंग, अकेले,
मानव,
तुम को—मेरे भाई को!
5. कि हम नहीं रहेंगे
हमने
शिखरों पर जो प्यार किया
घाटियों में उसे याद करते रहे!
फिर तलहटियों में पछताया किए
कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!
पर जिस दिन सहसा आ निकले
सागर के किनारे—
ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
पलक की झपक–भर में पहचाना
कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—
यही तो प्रमाद करते रहे!
शिखर तो सभी अभी हैं,
घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;
तलहटियाँ तो और भी
नई बस्तियों में उभर आई हैं।
सभी कुछ तो बना है, रहेगा:
एक प्यार ही को क्या
नश्वर हम कहेंगे—
इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?