बंद के बीच हम सुबह–सुबह पांच बजे बारामूला से श्रीनगर के लिए रवाना हो गए, क्योंकि इसके बाद यहां से निकलना मुश्किल था। हम सुबह सात बजे तक श्रीनगर के लाल चौक पहुंच चुके थे। यहीं से हमारे दोस्त हमें सीधे अनंतनाग ले जाने वाले थे। जब मैं लाल चौक पहुंची तो एक दम अवाक रह गई। मैं गाड़ी से बाहर निकलना ही नहीं चाहती थी। मतलब एक दम सर्द जगह, लगभग सारे दुकानों के शटर गिरे हुए। सड़कें खाली और कबूतरों की गुटरगूं। कई दुकानों के दरवाजों पर ‘इंडिया गो बैक, फ्री कश्मीर’ लिखा था, जिसे काले रंग से पेंट कर दिया गया था फिर भी पढ़ने में आ रहा था। सीआरपीएफ के मुस्तैद जवान। मैंने पहले भी कहा था ना कि जवानों के चेहरे का भाव पढ़ना बेहद मुश्किल है और वह कहां देख रहे हैं, यह भी कोई नहीं जानता। मैंने सिर्फ एक बार ‘डंकर्क’ फिल्म देखी है, उस फिल्म में मेरा सारा ध्यान उसके साउंड ट्रैक पर था। हान्स जीमर द्वारा तैयार किया गया यह साउंड ट्रैक मुझे किसी प्रत्याशित और अप्रत्याशित खतरे की आहट सी लगता है और यहां गाड़ी के भीतर से दुकानों के बंद शटरों और लिखे हुए नारों को देखकर मुझे ऐसा लग रहा था कि यह म्यूजिक मेरे अंदर जोर–जोर से बज रहा है। मैंने खुद को शांत कराते हुए कहा कि इसीलिए तो यात्राएं करनी चाहिए ताकि खुद के बारे में जाना जा सके कि हम क्या हैं?
तब तक श्रीनगर के हमारे दोस्त की गाड़ी और उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा दिख गया था। इस पूरे माहौल में कोई अच्छी चीज थी तो उनकी गाड़ी और उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा। मैंने चैन की सांस ली। सेब की बोरी हमारे पास थी जिसे मैं और मेरी दोस्त अब भी पकड़े थे। यानी यह सेब हमें हर हाल में चाहिए थे। हमारे दोस्त ने हंसते हुए बोरे की तरफ इशारा किया कि इसमें क्या भर लाए और हम जवाब में अपनी लालच छुपा न पाए। अब शहर बंद, जिस दोस्त के साथ दक्षिणी कश्मीर जाना था, वह फोन नहीं उठा रहे। नेट 2 जी चल रहा और होटल कोई बुक है नहीं। तो अब ऐसा किया गया कि हम एक पार्क में जाकर बैठ गए।
डाउनटाउन का चक्कर
पार्क का नाम है झेलम व्यू पार्क। हमने सोच लिया कि 11 बजे के बाद देखेंगे कि क्या करना है। यह बंद मिलिटेंट मन्नान वानी की मौत के बाद बुलाया गया था। मुझे लग रहा था कि हमारी यात्रा यहीं समाप्त हो गई और हमें अब प्लेन की टिकट लेनी चाहिए और यहां से निकल जाना चाहिए। कुल मिलाकर मैं परेशान हो चुकी थी। इसी बीच एक बुजुर्ग आदमी कबूतरों को दाना देने पार्क में आए फिर हमारे दोस्त ने बताया कि यह रोजाना कबूतरों को यहां दाना दे जाते हैं क्योंकि बंद और बहुत ठंड पड़ने पर इन पक्षियों को देखनेवाला कोई नहीं होता। मैं कुछ देर तक उन्हें निहारती रही और सोचती रही कि ऐसे ही लोगों की वजह से दुनिया में अब भी अच्छाई बाकी है। हम तीनों बोर हो गए थे। समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाएं क्योंकि हमारे पास अब कोई प्लान ही नहीं था. पहले से बनाए गए प्लान की तो धज्जियां उड़ गई थीं। खैर, हम 11 बजे के बाद यहां से निकल लिए और एक होटल के कमरे में जाकर सेटल हो गए। इस बीच हमने सोचा