राममनोहर लोहिया कहकर गए थे कि लोग मुझे याद तो करेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद. ऐसा लगता है कि वो भ्रम में थे. आज सुबह उठा तो सोचा कि किसी ने तो लोहिया को याद किया होगा, पर 12 बजे तक लोहिया को किसी ने याद नहीं किया. शायद शाम तक याद आ जाएं. लोहिया अक्सर देरी से याद आते हैं.
पर वो कौन लोग हैं जो लोहिया को याद करते हैं? जो लोग उनके नाम की राजनीति करते हैं, वो तो बिल्कुल नहीं करते. समाजवादियों से लेकर जनता पार्टी के टुकड़ों तक. कभी–कभार जिक्र कर देते हैं, संकट के क्षणों में, या फिर जब उन्हें याद करने के सिवाए कोई रास्ता ही न बचा हो. पर उनकी भी मजबूरी है. शायद उनकी सोशल मीडिया संभालने वालों को पता ही न हो कि लोहिया कौन थे और उन्हें क्यों याद रखा जाए.
लोहिया को कांग्रेस भी याद नहीं करती, और न ही कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग. उन दो विचारधाराओं के लोग, जिनकों साथ में लेकर उन्होंने एक नया भारत बनाने की कल्पना की थी. लोहिया को अब नरेंद्र मोदी भी याद नहीं करते अगर उनको विपक्षियों पर हमला न बोलना हो तो, लगता है कि वो भी ‘लोहिया की तर्ज पर हो महागठबंधन’ और ‘माया–अखिलेश का साथ आना लोहिया और अंबेडकर की राजनीति के आगे लेकर जाएगा’ जैसे लेख पढ़ने लगे हैं.

लोहिया को बुद्धिजीवी भी याद नहीं करते, और न ही बड़े–बड़े विश्वविद्यालयों के छात्र. लोहिया के लोग न ही कोई फाउंडेशन चलातेे हैं जो उन्हें ग्रांट या फैलोशिप दे सकें और न ही उनकी विचारधारा के लोग विश्वविद्यालयों पर कब्जा करके बैठे हैं. लोहिया को गांधीवादी भी याद नहीं करते. शायद वो उस गांधी को याद नहीं रखना चाहते जो आजादी की रात कलकत्ता में दंगे रोकने की कोशिश कर रहा था, तो उनके साथ लोहिया ही थे ये भी उन्हें कैसे याद रहेगा.
लोहिया को उत्तर प्रदेश के लोग भी याद नहीं करते, जो उनकी कर्मभूमि रही. और न ही गोवा के लोग, जिन्हें पुर्तगाल से आजादी दिलाने में लोहिया ने अहम योगदान दिया. लोहिया को अमेरिका में भी कोई याद नहीं करता, जहां पर वो रंगभेद नीतियों का विरोध करने के लिए गिरफ्तार किए गए.
लोहिया को नारीवादी भी याद नही करते, क्योंकि वो भी लोहिया की उस सोच को नहीं पचा पाते जिसमें वो कहते हैं कि एक स्त्री और पुरुष के बीच वादाखिलाफी को छोड़ सभी रिश्ते जायज हैं. लोहिया को अंग्रेजी वाले लोग भी नहीं याद करते क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी का विरोध किया, और उन्हें भारतीय भाषाओं के लोग भी याद नहीं करते क्योंकि वे सिर्फ उन्हें याद करते हैं जिन्हें अंग्रेजी वाले लोग याद करते हैं.
लोहिया को उनकी पीढ़ी की तरह ही भुला दिया गया. एक ऐसी पीढ़ी जो शायद गलत समय पर पैदा हुई. जब तक लोहिया बड़े हुए, तब तक जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग अपने आप को स्थापित कर चुके थे. और जब तक लोहिया का समय आया, तब तक वो खुद हमें छोड़कर जा चुके थे.
पर लोहिया को क्यों याद रखा जाना चाहिए? क्योंकि उनकी हर बात मान ली गई. क्योंकि वो एक शाताब्दी पहले पैदा हो गए. क्योंकि वो सब लोगों को साथ में लेकर एक ऐसा रास्ता बनाना चाहते थे, जिसमें हमेशा कुछ नया करने की गुंजाइश रहे. क्योंकि वो आजाद भारत के एकमात्र बुद्धिजीवी थे, और क्योंकि वो कहने के साथ–साथ करने में विश्वास करते थे. क्योंकि भले ही उन्हें भुला दिया गया पर कालांतर में उनकी सब बातें सच हुई.
एक बार अलबर्ट आइंस्टाइन ने लोहिया से पूछा था कि आप जो करना चाहते हैं उसे नेहरू क्यों नहीं कर पा रहे हैं? लोहिया का जवाब था, ‘Some men can write admirably, but act miserably.’ यही उनके और हमारे युग की त्रासदी है.