कि डाउनटाउन के चक्कर लगा आते हैं। पैदल ही उधर चले गए। काफी दूर चलने के बाद आगे जाने का मन तो था लेकिन लोगों के बार–बार देखने की वजह से मैं असहज हो गई थी, इसलिए वापस लौट आई। अब यही तय हुआ था कि कमरे में जाकर खूब सोएंगे उसके बाद देखेंगे कि क्या करना है। कमरे में सोने की असफल कोशिश भी की, लेकिन दिन के वक्त कश्मीर में सोना अपराध जैसा जान पड़ रहा था। थोड़ी कोशिश के बाग हल्की सी नींद आई ही थी कि होटल वाले ने खाना खिलाने के नाम पर जगा दिया। तब तक हमारे वह दोस्त भी आ गए जो फोन नहीं उठा रहे थे। काफी कहा–सुनी के बाद तय यह हुआ कि हम आज शाम गांदेरबाल जिले के कंगन जाएंगे, जहां जिनाब के दोस्त की शादी है।
तब तक के लिए श्रीनगर के चक्कर ही लगाने का तय किया गया। शहर भी क्या हम वापस उसी पार्क में पहुंचे। यहां हम एक व्यक्ति से मिले जो अपने काम–काज के सिलसिले में कश्मीर के दूर–दराज इलाकों में आते–जाते रहते हैं और उन्हें जमीनी स्थिति का अंदाजा भी है। वह बताते हैं, ‘‘जम्मू–कश्मीर की सरकार (भाजपा–पीडीपी) ने दिल्ली और कश्मीर के बीच के संबंध को मजबूत नहीं बल्कि तोड़ने का काम किया। कश्मीर के युवाओं को समझ में ही नहीं आता कि उन्हें क्या करना है, किधर जाना है। एक पत्थरबाजी करता है और पुलिस उसके करीबी दोस्त तक को पकड़ ले जाती है। आपके यहां के कॉलेजों में किसी भी राजनीतिक विषय पर टीचर खुलकर अपनी बात रख सकता है, लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं है। आपको उतने ही शब्द बोलने हैं, जितने ॊसे न तो सरकार को परेशानी हो और न ही मिलिटेंट को एतराज। मुझे तो लगता है कि यहां पढ़ाई ही क्यों हो रही है। दुनिया भर में कश्मीर पर सबसे ज्यादा राजनीति होगी लेकिन कश्मीर के लोगों को कश्मीर के मुद्दे पर चर्चा आयोजित कराने का भी हक एक तरह से न के बराबर है।’’
मैं उनसे पूछती हूं कि यहां की दीवारों पर कई जगह मुझे ‘नो हुर्रियत, ओनली शरीयत’ (हुर्रियत नहीं केवल शरीयत) देखने को मिला तो क्या कश्मीर अपने लिए शरीयत कानून चाहता है। इस पर उनका कहना था कि आप कश्मीर को एक ऐसे चश्मे से क्यों देखना चाहते हैं जहां लोग आपको बहुत मासूम और अच्छे ही लगते हों। क्या आपके यहां कुछ असामाजिक तत्व नहीं हैं, यहां भी उन असामाजिक तत्वों की कमी नहीं है।’’
इस पूरी बातचीत के बाद लगा कि चलो आज का दिन भी जाया नहीं गया। मैं धर्म के बारे में सोचने लगती हूं। और फिर मन कई ‘क्यों’ से भर जाता है। मन में सवाल आते हैं कि क्या कश्मीर को वाकई शरिया कानून चाहिए? और वर्षों में इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है तो मुझे छह दिन में क्या ही इस सवाल का जवाब मिलेगा। क्योंकि किसी भी समाज का जीवन कई परतों में छुपा होता है। कश्मीर में आप किससे कितनी और क्या बातें करते हैं, इसका एक मतलब या तो आप निकालेंगे या सामनेवाला निकालेगा। यहां आकर लगता है कि आपको अपने चुने गए शब्दों पर बेहद ध्यान देना चाहिए। खासकर के जब आप बाहर से आए हैं तो आपके लिए यह बेहद जरूरी हो जाता है। सच्चाई, निष्ठा और भावना, झूठे प्रचार और प्रोपेगेंडा का यहां जबर्दस्त घालमेल है।
लेकिन आज का दिन तो हमें बहुत कुछ महसूस कराने की कसम खा रखी थी। हम सब शाम तक शादी के लिए रवाना हो गए। श्रीनगर के ईदगाह मैदान से होते हुए हम एक पेट्रोल पंप पर रूके। गाड़ी का शीशा बंद था। मेरी आदत है कि जब तक ठंड मेरे बर्दाश्त के बाहर न हो जाए, मैं गाड़ी का शीशा खोल कर ही रखती हूं। मुझे अपने गालों पर हवा को महसूस करना बेहद पसंद है। और कश्मीर की हवा की बात ही कुछ अलहदा थी। शीशा खोलते ही सबने धीरे–धीरे खांसना शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था कि कहीं हवा में बहुत सारा मिर्च का पाउडर उड़ा दिया गया हो। हमारे कश्मीरी दोस्तों ने बताया कि आसपास कहीं पथराव हो रहा है। उन्होंने हंसते हुए कहा कि अब जाकर आपकी कश्मीर यात्रा पूरी हुई। खांसते–खांसते हमारी हालत बुरी थी। मुझे दक्षिण भारत का वह लड़का याद आ गया जो पत्थरबाजी का शिकार हो गया था श्रीनगर में। काफी देर तक गाड़ी में चुप्पी छाई रही, यह चुप्पी क्यों थी। हमें भी नहीं पता। फिर गानों का सिलसिला शुरू हुआ और जैसा कि मैं पहले बता चुकी हूं कि हिंदी के खराब गाने बजाने में कश्मीरियों को शायद ही कोई टक्कर दे पाए। यह मेरा अपना अनुभव था, यानी मैं जिन लोगों के बीच में थी, उनकी ही बात कर रही हूं। लेकिन 10-15 लोगों को खराब गाने सुनते देखकर आप समझ ही सकते हैं।
कश्मीरी शादी
हम शादी में गए। कश्मीरी शादी के अपने जलवे हैं। कश्मीर में एक चीज लोग बार–बार बोलते हैं कि घर बनाने और शादी करने के अलावा पैसा कोई क्यों ही कमाए। यह बात भारत के अन्य हिस्सों में भी लोग कहते हैं। यहां खाने में एक बड़ी थाली दी जाती है, जिसमें चार लोग इकट्ठे बैठकर ‘वाजवान’ खाते हैं। खाना खिलाने से पहले आपके हाथ धुलाने के लिए इतनी बड़ी तश्तरियां और नक्काशीदार जग लाए जाते हैं कि आप अपने आप खुद को राजशाही के दौर में महसूस करने लगते हैं। कश्मीर की मेहमान नवाजी का कोई जोर नहीं है, वैसे भी हम दो लड़कियां दिल्ली से यहां पहुंची थीं तो लड़की के घरवाले हमारा बेहद ख्याल रख रहे थे। यह मेंहदी की रात थी। आपको शाकाहारी होने का दुख यहां हो सकता है क्योंकि जिस वाजवान को सब बेहद लजीज बता रहे हों, उस समय भी आप पनीर खा रहे हों तो आप मुंह बनाने के सिवा क्या कर सकते हैं। और हां, इस भोज में पनीर का एक टुकड़ा लगभग 250 ग्राम का था। बगल के टेंट में महिलाएं गीत गा रही थीं। गीत राजकपूर की फिल्मों के थे। सब करते–करते 10 बज चुका था। हमें यहां रोका जा रहा था लेकिन कल अनंतनाग जाना था और होटल में सारा सामान था। यहां हमारे एक कश्मीरी दोस्त रुक गए और हम चार वापस लौट आए। गाड़ी में एक दम शांति। बाहर सड़कों पर घुप्प अंधेरा। दोनों तरफ जंगल ही जंगल। मैंने गाड़ी चला रहे कश्मीरी दोस्त से पूछा कि क्या हमें अभी डरना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘सच कहूं, मुझे भी डर लग रहा, अपने लिए नहीं, आप लोगों के लिए, अगर आप लोगों को कुछ हो गया तो कश्मीर बदनाम होगा।’’ मुझे हंसी आ गई और उन्होंने गाड़ी में बज रहे गानों का वॉल्यूम बढ़ा दिया। और गाना बज रहा था, ‘‘अच्छा चलता हूं दुआओं में याद रखना।’’
डर सबसे बड़ी चीज है!
हमारे समय की सबसे बड़ी चीज ‘डर’ है। इसी के आस–पास दुनिया का पूरा कारोबार है। बीमा से लेकर हथियार तक का। सरकार से लेकर सिनेमा तक का। और डरना जरूरी है के टैग लाइन के साथ। और डर के सामने तो कोई सवाल भी नहीं खड़े कर सकता। कश्मीर में भी हर जगह और हर क्षण डर आपके साथ चलता है। आप उसे दूर धकेलते हैं लेकिन वह आपको अपनी मौजूदगी का एहसास कराता रहता है। लेकिन रात में जो डर मुझे लगना चाहिए था, वह लग नहीं रहा था।
हम श्रीनगर में दाखिल हो चुके थे। जामिया मस्जिद के बाहर ढेरों पत्थर पड़े हुए थे, ऐसा लग रहा था कि उन पत्थरों को सुबह कोई उठाएगा और फिर से रोजमर्रा की कवायद शुरू होगी। हल्की सी चमकती रोशनी के बीच बंद पड़ा शहर। हमारा यह दिन समाप्त हो गया था।
अपनी जमीन को छोड़ने को मजबूर लोग
हम चारों सुबह–सुबह अनंतनाग के लिए रवाना हो गए। अनंतनाग को यहां के स्थानीय लोग अनतनाग कहते हैं और कुछ इसे इस्लामाबाद। अनंतनाग में हम एक और अजनबी दोस्त से मिले। उनके घर नाश्ता करके उन्हें साथ लेते हुए हम पहलगाम चले गए। रास्ते में कुछ सिख परिवारों के घर दिखे। हमारी दोस्त ने ही हमें बताया कि यहां उनकी जान–पहचान के कश्मीरी पंडितों के घर हैं जो अब जम्मू में रहते हैं। मैं सोचती हूं कि इससे बुरा किसी के साथ क्या ही हो सकता है कि अपना घर छोड़ना पड़े। दक्षिण भारत के लेखक पेरुमल मुरुगन की कविता ऐसे लोगों की स्थिति को सबसे ज्यादा बयां करती हुई प्रतीत होती है। कई बार ऐसा हुआ है जब मुझे लोग कहते हैं कि पापा–मम्मी से यहीं मिल लो इतना क्या घर जाना। अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि घर–घर होता है चाहे घर के सारे लोगों से आप बाहर कितना ही क्यों न मिल लें। घर और जगह से एक प्रेम होता है और वह घर और अपने जगह जाकर ही पूरा हो सकता है।
‘‘Don’t be in haste
to ask anyone
About their hometown
There might be people
Who cannot tell you their hometown
There might be people
Who dream about their hometown’’
झेलम, पहाड़, भेड़ और चीड़ का खूबसूरत संगम पहलगाम
पहलगाम मासूम खूबसूरती की प्रकाष्ठा है। यहां बर्फीले पहाड़ों, चीड़ के पेड़ों और चरते भेड़ों को देखकर आप यह भूल जाएंगे कि आप किसी कॉन्फ्लिक्ट जोन में हैं। झेलम के पानी में पैर डालते ही खुद का वजूद पानी के साथ बह सा जाता है और आप वह हो जाते हैं जो पानी आपको बनाना चाहता है। हमारा यह पूरा दिन जंगलों में नाचते, गीत गाते और पानी के साथ खेलते हुए बीता था। हम शाम ढलते–ढलते मार्तंड सूर्य मंदिर पहुंच चुके थे। आठवीं शताब्दी के आस–पास बना यह मंदिर अब जीर्ण–शीर्ण स्थिति में है। वहां पहुंचने तक हमें इसके इतिहास के बारे में कुछ पता नहीं था, सिर्फ सोशल मीडिया पर कुछ लोगों की तस्वीरें देखी थीं, जिसे देखकर यहां पहुंचे थे। दरअसल, यहां हैदर फिल्म के गाने ‘बिस्मिल’ की शूटिंग हुई है और उससे पहले ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं’ की। मंदिर बेहद ही खूबरसूरत जगह पर बनाया गया है। टूटे–फूटे होने के बाद भी ध्यान से देखने पर देवी–देवताओं की प्रतिमाएं दिखती हैं। यहां कुछ कश्मीरी परिवार एक तरह से शाम की धूप का आनंद ले रहे थे। यहां से निकलते हुए एक तरह की उदासी हम पर हावी हो गई थी।
हम कल सुबह दिल्ली के लिए रवाना होने वाले थे। यात्राओं में हम जगहों से वादा करते हैं कि हम दोबारा लौटेंगे लेकिन ज्यादातर यही होता है कि हम लौटते नहीं हैं। लेकिन वादा करते जरूर हैं क्योंकि वादा हमारे बीच एक रिश्ता कायम करता है। मैं बिहार से दिल्ली आते समय रो पड़ती हूं और अब दिल्ली भी नहीं छोड़ना चाहती। कश्मीर से जाते समय रोने का दिल करेगा, यह पता नहीं था। हम चारों आपस में देर तक बातें करते रहते हैं या कह लें कि हमारी चुप्पी ही सब कुछ कह रही थी। हम फिर श्रीनगर के उसी झेलम व्यू पार्क में थे, जहां हम कल बैठकर कश्मीर से तुरंत चले जाने की बात कर रहे थे। बस छह दिन की दोस्ती में इतना प्यार। कश्मीर में कई घरों में मुझे लोगों ने कहा कि मैं इस जगह को अपना घर ही समझूं और आती–जाती रहूं। और मैं हर बार हामी भरती रही। हम घूमते–घूमते जीरो ब्रिज पहुंचे। झेलम पर बना हुआ, यह लकड़ी का बेहद खूबसूरत पुल है, जहां बैठने के लिए सुंदर–सुंदर बेंच बने हुए हैं। हम वहां जोर से गीत गाने लगते हैं, लोगों की नजरों को देखते हुए हमारे दोस्त कहते हैं कि कश्मीर में लोग शोक से गुजर रहे हैं। हम गाना बंद कर देते हैं। कुछ वक्त बाद दोस्तों को अपना ख्याल रखने और बहुत सारी सलाह देने के बाद वापस होटल लौट आते हैं।
और अंत में कश्मीर की यात्रा खत्म करने का समय आ गया
सातवें दिन हम सुबह–सुबह टैक्सी से जम्मू के लिए रवाना हो जाते हैं। और रास्ते में स्नेहा खुद को रोते हुए पाती है, छह दिन में इतना लगाव और प्यार कि जाने का दिल नहीं कर रहा। सूरज सामने से निकल रहा है। पहाड़ों को देखकर मुझे फैज़ और अब्दुल्ला की याद आने लगती है, वही अजनबी दोस्त जिसके बिना कश्मीर हम वैसे नहीं देख सकते थे, जैसा कि हमने देखा। किसी भी शहर को आप अपने दोस्तों की नजर से भी देखते हैं और मैंने भी उन लोगों की नजरों से बहुत कुछ देखा था। यहां के पहाड़, हवा और पानी सब कुछ छूट रहा था । कश्मीर में हब्बा खातून नाम की कवयित्री थीं, जो कश्मीर के शाह यूसुफ शाह चाक की बेगम भी थीं। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर ने धोखे से कश्मीर पर अपना कब्जा कर लिया और यूसुफ शाह चाक को बंदी बनाकर बिहार भेज दिया। चाक की कब्र बिहार के नालंदा जिले में है। हब्बा खातून के गीत अब भी कश्मीर में गुनगुनाए जाते हैं। हमें एक कश्मीरी गाने के बोल आधे–अधूरे से याद थे, ‘हरमुख बरतल’। हम उस मार्ग से गुजर रहे थे जो सभी मौसमों में भारत के विभिन्न हिस्सों से कश्मीर को जोड़ने वाला एकलौता राजमार्ग है।